महाराष्ट्र (Maharashtra) में शिवसेना शिंदे गुट और बीजेपी की मिली-जुली सरकार ने कल अपनी पहली ही वर्षगांठ मनाई थी और आज राज्य की राजनीति में एक नया धमाका हो गया. शरद पवार (Sharad Pawar) की नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में फूट पड़ गई और उनके अपने भतीजे अजीत पवार (Ajit Pawar) ने 30 विधायकों के संग उनका साथ छोड़ दिया. अभी की स्थिति में यह कहना कठिन है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस में विभाजन हुआ है या नहीं. अजीत पवार ने अभी यह नहीं कहा है कि उन्होंने पार्टी छोड़ी है.
इस समय तो हालात पुरानी शिवसेना जैसे हैं, जिसमें शिंदे गुट ने कहा था कि वे शिवसेना से अलग नहीं हुए हैं. बाद में लंबी कानूनी लड़ाई के बाद शिवसेना (उद्धव ठाकरे ) और शिवसेना (एकनाथ शिंदे) के रूप में शिवसेना का नया स्वरूप सामने आया. अजित पवार और राष्ट्रवादी कांग्रेस की कार्याध्यक्ष सुप्रिया सुले के बीच भी ऐसी ही लंबी कानूनी लड़ाई चल सकती है.
पार्टी में फूट अनपेक्षित नहीं थी
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में फूट अनपेक्षित नहीं थी. अजीत स्थायी असंतुष्ट नेता हैं. पार्टी के भीतर और बाहर भी अपनी नाराजगी उन्होंने प्रकट की है. वे संगठन और सत्ता, दोनों में बड़ी हिस्सेदारी चाहते हैं. करीब 15 दिन पहले जब शरद पवार ने प्रफुल्ल पटेल और सुप्रिया सुले को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था, तब भी अजीत पवार असंतुष्ट थे. वे राज्य में भी बड़ा पद चाहते थे और केंद्र में भी उनकी बड़ी अपेक्षा थी.
वे हमेशा सरकार में बने रहने के इच्छुक रहे हैं और इसके लिए कोई भी खेल खेलने की उनकी तैयारी रहती है. अजीत पवार के साथ गए छगन भुजबल (Chhagan Bhujabal), धनंजय मुंडे (Dhananjay Munde) और कई विधायक ईडी और केंद्रीय जांच एजेसियों के राडार पर थे. यह देखना होगा कि अब उन्हें क्या सर्टिफिकेट मिलता है.
चाचा- भतीजे की चाल पर हमेशा संदेह
अभी अजीत पवार राज्य के उप मुख्यमंत्री बन चुके हैं. उनका ताजा स्टेटस ऐसा ही है. परंतु इन चाचा- भतीजे की जोड़ी की चाल हमेशा संदेह की निगाहों से देखी जाती है. आज जब अजीत पवार के घर एनसीपी विधायकों की बैठक हो रही थी, उस पर शरद पवार की प्रतिक्रिया थी कि अजीत विपक्ष के नेता हैं और वे कभी भी विधायकों की बैठक ले सकते हैं.
राजनीतिक नजरिए से देखे तो यह एक बहुत ठंडी प्रतिक्रिया थी. पिछले घटनाक्रम या 2019 की घटनाओं को देखें तो उस समय अजीत पवार ने देवेंद्र फडणवीस की सरकार में उपमुख्यमंत्री पद संभाला था. वह बहुत ही अल्पजीवी सरकार थी लेकिन 4 साल बाद जब खुलासा हुआ तो पहले देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि शरद पवार की सहमति से ही अजीत पवार के साथ सरकार बनी थी और कल ही शरद पवार ने कहा कि उन्होंने एक गुगली फेंकी थी जिसमें फंस कर फडणवीस क्लीन बोल्ड हो गए थे.
पवार ही खुलासा कर सकते हैं कि क्या हुआ है, क्यों हो रहा है और कैसे हुआ है. इसके लिए कुछ इंतजार करना पड़ेगा.
कितने विधायक हैं अजीत के साथ?
अजीत पवार ने आज जो बैठक बुलाई थी, उसमें उनके साथ 30 विधायक नजर आए. विधानसभा में एनसीपी के 53 विधायक हैं. बैठक में पार्टी के दोनों कार्यवाहक अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल और सुप्रिया सुले भी शामिल हुए थे लेकिन सुप्रिया सुले बैठक से उठकर चली गई. नई परिस्थितियों में यह कहना जल्दबाजी होगी कि अजीत पवार के साथ कितने विधायक हैं और शरद पवार के साथ कितने विधायक बचे हैं. सारी बातें धीरे-धीरे सामने आती हैं.
