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इसमें कोई शक नहीं कि महाराष्ट्र (Maharashtra) में विपक्ष के नेता अजित पवार (Ajit Pawar) का NCP के अन्य विधायकों के साथ शिंदे-बीजेपी सरकार में शामिल हो जोना महाविकास अघाड़ी के लिए एक बड़ा झटका है.
हालांकि, अजित पवार के साथ कुल कितने विधायक गए हैं ये अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इस विभाजन से NCP और महाविकास अघाड़ी कमजोर जरूर हुए है.
शिवसेना के विभाजन के बाद, NCP एमवीए में संख्यात्मक रूप से सबसे मजबूत भागीदार बन गई थी और यही पार्टी वैचारिक मतभेदों के बावजूद शिवसेना और कांग्रेस को एक साथ लेकर आई थी. नेशनल पॉलिटिक्स के नजरिए से भी इसने विपक्ष को बैकफुट पर ढ़केल दिया है, क्योंकि राष्ट्रीय विपक्ष के गणित का एक बड़ा हिस्सा महाराष्ट्र में एमवीए के अंकगणित पर निर्भर था.
हालांकि, इसने देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को एक मौका भी दे दिया है. आईए जानते हैं, कैसे?
यह स्पष्ट नहीं है कि एनसीपी के 53 विधायकों में से कितने पार्टी से अलग हो गए हैं. हालांकि, इसकी पूरी संभावना है कि एनसीपी की सीटें अब कांग्रेस से कम हो जाएंगी, जिसके पास अभी 45 विधायक हैं.
पिछले साल एकनाथ शिंदे के अलग होने के बाद उद्धव ठाकरे की शिवसेना पहले ही 17 सीटों पर सिमट गई थी.
अब कांग्रेस पार्टी विपक्ष के नेता पद के लिए दावा कर सकती है, लेकिन फिलहाल उसने शरद पवार के वफादार विधायक एनसीपी के जितेंद्र अवहाद को कार्यवाहक विपक्षी नेता के रूप में नामित करने दिया है.
जब 2019 में एमवीए का गठन हुआ था, तो कई पर्यवेक्षक कहते थे कि कांग्रेस गठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी है. चार साल बाद, ग्रैंड ओल्ड पार्टी तीनों पार्टियों में सबसे स्थिर साबित हुई है.
अशोक चव्हाण और बालासाहेब थोराट जैसे बड़े कांग्रेस नेताओं के संभावित बाहर निकलने की अटकलें लगाई जा रही थीं, लेकिन उनमें से किसी ने भी कांग्रेस नहीं छोड़ी.
राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी, जबकि कांग्रेस को पिछले नौ सालों में अपने हिस्से से ज्यादा फेलियर्स का सामना करना पड़ा है, उसने यह भी दिखाया है कि दलबदल के बाद खुद को कैसे पुनर्जीवित किया जाए.
ये उससे स्प्ष्ट है जिस तरह से कांग्रेस ने इस साल की शुरुआत में कर्नाटक में जीत हासिल की और मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व वाले विभाजन के बाद फिर खड़ी हो गई.
कांग्रेस एमवीए में एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसकी पूरे महाराष्ट्र में उपस्थिति है. विदर्भ में शिवसेना और एनसीपी दोनों ऐतिहासिक रूप से कमजोर रही हैं. अपने-अपने विभाजन के बाद वे अलग-अलग क्षेत्रों में और भी कमजोर हो गए हैं. उदाहरण के लिए, उद्धव ठाकरे की सेना मुंबई पर बहुत अधिक निर्भर हो गई है, जहां उसके अधिकांश विधायक वफादार बने हुए हैं.
कांग्रेस के लिए अब रणनीति राज्य में एक मजबूत नेतृत्व पेश करने की होगी. इसमें राज्य इकाई के अध्यक्ष नाना पटोले, पूर्व प्रमुख बालासाहेब थोराट और पूर्व सीएम अशोक चव्हाण के बीच संतुलन बनाना होगा, साथ ही सुनील केदार, सतेज 'बंटी' पाटिल और प्रणीति शिंदे जैसे युवा और होनहार नेताओं को भी प्रमुखता देनी होगी.
दलित, मुस्लिम और मराठा मतदाताओं के मजबूत समर्थन के साथ कांग्रेस का ऐतिहासिक रूप से महाराष्ट्र में विविध आधार रहा है. हालांकि, समय के साथ एनसीपी मुख्य मराठा पार्टी के रूप में उभरी और शिवसेना का भी उनमें दबदबा बढ़ गया.
