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12 दिनों की कश्मकश के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के नेता अजित पवार (Ajit Pawar) और उनके साथ बने मंत्रियों को विभाग बांट दिये गये. बाकियों के बारे में तो अभी कहा नहीं जा सकता, लेकिन अजित पवार अपना मनपसंद विभाग 'छीनने' में कामयाब रहे हैं. फिर भी कई मलाईदार विभाग अजित गुट के हाथ लगे हैं. महाविकास आघाडी (MVA) सरकार में भी अजित पवार के पास यही विभाग था. तब एकनाथ शिंदे गुट का आरोप था कि अजित मनमानी करते हैं और सिर्फ एनसीपी के मंत्रियों और विधायकों के काम किए जाते हैं, शेष विभागों को बहुत कम राशि दी जाती है, उनके काम नहीं किए जाते हैं.
इस समय सरकार का नेतृत्व एकनाथ शिंदे (Eknath Shinde) कर रहे हैं लेकिन वे और उनके साथी आज उसी जगह पर हैं, जहां एक साल पहले खड़े थे. शिंदे बिल्कुल नहीं चाहते थे कि अजित पवार को वित्त विभाग मिले. उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस (Devendra Phadanavis) और प्रदेश बीजेपी के नेता भी वित्त विभाग छोड़ने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन गठजोड़ की सरकार में ऐसे बहुत सारे समझौते करने पड़ते हैं, जिन्हें आप दूसरे मौके पर हरगिज नहीं करते.
बीजेपी इस समय विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी है. यदि 2019 में उद्धव ठाकरे राजी हो जाते तो उनके ही साथ सरकार बनी होती. दोनों पक्ष हिंदुत्व के मुद्दे पर एक थे और इसी मुद्दे को लेकर 2014 में भी उन्होंने सरकार बनाई थी.
बीजेपी का कहना है कि उद्धव की हठवादिता के कारण युति सरकार सत्तारूढ़ नहीं हो पाई. दोनों ही पार्टियां एक- दूसरे पर धोखा देने का आरोप लगा रही हैं. उद्धव ठाकरे ने तमाम वर्जनाओं को छोड़कर कांग्रेस (Congeress) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के साथ मिलकर महा विकास आघाडी की सरकार बना ली थी.
सरकार में भी सत्ता पर वर्चस्व, विभागों के बंटवारे और पार्टियों की संख्या शक्ति को लेकर मतभेद थे, जिसका परिणाम एकनाथ शिंदे का उद्धव ठाकरे को छोड़कर जाना रहा. अंदरूनी दांवपेच जो भी रहे हों, बीजेपी ने मौके को लपक कर शिंदे ग्रुप के साथ सरकार बना ली. पिछले कुछ समय से आरोप-प्रत्यारोप का जो दौर चल रहा था, उसमें कुछ ठंडापन और आरोपों में दोहराव आने लगा था, लेकिन अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के टूटने के कारण आरोपों का नया दौर शुरू हो गया है. फिलहाल इसका कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा है.
शिंदे गुट और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी में ‘ऑल इज वेल’ है लेकिन अजित गुट के आने की वजह से इस दावे में दम नजर नहीं आ रहा है. पिछले एक साल से शिंदे गुट और बीजेपी के विधायक मंत्रिमंडल विस्तार का इंतजार कर रहे थे और सभी उम्मीद कर रहे थे कि उनकी लॉटरी लगेगी, लेकिन लॉटरी उन लोगों के नाम लगी जिनकी कोई उम्मीद नहीं कर रहा था.
मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे दोहरी कठिनाई में हैं. उनके अपने विधायक तो नाराज हैं ही उनके साथ आए निर्दलीय विधायक भी अपना असंतोष जाहिर कर रहे हैं. बच्चू कडू (Bacchu Kadu) निर्दलीय विधायक हैं, लेकिन वे आघाडी सरकार में मंत्री थे. शिंदे का साथ देने के बाद उन्हें आशा थी कि उनका मंत्री पद कायम रहेगा, लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया है.
ऐसे और भी लोग हैं जो मंत्री बनने का मौका न पाने की वजह से नाखुश हैं. वे शायद इसलिए खामोश हैं कि अगले साल इलेक्शन है. उनके मन में यह डर भी है कि उनकी बार-बार की उछल कूद मतदाताओं को नाराज न कर दे और वे विधायकी से भी हाथ धो बैठें.