हर पार्टी में कुछ विधायक चारदीवारी पर बैठे होते हैं जो हवा का रुख देखकर उसके अनुसार कूदते हैं. डैमेज कंट्रोल के लिए शरद पवार क्या कार्रवाई करते हैं, किस तरह के कदम उठाते हैं, उसे देखकर ही चारदीवारी पर बैठे विधायक कोई निर्णय लेंगे.
किसके साथ हैं प्रफुल्ल पटेल?
जब अजीत पवार राजभवन गए तब उनके साथ प्रफुल्ल पटेल भी थे. इसका मतलब यही निकाला जा रहा है कि शरद पवार के लंबे समय से साथी रहे प्रफुल्ल पटेल भी उनका साथ छोड़ चुके हैं. जहां तक प्रफुल्ल पटेल की बात है तो वे केंद्र की राजनीति में ही रहे हैं. सभी दलों में उनकी अच्छी जान पहचान है. इसके बावजूद उन्हें व्यापक जनाधार वाला नेता नहीं माना जाता. इसके विपरीत शरद पवार की बेटी होने के कारण सुप्रिया सुले राज्य और केंद्र में भी जानी पहचानी हस्ती हैं. श्रेष्ठ सांसद के पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है. जो भी हो,प्रफुल्ल पटेल के पाला बदलने का कोई तत्काल कारण फिलहाल नजर नहीं आ रहा है.
क्या शिवसेना की राह पर चल पड़ी है राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ?
बीजेपी ने शिवसेना को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. शिवसेना को खोखला करने में शरद पवार का अप्रत्यक्ष हाथ होने की बात सभी लोग मानते हैं. शिवसेना की दुर्दशा में संजय राऊत (Sanjay Raut), आदित्य ठाकरे (Aditya Thakare) और स्वयं उद्धव ठाकरे (Uddav Thakare) का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. टूटती शिवसेना को बचाने के लिए उद्धव ठाकरे की ओर से जो प्रयास किए गए थे, वे बचाने के नहीं बल्कि डुबाने के ज्यादा थे. साथ छोड़ने वाले विधायकों को गद्दार, धोखेबाज और न जाने क्या-क्या कहा गया.
इतना कहने के बाद कोई उम्मीद कैसे कर सकता है कि वे लोग आपसे दोबारा जुड़ेंगे? उद्धव ठाकरे की बनिस्बत शरद पवार ज्यादा चालाक, घाघ और अनुभवी नेता है. वे साथ छोड़ने वाले विधायकों के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहेंगे जिससे उनकी वापसी का मार्ग बंद हो जाए. शरद पवार बड़े जीवट नेता है. यदि उनकी सहमति से यह खेला हुआ है तब तो वे कुछ ज्यादा नहीं कहेंगे लेकिन यदि वास्तव में उनकी मर्जी के खिलाफ भी यह काम हुआ है तो वे अभी भी अपने बलबूते पर राज्य में 30 से 40 सीटें जिताने की ताकत रखते हैं. उनके खिलाफ सिर्फ एक ही बात है - उनकी उम्र और उनका स्वास्थ्य.
यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो वे बीजेपी, शिवसेना शिंदे गुट और अजीत पवार के साथ गए बागी विधायकों को अच्छा सबक सिखाने की ताकत रखते हैं. प्रदेश की राजनीति में उन्हें चुका हुआ नेता मानना बड़ी भूल होगी .
कैसे करेंगे डैमेज कंट्रोल?
जब शिवसेना टूटी थी तो उद्धव ठाकरे के पास डैमेज कंट्रोल के लिए काफी समय था लेकिन बयानबाजी करके उन्होंने अपना समय गंवा दिया. आज जो कुछ हुआ है उसमें शरद पवार के पास संसदीय दांवपेच खेलने के लिए ज्यादा समय नहीं है. साथ छोड़ने वाले विधायकों को व्हिप जारी करने या ऐसा कुछ कदम उठाने का उन्हें मौका नहीं मिल पाया है और अब यदि वह सब कुछ करते हैं तो यह सिर्फ लकीर पीटने जैसा होगा. उन्हें कोई कानूनी राहत मिल पाएगी इस बारे में संदेह ही है.
