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नोटबंदी और इसके खिलाफ 'भारत बंद' का असर चाहे जितना हो, पर देश की राजनीति पर इसका असर पड़ना तय है. विपक्ष की ज्यादातर पार्टियां नोटबंदी को मोदी सरकार का सियासी कदम मान रही हैं. तमाम पार्टियां पब्लिक को हो रही परेशानी को आधार बनाकर इस स्कीम का विरोध कर रही हैं.
दूसरी ओर बिहार सीएम नीतीश कुमार नोटबंदी के सवाल पर लोगों को चकित कर देने की हद तक पीएम मोदी के कदम का जोरदार समर्थन कर रहे हैं. ये वही नीतीश हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी की ओर से नरेंद्र मोदी को प्रचार अभियान की कमान थमाए जाने पर इस पार्टी से 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया था. जरा इन नेताओं के बयानों पर गौर कीजिए...
जब मोदी सरकार की नोटबंदी के खिलाफ एक-दूसरी की धुर विरोधी पार्टियां भी आज एकसाथ खड़ी हैं, ऐसे में सीएम नीतीश कुमार का अपने ही महागठबंधन से दूरी बनाना सवाल पैदा करता है.
ऐसे में ये कहावत एक बार फिर आकार लेती दिखाई पड़ रही है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी मित्र होता है, न ही स्थायी शुत्र. अब सवाल उठता है कि आखिर बिहार में आरजेडी और कांग्रेस के साथ सत्ता-सुख भोग रही जेडीयू के मुखिया अचानक मोदी के पक्ष में क्यों खड़े हो गए हैं. कहीं जेडीयू और बीजेपी के बीच कोई खिचड़ी तो नहीं पक रही है?
सियासी हलकों में ऐसी चर्चा है कि लालू प्रसाद की पार्टी के साथ मिलकर सरकार चलाने में सीएम नीतीश आए दिन परेशानी महसूस करते हैं. प्रदेश में गठबंधन सरकार के सत्ता में आने के बाद इसे 'जंगलराज रिटर्न्स' तक करार दिया गया, हालांकि इस तरह की बात अब महज 'शिगूफा' बनकर ही रह गई है.
आरजेडी के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन की जमानत रद्द करवाकर नीतीश कुमार ने 'सुशासन बाबू' की छवि बचाने की भरपूर कोशिश की. अगर हाल का उदाहरण लें, तो नीतीश सरकार ने आरजेडी के निलंबित बाहुबली विधायक राजबल्लभ यादव की जमानत सुप्रीम कोर्ट से खारिज करवाई. राजबल्लभ के खिलाफ नाबालिग किशोरी को अगवा कर रेप करने और अन्य कई आरोपों में मामले दर्ज हैं.
नीतीश इस तरह के 'मर्ज' की काट भले ही खोज लेते हों, पर इन बातों से इतना तो साफ है कि आरजेडी से गठबंधन उनके जी का जंजाल बन रहा है.
सीएम नीतीश ब्लैकमनी के खिलाफ अभियान का सहारा लेकर जिस तरह खुलकर मोदी के पक्ष में बैटिंग कर रहे हैं, उससे साफ दिख रहा है कि वे अपने ही महागठबंधन की क्रीज से आगे निकलकर खेलने पर आमादा हैं.
दरअसल, नीतीश को पहले मुस्लिम वोटों को पूरी तरह जेडीयू में समेटने का पूरा भरोसा था, पर कई वजहों से ऐसा हो न सका. अल्पसंख्यक तबका लालू प्रसाद को ही अपना नेता मानता है. चर्चा ऐसी भी है कि जेडीयू के कई मुस्लिम विधायक नीतीश की बजाए लालू के ही ज्यादा करीबी हैं. ऐसे में नीतीश के लिए 'कुछ अलग' करना जरूरी हो चला था.
पीएम मोदी की स्कीम के पक्ष में बोलने के बावजूद यह अटकल लगाना जल्दबाजी होगी कि जेडीयू आने वाले दौर में बीजेपी के साथ दोस्ती गांठने जा रही है.
कहने का मतलब यह है कि नीतीश दोनों ही हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं.
मान लें, अगर नीतीश को अपने इस दांव का निकट भविष्य में कोई बड़ा राजनीतिक फायदा नहीं मिलता है, फिर भी उनकी छवि चमकना तो तय ही है. ब्लैकमनी और कालाबाजारियों के खिलाफ कदम को सराहकर नीतीश खुद को बेदाग दिखना चाहते हैं. वे लोगों को यह भी समझा सकते हैं कि जब बात जनता-जनार्दन के व्यापक और दूरगामी हित की हो, तो वे राजनीतिक नफा-नुकसान की परवाह नहीं करते.
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि नोटबंदी के बाद अपनी-अपनी रणनीति तैयार करने में जुटे सियासी दिग्गजों के बीच सीएम नीतीश ने भी एक तरह से 'तुरुप का इक्का' चल दिया है.
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Published: 28 Nov 2016,03:33 PM IST