एनसीपी के टूटने और सेना के कुछ मराठा चेहरों के दूर जाने से अब कांग्रेस को अपना खोया हुआ समर्थन वापस पाने का मौका मिल गया है. हालांकि, कांग्रेस के लिए अवसर मराठा मतदाताओं से परे है.
लेकिन अब, बीजेपी मराठों को लुभाने की पुरजोर कोशिश कर रही है. इसका उदाहरण ये है कि कैसे उसने राज्य में एक मराठा सीएम और अब डिप्टी सीएम बनाया है. चूंकि शिंदे, पवार और देवेंद्र फड़नवीस सभी प्रमुख जातियों से हैं, इससे कांग्रेस के पास ओबीसी और दलितों को लुभाने का मौका है.
महाराष्ट्र में ओबीसी का बीजेपी को ठीक-ठाक समर्थन मिलने के बावजूद, आरोप लगते रहे हैं कि पार्टी ने उन्हें उनका हक नहीं दिया है.
वरिष्ठ ओबीसी नेता एकनाथ खडसे ने बीजेपी और खासकर देवेंद्र फड़णवीस पर ओबीसी को दरकिनार करने का आरोप लगाया है. ऐसे आरोपों को संबोधित करने के लिए ही बीजेपी ने एक ओबीसी चंद्रशेखर बावनकुले को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नामित किया है.
यही बात दलितों पर भी लागू होती है. NCP और कांग्रेस में मराठा वर्चस्व ने बीजेपी, विभिन्न आरपीआई गुटों और बाद में प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी को कांग्रेस के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने का मौका दिया था. अब कांग्रेस के पास इस वर्ग में अपना समर्थन दोबारा से हासिल करने का मौका है.
हाल ही में, कई राज्यों में कांग्रेस के लिए दलित समर्थन फिर से जुटने लगा है. सर्वे के अनुसार, पार्टी हाल के कर्नाटक चुनावों में लगभग 60 प्रतिशत दलित वोट हासिल करने में सफल रही. और सर्वे से ही पता चलता है कि मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस के लिए दलित समर्थन में बढ़ोतरी हुई है.
अजित पवार के जाने से अब एमवीए की फिर से कल्पना करने की गुंजाइश मिल गई है. अब तक, एनसीपी उस गठबंधन का आधार रही है जो वैचारिक विरोधियों शिवसेना और कांग्रेस को एक साथ लेकर आई. एनसीपी और खास तौर पर शरद पवार उस भूमिका को निभाते रहेंगे, लेकिन अजित पवार के बाहर निकलने से अब कांग्रेस को एक बड़ी नेतृत्व भूमिका निभाने का मौका मिलेगा.
कांग्रेस को उद्धव ठाकरे को अपने पक्ष में रखने के लिए और कोशिशें करनी होंगी. विनायक दामोदर सावरकर मुद्दे जैसे वैचारिक मतभेदों के बावजूद, ठाकरे और कांग्रेस अब तक सौहार्दपूर्ण समीकरण बनाए रखने में कामयाब रहे हैं.
एमवीए की फिर से कल्पना करने का एक और पहलू है प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी से संबंधित है. प्रकाश अंबेडकर एनसीपी, खासकर अजित पवार के कड़े आलोचक रहे हैं और पिछले कुछ समय से भविष्यवाणी करते रहे हैं कि NCP बीजेपी में शिफ्ट हो सकती है. अजित पवार के बाहर निकलने के साथ, अम्बेडकर अब सही साबित हो गए हैं.
अंबेडकर सैद्धांतिक रूप से उद्धव ठाकरे की सेना के साथ गठबंधन के लिए सहमत हो गए हैं. उन्हें कांग्रेस से भी कोई खास दिक्कत नहीं है. ये वो एनसीपी है जिसके खिलाफ प्रकाश अंबेडकर रहे हैं. आंशिक रूप से ऐसा इसलिए है, क्योंकि एनसीपी को प्रमुख जाति हितों को मजबूती से आगे बढ़ाने के लिए देखा जाता है.
एनसीपी के अब कमजोर होने के साथ, एमवीए के भीतर प्रकाश अंबेडकर के वंचित बहुजन अघाड़ी को शामिल करने की गुंजाइश अब बढ़ गई है. ये याद रखना चाहिए कि इसी पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में कई सीटों पर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को काफी नुकसान पहुंचाया था. एमवीए और वंचित बहुजन अघाड़ी का एक साथ आना दोनों पक्षों के लिए फायदेमंद होगा.
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