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अप्रैल, 2011 में मेरठ के काजीपुर में एक मस्जिद के इमाम के साथ मारपीट की घटना हुई. अगले दिन मेरठ शहर में तोड़फोड़ शुरू हो गई. प्रशासन ने फौरन सख्ती बरती और शहर तीन दिन में सामान्य रफ्तार से चलने लगा.
इसके बाद मुख्यमंत्री मायावती के शासन का डंडा चला. एक थानेदार, एक डीआईजी को सस्पेंड कर दिया और मेरठ के जिलाधिकारी का तबादला कर दिया गया. उसके बाद जब तक मायावती का शासन चला, पश्चिम यूपी में सांप्रदायिक हिंसा की कोई घटना नहीं हुई.
मायावती को यूपी में इन दिनों फिर से याद किया जा रहा है. चुनाव का समय है और प्रदेश के लगभग 20 फीसदी मुस्लिम वोट पर सपा-कांग्रेस गठबंधन अपना दावा पेश कर रहा है. ऐसे में जब लोग अखिलेश यादव के कार्यकाल को पलटकर देखते हैं, तो पाते हैं कि वह दौर सांप्रदायिक हिंसा के छींटों से दागदार रहा.
इसके मुकाबले, मायावती का शासनकाल इस मोर्चे पर शांति से गुजर गया. सांप्रदायिक हिंसा में उन पांच साल में कुल मिलाकर चार लोग मारे गए. पांच साल में ऐसे मौके सिर्फ छह बार आए, जब तीन दिन से ज्यादा समय के लिए कर्फ्यू लगाने की नौबत आई. कुल मिलाकर, सांप्रदायिक हिंसा की दृष्टि से वह अमन-चैन का दौर था.
मायावती के शासन काल में जब भी वे लखनऊ में होती थीं, हर दिन राज्य के डीजीपी, गृह सचिव ओर उनके करीबी नौकरशाह शशांक शेखर सिंह की सचिवालय में बैठक होती थी. इसमें राज्य के हालात पर चर्चा होती थी और प्रशासनिक फैसले लिए जाते थे. इन फैसलों को पलटने का अधिकार किसी को पास नहीं था. अगर कोई फैसला बदला जाता, तो मुख्यमंत्री की मर्जी से ही.
इसके मुकाबले अखिलेश यादव को प्रशासन में वह सर्वोच्चता कभी हासिल नहीं हुई. समाजवादी पार्टी में पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव ज्यादातर समय अखिलेश से ज्यादा प्रभावशाली रहे. ऐसे में अखिलेश यादव के फैसलों में वह दम कभी नहीं आया, जो मुख्यमंत्री के फैसलों में होना चाहिए.
कोई भी शासन दरअसल इकबाल से चलता है. वह इकबाल अखिलेश को कभी हासिल नहीं हुआ.
गौतमबुद्ध नगर जिले में तैनात एक जूनियर आईएएस अफसर दुर्गा शक्ति नागपाल ने जब एक मस्जिद की दीवार गिरवा दी, तो इलाके में इसका विरोध हुआ. इसके बाद सरकार को नागपाल को निलंबित करना पड़ा. आईएएस एसोसिएशन का मन इतना बढ़ा हुआ था कि इसके खिलाफ बाकायदा अभियान चला दिया. आखिरकार सरकार झुक गई और नागपाल का निलंबन वापस ले लिया गया. सरकार का इस तरह नौकरशाही के सामने झुक जाना, शासन के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हुआ.
वहीं, मायावती के शासन में बड़े-बडे अफसरों के खिलाफ कार्रवाई हुई और एसोसिएशन चूं नहीं बोल पाया.
सरकार को लोकतांत्रिक होना चाहिए. सबकी बात सुननी चाहिए. लेकिन उसमें अपने फैसलों को लागू कराने का दम होना चाहिए. अगर यह न हो तो सरकार नहीं चल पाती. अराजकता आ जाती है. मुजफ्फरनगर में यही हुआ. उत्तर प्रदेश में अखिलेश शासन में हुए सैकड़ों दंगों का यही सबब है.
वे मायावती की तरह प्रभावशाली प्रशासक नहीं बन पाए. यह उनकी इच्छा का मामला नहीं था. समाजवादी पार्टी की आंतरिक संरचना में यह मुमकिन ही नहीं था. अपने शासन के आखिरी दिनों में अखिलेश ने सत्ता के समानांतर केंद्रों की छाया से बाहर आने की कोशिश की. लेकिन तब तक देर हो चुकी है. और यह बात दावे से कोई नहीं कह सकता कि आज भी समाजवादी पार्टी में वे सत्ता के अकेले केंद्र हैं.
दंगा रोकना कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है. यह किसी भी सरकार का बुनियादी काम है कि वह कानून का राज कायम करे. कानून का राज होगा, तो दंगे रोकने के लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं होती.
समझा जा सकता है कि मायावती और अखिलेश में इस मायने में फर्क क्यों रहा. इसलिए एक ने दंगामुक्त शासन दिया और दूसरे का शासन दंगायुक्त रहा.
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क्या यूपी चुनाव में मायावती की ताकत को कम करके आंका जा रहा है?
(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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