अजित पवार उस विभाग पर जा बैठे हैं जिसके हाथ में सब की नब्ज है. आघाडी सरकार में उनकी मनमानी चलती थी, जिसके कारण खास तौर से शिवसेना में बड़ी नाराजगी थी. उद्धव सरकार में सबसे मजे में कांग्रेस थी, जो अनायास ही सत्ता में आ गई थी इसलिए उन्हें जो विभाग मिले थे उसमें ही उन्होंने संतोष कर लिया था. संख्या बल में कम होने के कारण वे अधिक शर्तें रखने की स्थिति में भी नहीं थे, इसलिए जो मिल गया उसे नसीब समझकर स्वीकार करने में ही उनके लिए आनंद था.
शिंदे गुट के विधायकों को डर है कि अजित फिर ऐसा ही करेंगे और उनके विधानसभा क्षेत्र में फिर विकास कार्य नहीं हो पाएंगे. यदि ऐसा होता है तो यह डर उन्हें लगातार सता रहा है कि अपने क्षेत्र के मतदाताओं को क्या मुंह दिखाएंगे. उनकी डर की हकीकत क्या है यह आने वाला समय ही बताएगा.
सवाल यह है कि क्या इस बार अजित पवार अपनी मनमानी कर पाएंगे. इसका जवाब शायद नहीं में होगा. इसकी वजह यह है कि खुद अजित पवार के साथ इस बार ज्यादा विधायक नही हैं. दूसरी बात उनके सामने बीजेपी के दबंग नेता उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस हैं. पिछली सरकार अजित पवार चला रहे थे जबकि यह सरकार देवेंद्र फडणवीस चला रहे हैं. तीन दलों की सरकार में सबसे ज्यादा विधायक भारतीय जनता पार्टी के हैं. उनका नेता भी दबंग है. उसे दिल्ली का आशीर्वाद प्राप्त है और अजित पवार उनके अपने कारणों से बीजेपी और शिवसेना शिंदे गुट के पास आए हैं.
पिछली सरकार में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे कोई फैसला नहीं करते थे, लेकिन इस बार फैसला करने वाला मुख्यमंत्री सत्ता में है इसलिए अजित दादा के निर्णय पर मुहर मुख्यमंत्री ही लगाएंगे.
केसरकर ने यह भी कहा कि अजित पवार ने अपनी पिछली गलतियों से सबक सीखा होगा और इस बार ऐसा कोई निर्णय नहीं लेंगे जिससे विधायकों में नाराजगी बढ़े. अजित पवार को शिंदे ग्रुप की ओर से यह सीधा- सीधा संकेत है कि वे अपने दायरे में रहकर काम करें. निश्चित रूप से निधि बंटवारे में इस बार वैसा पक्षपात नहीं हो पाएगा जैसा पिछली सरकार में हो रहा था.
2019 का जनादेश शिवसेना और बीजेपी ही को था और इस जनादेश को शिवसेना ने नकार दिया था. शिंदे गुट और बीजेपी में एक वैचारिक समानता है लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस के अजित पवार गुट के साथ किसी वैचारिक समानता की बात नहीं है.
अजित पवार गुट को अवसरवादी माना जा रहा है. इसकी वजह भी है. अजित पवार खुद घोटाले के आरोपों में गिरे हैं और उनके साथ के छगन भुजबल (Chhagan Bhujabal), हसन मुश्रीफ (Hasan Mushrif), धनंजय मुंडे (Dhananjay Munde) आरोपों और विवादों के कारण चर्चा में रहे हैं.
यह सामान्य धारणा है कि ईडी और सीबीआई के जाल और चक्कर में फंसने से बचने के लिए इन लोगों ने पाला बदला है. इन लोगों पर आरोप लगाने वाले बीजेपी के ही नेता थे और अब यही लोग बीजेपी की वाशिंग मशीन में धुल कर बेदाग बन रहे हैं.
एक और सवाल चर्चा में है और वह है इस सारे घटनाक्रम का आने वाले विधानसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा? सीटों का वितरण कैसा होगा, जिन सीटों पर पिछली बार कांटे की टक्कर थी वे कौन लेगा, दोनों दलों से आए विधायकों को टिकट मिलेगी या नहीं, क्या उनके साथ भितरघात हो सकता है, ये तमाम प्रश्न विधायकों के मन में हैं.
मतदाताओं का रुख क्या होगा यह एक और चिंता का विषय है जिसका जवाब किसी के पास नहीं है. डर इस बात का है कि जनता के गुस्से का शिकार सभी राजनीतिक पार्टियां हो सकती है. यह साफ है कि राज्य में जो कुछ हो रहा है, उससे मतदाता खुश नहीं है. यह मानकर चलिए कि मतदाता सब देख सुन रहा है. उसका फैसला क्या होगा इससे सभी घबरा रहे हैं.
(विष्णु गजानन पांडे लोकमत पत्र समूह में रेजिडेंट एडिटर रह चुके हैं. आलेख में व्यक्त विचार लेखक के हैं और उनसे द क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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