राष्ट्रीय राजनीति में अब पवार की क्या स्थिति होगी?
पटना में पिछले दिनों विपक्ष की एकता के लिए बुलाई गई 17 विपक्षी दलों की बैठक में शरद पवार की बड़ी भूमिका थी. पवार की पार्टी राष्ट्रीय स्तर की पार्टी होने का दर्जा खो हो चुकी है लेकिन प्रदेश की राजनीति में उनका दबदबा कायम था. अभी की स्थिति में शरद पवार कमजोर दिखाई दे रहे हैं और उनकी हालत शिवसेना से कोई बेहतर नहीं है. कुल मिलाकर महाराष्ट्र से शिवसेना या राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में कोई महत्वपूर्ण योगदान देने की स्थिति में फिलहाल तो नहीं है.
विधायकों और सांसदों की संख्या ही राजनीति राष्ट्रीय राजनीति में आपका स्टेटस तय करती है. जो मजबूत स्थिति ममता बनर्जी या स्टालिन की है वह स्थिति शरद पवार या उद्धव ठाकरे की नहीं है इसलिए राष्ट्रीय राजनीति में कहीं ना कहीं शरद पवार को जबरदस्त धक्का लगा है.
विपक्षी एकता को लेकर अगली बैठक बेंगलुरु में होने वाली है लेकिन पवार उसमें अपनी बात मजबूती और भरोसे के साथ रख पाएंगे या कह पाएंगे या उनकी बात पर भरोसा किया जाएगा- इस पर संदेह के बादल हैं.
कर्मा रिटर्न्स का सिद्धांत
ऐसा कहा जाता है कि आप अच्छा या बुरा जो कुछ भी करें वह आपके पास लौटकर आता है. जुलाई 1978 में शरद पवार ने मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटील (Vasantdada Patil) को धोखा देकर जनता पार्टी के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाया और सिर्फ 38 साल की उम्र में वे महाराष्ट्र के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने. उन्होंने कांग्रेस को धोखा दिया था इसलिए जब 1980 में इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की सत्ता में वापसी हुई तो उन्होंने शरद पवार के नेतृत्व वाली पीडीएफ सरकार को बर्खास्त कर दिया.
शरद पवार ने वसंतदादा पाटील को जो धोखा दिया था वही 82 बरस की उम्र में उनके पास उनके भतीजे अजीत पवार के रूप में वापस लौट आया है. शायद कर्मा रिटर्न्स का सिद्धांत यही है और यह सिद्धांत सभी पर लागू होता है. समय का इंतजार तो करना ही पड़ता है.
2024 के चुनाव में क्या होगी महाराष्ट्र में स्थिति?
2024 में महाराष्ट्र राज्य विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं लेकिन इस चुनाव में राजनीतिक दलों की क्या स्थिति होगी इस पर विचार करना बड़ा मुश्किल होगा. सबसे बड़ी दिक्कत बीजेपी को होने वाली है. टिकट बंटवारे के समय बहुत कठिनाई आने वाली है. शिवसेना शिंदे गुट के विधायक, अजित पवार के साथ आए विधायक और बीजेपी के अपने विधायक इनके बीच काफी रस्साकशी होगी.
बीजेपी ने 2019 में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस तीनों के साथ मुकाबला किया था लेकिन इनमें से अब दो उसके साथ हैं. फिर टिकट बंटवारा कैसे होगा यह एक बड़ा सिर दर्द पार्टी के सामने रहेगा.
बीजेपी ने जो सीटें छींनी थी यदि उसे वापस करनी पड़ी तो वह अपने आप कमजोर हो जाएगी. निश्चित रूप से पार्टी ने इस पर विचार किया होगा और कुछ ना कुछ उपाय तो सोचा ही होगा. इस वक्त तो उनकी चिंता अजीत पवार और उनके साथियों, को संभालने की होगी जो मंत्री बनने महत्वपूर्ण विभाग पाने की कोशिश करेंगे और शिवसेना (शिंदे गुट) के नाराज विधायकों को मनाने की कोशिश होगी जो मंत्री बनने का ख्वाब देख रहे थे लेकिन उस सपने को अजीत पवार और उनके साथियों ने तोड़ दिया है.
(विष्णु गजानन पांडे लोकमत पत्र समूह में रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे द क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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