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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) की कृषि कानूनों को वापस (Farm Laws Repealed) लेने की घोषणा ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है. आखिर सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून (CAA) पर भी ऐसे ही यू-टर्न क्यों नहीं लिया.
कृषि कानूनों की ही तरह सीएए का भी व्यापक विरोध हुआ था. हालांकि इन दो मौकों की तुलना करना गलत है. लेकिन फिर भी हिफाजत के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि दोनों आंदोलन काफी मजबूत और भारत के सबसे बड़े जन प्रदर्शन थे.
लेकिन कृषि कानूनों की तरह उसने सीएए पर यू-टर्न नहीं लिया. ऐसा क्यों? इसे हम पांच प्वाइंट्स से समझ सकते हैं.
सीएए में असल में सरकार ने एक छोटा सा यू-टर्न लिया था. सीएए को पास हुए करीब-करीब दो साल हो गए हैं और अब तक कानून के तहत किसी को नागरिकता नहीं दी गई है, क्योंकि सरकार ने अब तक इसके तहत नियम नहीं बनाए हैं.
जुलाई 2021 में सरकार ने सीएए के तहत नियम बनाने के लिए छह महीने का एक्सटेंशन मांगा था. अगस्त में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा कि कानून के तहत नागरिकता तब दी जाएगी, जब नियमों को अधिसूचित किया जाएगा.
तो कुल मिलाकर इस कानून से मुसलमान परेशान हुए हैं जो कहते हैं कि यह कानून भेदभाव करता है, और असम में एक तबके को इस बात का डर है कि इसके बाद बांग्लादेश से हिंदू लोगों का हुजूम वहां पहुंच जाएगा, लेकिन अब तक इस कानून से उन लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ है जिन्हें फायदा देने की बात थी.
फिर भी सीएए पर सरकार का ‘यू-टर्न’ आंशिक, यानी आधा-अधूरा है और इसे वैसे प्रचारित नहीं किया गया, जैसे कृषि कानूनों के मामले में प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक बयान देकर किया है. अब, दोनों में फर्क क्या है? ये हम बाकी के चार प्वाइंट्स से समझेंगे.
सबसे बड़ी वजह तो यह है कि सीएए के खिलाफ आंदोलन- चाहे शाहीन बाग हो या असम या देश के बाकी के हिस्सों में हजारों धरना प्रदर्शन, सभी को कोविड-19 महामारी ने लील लिया, जो 2020 की शुरुआत में भारत में पहुंची थी.
अगर महामारी खौफनाक रूप न लेती, तो यकीनन इन गिरफ्तारियों का जबरदस्त विरोध होता.
महामारी और इसके बाद लॉकडाउन ने सीएए के खिलाफ सभी तरह के सामूहिक जमावड़ों पर रोक लगा दी. असम में कहा गया कि राज्य सरकार ने महामारी से जिस असरदार तरीके से निपटा, उससे बीजेपी को दोबारा जीत हासिल हुई.
इसके बाद दूसरी लहर में, पहली लहर की तरह राष्ट्रीय लॉकडाउन नहीं हुआ और कुछ प्रदर्शनकारी सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर डटे रहे. इसलिए गिनती जरूर कम हुई, लेकिन प्रदर्शन खत्म नहीं हुए.
एक बहुत बड़ी वजह यह है कि सीएए प्रदर्शनों के मुकाबले किसानों के प्रदर्शनों की राजनैतिक कीमत बहुत ज्यादा है. असम के बाहर सीएए विरोधी प्रदर्शनों में मुसलमानों की अगुवाई बहुत ज्यादा थी. मुस्लिम इलाके प्रदर्शनों का गढ़ थे और इन इलाकों के बाहर धरनों की गिनती बहुत ज्यादा नहीं थी. इसलिए बीजेपी को वोट गंवाने का डर नहीं था, क्योंकि ज्यादातर मुसलमान मतदाता उसे वोट वैसे भी नहीं देते.
ऐसे में बीजेपी को जिस एक जगह समर्थकों के खोने का डर था, वह असम था. बीजेपी ने इस नुकसान की भरपाई के लिए जो कदम उठाए, उनमें से एक पुलिसिया कार्रवाई थी. फिर महामारी के चलते लोग एकजुट नहीं हो पाए. आखिर में जातीय असमिया वोटर्स को एक होने से रोकने के लिए उनके अलग-अलग समूहों से मेल-मुलाकात की गई.
अरुण ज्योति मोरन इस बात की अच्छी मिसाल हैं कि कैसे बीजेपी ने सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को अपने पक्ष में कर लिया. मोरन राज्य में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों का एक चमकता चेहरा थे, और ऑल मोरन स्टूडेंट्स यूनियन के नेता भी. लेकिन सीएए के खिलाफ होने के बावजूद वह असम चुनावों से ऐन पहले बीजेपी में शामिल हो गए.
इसी तरह बीजेपी ने असम के जातीय समूहों को लुभाया- काउंसिल्स बनाईं, सरकारी पदों पर मुख्य नेताओं को नियुक्तियां दीं.
