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मौजूदा समय में कांग्रेस जिस परिस्थिति से गुजर रही है, कुछ ऐसी ही परिस्थिति 70 के दशक में भी थी. कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई थी. एक हिस्से को सिंडिकेट यानी पुराने नेताओं का गुट कहा जाता था, तो दूसरा हिस्सा इंदिरा गांधी के साथ था, जो युवाओं का गुट था. ये वो दौर था जब दोनों गुटों के बीच कांग्रेस पर कब्जे की होड़ लगी रहती थी. इंदिरा गांधी, युवाओं का नेतृत्व कर रहीं थीं और पुराने नेताओं को दरकिनार कर युवाओं को राजनीति में आने का मौका दे रहीं थीं. इसी दौर में दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य से आने वाला एक 27 साल का नौजवान इंदिरा गांधी के गुट में शामिल होता है और उसे वहां के सबसे बड़े स्थानीय नेता देवराज उर्स का साथ मिलता है.
सामाजिक और संगठन में सक्रियता को देखते हुए देवराज उस नौजवान को विधानसभा का टिकट दिलवाते हैं. टिकट मिलने के बाद वो नौजवान घर-घर जाकर पर्चे बांटता है और खुद ही दीवारों पर स्लोगन लिखता है. चुनाव के बाद जब परिणाम आते हैं तो वो नौजवान बड़े अंतर से जीत हासिल करता है. ये जीत उस नौजवान के लिए महज शुरुआत थी. दीवारों पर खुद के चुनाव के लिए स्लोगन लिखने वाले नौजवान को क्या पता था कि आने वाले वक्त में उसे कांग्रेस की तकदीर लिखने का जिम्मा सौंपा जाएगा.
80 साल के हो चुके मल्लिकार्जुन खड़गे का जन्म ब्रिटिश शासित भारत में हुआ था. खड़गे के जन्म के साल 1942 में ही महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की थी. खड़गे पर महात्मा गांधी और उनकी विचारधार की छाप भी देखी जा सकती है. उन्हें एक सहज और सुलझे हुए नेता के रूप में भी जाना जाता है. कहा जाता है कि खड़गे ने अपनी मां और बहन को अपनी आंखों के सामने मरते हुए देखा था. कर्नाटक के जिस वर्वट्टी गांव में खड़गे का जन्म हुआ था वो हैदराबाद के निजाम के अधीन आता था.
1945 और 46 का साल था जब हैदराबाद निजाम के कुछ सैनिक उनके गांव वर्वट्टी पहुंचे. उस समय वो अपने घर के बाहर खेल रहे थे. घर में मां-बहन थीं और पिता काम पर गए थे. निजाम के सैनिकों ने मां और बहन दोनों को जिंदा जलाकर मार डाला था. खड़गे की उम्र उस समय तकरीबन 3 साल की थी, जब वो सिर्फ खड़े-खड़े देखते रहे... मां की मौत के बाद खड़गे, पिता के साथ गुलबर्ग शहर चले गए. पिता एक मिल में काम करते थे. गुलबर्ग में ही खड़गे की शुरुआती पढ़ाई हुई और उसके बाद वहीं के सरकारी कॉलेज में दाखिला ले लिया. कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ राजनीति की शुरुआती शिक्षा भी उन्हें यहीं से मिली. खड़गे ने अपना पहला चुनाव कॉलेज में ही लड़ा था. तब उन्हें छात्रसंघ का महासचिव चुना गया था. कॉलेज की राजनीति के दौरान खड़गे मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई में हिस्सा लेने लगे थे.
जब 70 के दशक में कांग्रेस सिंडिकेट और इंदिरा गांधी के बीच संघर्ष चल रहा था. तभी खड़गे ने कांग्रेस का दामन थामा था. उस समय खड़गे की उम्र महज 27 साल की थी. उस समय उन्हें कर्नाटक के बड़े नेता देवराज उर्स का साथ मिला. देवराज ने खड़गे को पहली बार विधानसभा का टिकट दिलवाया. 1972 में खड़गे राज्य की गुरमितकल सीट से पहली बार विधायक चुने गए. खड़गे के लिए ये महज शुरूआत थी. 1972 के बाद खड़गे लगातार 9 बार इसी सीट से विधायक चुनकर आते गए. पहली बार विधायक बनने पर ही खड़गे को तब के सीएम देवराज उर्स ने मंत्री बना दिया था. 1976 में खड़गे पहली बार प्राथमिक शिक्षा विभाग में राज्य मंत्री बनाए गए. इसके बाद खड़गे लगातार कर्नाटक सरकार के अलग-अलग विभागों का जिम्मा संभालते रहे.
साल 1980 में देवराज उर्स के बाद गुंडूराव राज्य के मुख्यमंत्री बने. खड़गे को कैबिनेट मंत्री बनाया गया. खड़गे 1990 में बंगारप्पा सरकार और 1992 में वीरप्पा मोइली सरकार में भी कैबिनेट मंत्री रहे. 1994 में खड़गे की तब भूमिका बदली जब कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर की सरकार बनी. मुख्यमंत्री बने एच डी देव गौड़ा और खड़गे विपक्ष के नेता बनाए गए. खड़गे के नेतृत्व में साल 1999 में कांग्रेस की वापसी हुई. इस बार खड़गे का नाम भी मुख्यमंत्री की रेस में माना जा रहा था. लेकिन आलाकमान ने एस एम कृष्णा को सरकार का जिम्मा सौंप दिया. हालांकि, एस एम कृष्णा की सरकार में गृह विभाग खड़गे को मिला. खड़गे के शासनकाल में ही कुख्यात वीरप्पन ने कन्नड़ सिनेमा के जाने माने एक्टर और गायक राजकुमार का अपहरण किया था.
इसके बाद साल 2004 में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हुए. कर्नाटक में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई. कांग्रेस और JDS ने मिलकर सरकार बनाई. इस बार ये लगभग तय माना जा रहा था कि मल्लिकार्जुन खड़गे के सिर ही मुख्यमंत्री का ताज सजेगा. लेकिन ऐन वक्त पर बाजी पलट गई. निजी तौर पर खड़गे के दोस्त और सियासी प्रतिद्वंदी धरम सिंह को आलाकमान ने मुख्यमंत्री बनने का आदेश दे दिया. कहते हैं खड़गे के लिए ये झटका था, लेकिन उन्होंने पार्टी के फैसले के खिलाफ चूं भी नहीं की.
साल 2008 में कर्नाटक में कांग्रेस की हार हुई. हालांकि, खड़गे चुनाव जीत गए थे. लेकिन गांधी परिवार की गुड बुक में शामिल होने का इनाम खड़गे को मिला. 2009 में कांग्रेस ने खड़गे को उनके घर गुलबर्ग से टिकट दिया. खड़गे लोकसभा पहुंचे और मनमोहन सिंह की यूपी-2 में मंत्री बने. उधर, साल 2013 में जब कांग्रेस कर्नाटक की सत्ता में दोबार वापस लौटी तो ये कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार तो पक्का खड़गे को राज्य की कमान सौंपी जाएगी, लेकिन खड़गे के हाथ फिर खाली रह गए.
इस बार आलाकमान ने जनता दल छोड़कर कांग्रेस में आए सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री चुना. इस बार भी खड़गे ने कोई सवाल नहीं पूछा. लेकिन जवाब में उन्हें 2013 में देश की रेल चलाने का जिम्मा सौंप दिया गया. 2013 के बाद से कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार खराब होता गया. लेकिन, खड़गे की राजनीति चमकती गई. 2014 लोकसभा चुनावों में जब कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट कर रह गई यहां तक कि ज्यादातर कैबिनेट मंत्रियों की जमानत तक जब्त हो गई. तब खड़गे, इस मोदी लहर में भी जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. और कांग्रेस ने उन्हें संसद के निचले सदन में पार्टी का नेता चुना था.
साल 2019 में लोकसभा चुनाव हुए तो खड़गे चुनाव हार गए. ये उनके राजनीतिक करियर में पहली हार थी. हार के बावजूद कांग्रेस आलाकमान की मेहरबानी खड़गे पर बरसी और उन्हें 2020 में राज्यसभा भेज दिया गया. खड़गे सिर्फ राज्यसभा ही नहीं भेज गए, बल्कि उन्हें 2021 में सदन में विपक्ष का नेता भी बनाया गया.
खड़गे इसी साल 80 साल के हुए हैं. 21 जुलाई को खड़गे अपना जन्मदिन मनाते हैं. इस साल भी दिल्ली से लेकर कर्नाटक के गुलबर्ग तक जन्मदिन के जश्न की तैयारी थी. लेकिन खड़गे ने कहा कि इस जन्मदिन पर कोई जश्न नहीं मनेगा. वजह ये थी कि इसी दिन ED ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को नेशनल हेराल्ड केस में पूछताछ के लिए बुलाया लिया था.
खड़गे ने जन्मदिन नहीं मनाया, अपनी नेता के लिए सड़क पर उतरकर प्रदर्शन किया. पार्टी, आलाकमान और गांधी परिवार के लिए अपनी इन्हीं वफादारियों का नतीजा था कि सोनिया गांधी ने उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठाने के लिए अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ाने का फैसला किया है. सूत्र बताते हैं कि उन्हें पार्टी में हर तरफ से समर्थन मिलने की उम्मीद है. खड़गे के बारे में एक बात कांग्रेसी और उनके विपक्षी भी कहते हैं कि सियासत की काजल की कोठरी में पांच दशक से ज्यादा रहने के बावजूद उनपर कभी कोई दाग नहीं लगा.
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