फिर, सीएए पर वापसी का मतलब यह है कि पश्चिम बंगाल और असम की बराक घाटी में हिंदू प्रवासी वोटर्स का एक बड़ा हिस्सा गंवाना. इन दोनों राज्यों में 2021 के चुनावों में इन वोटर्स ने बीजेपी का समर्थन किया था और सीएए उसकी एक बहुत बड़ी वजह था.
इसके अलावा सीएए के मुकाबले कृषि कानूनों के खिलाफ विपक्षी पार्टियां ज्यादा असरदार रही हैं. पश्चिम उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी, हरियाणा में दीपेंदर हुड्डा और सभी बड़ी पार्टियों ने बीजेपी के खिलाफ किसानों के प्रदर्शनों का फायदा उठाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
पंजाब में बीजेपी के लिए राजनैतिक रूप से गायब हो जाने का जोखिम था. लेकिन अगर बात सिर्फ पंजाब की होती तो बीजेपी उसे नजरंदाज करने की कोशिश कर सकती थी, चूंकि वैसे भी सिख वोटर्स में प्रधानमंत्री मोदी को लेकर कभी बहुत उमंग नहीं थी.
लेकिन इससे हरियाणा और पश्चिमी यूपी में बीजेपी की हालत खस्ता हो सकती थी. इसकी एक झलक हरियाणा के निकाय चुनावों और उपचुनावों से मिल रही थी. इनमें बीजेपी को करारी हार मिली थी और इसी से साबित होता है कि जाट समुदाय ने राज्य और स्थानीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ वोट करने के लिए मन पक्का कर लिया था.
हालांकि हरियाणा में जाट फिर भी सिर्फ राज्य स्तर पर बीजेपी विरोधी ही थे (राष्ट्रीय स्तर पर नहीं), लेकिन पश्चिमी यूपी और भी खतरनाक है. इसके एक मायने यह थे कि हाल के दिनों में बीजेपी ने जो सबसे मजबूत वोट बैंक तैयार किया है, वह धसक सकता है.
भारत में हिंदू शरणार्थियों को बसाना, बीजेपी और संघ परिवार की बड़ी चाहत रही है. सीएए ने इसमें दूसरे गैर मुसलमानों को भी जोड़ दिया लेकिन हिंदुत्व के समर्थकों के लिए इसका सूत्र वाक्य हमेशा ‘हिंदू शरणार्थी’ ही रहा. कइयों ने कहा कि विभाजन के दौरान जो नाइंसाफी हुई, यह कानून उसका इंसाफ करता है.
ऐसी कोशिशें जरूर हुईं, खास तौर से 26 जनवरी को लाल किले की हिंसा के बाद, कि इस पूरे अफसाने को ‘खालिस्तान के खिलाफ संघर्ष’ में तब्दील किया जा सके, लेकिन पश्चिमी यूपी और हरियाणा में बढ़ते प्रदर्शनों के चलते दक्षिणपंथी कोई बड़ा सिख विरोधी आंदोलन नहीं छेड़ पाए.
फिर सीएए पर खुले तौर से यू-टर्न लेना बीजेपी के लिए बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के हिंदू शरणार्थियों को देश में बसाने के वादे से बीजेपी मुकर रही है.
सीएए के खिलाफ पूरी बीजेपी एक जैसी बात करती थी. इस पर पार्टी की प्रतिक्रिया एकदम साफ थी. अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं ने शाहीन बाग के प्रदर्शनों पर जो टिप्पणियां की थीं, उससे पता चलता था कि विरोधियों के बारे में बीजेपी क्या सोचती है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने तो ईवीएम के बटन से ‘शाहीन बाग को करंट’ लगाने की बात भी कही थी.
लेकिन कृषि कानूनों पर बीजेपी अलग-अलग जुबान बोल रही थी. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने किसान प्रदर्शनकारियों के खिलाफ ‘जैसे को तैसा’ जैसा बयान दिया और बीजेपी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने उन्हें ‘खालिस्तानी’ बताया.
असम में हालांकि सरबानंद सोनोवाल सीएए को लागू करने में कुछ संकोच कर रहे थे लेकिन फिर भी उन्होंने गृह मामलों को संभाला और प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कार्रवाई की. कृषि कानूनों पर प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद राहुल गांधी भी सक्रिय दिखे. वह बीजेपी के खिलाफ मोर्चा छोड़ने वाले नहीं हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने की मांग की है.
लखीमपुर खीरी वाली घटना के बाद भी मोदी सरकार और यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार एक कतार में नहीं थीं. इससे किसान संघों, खासकर राकेश टिकैत को फायदा हुआ. उन्होंने इस पर बीजेपी को आड़े हाथ लिया.
पहले बीजेपी को लगता था कि टिकैत उसके ‘उतने बड़े विरोधी नहीं’ और उनकी मदद से किसानों के एक तबके को अपनी तरफ खींचा जा सकता है. लेकिन आखिर में उलटा हो गया. बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच जो मतभेद है, टिकैत ने उसी का इस्तेमाल किया.
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Published: 21 Nov 2021,11:26 AM IST