advertisement
23 जून को पटना में विपक्ष की बैठक (Patna Opposition Meeting) दो बड़े कारणों से सफल रही. सबसे पहले, इसमें 10 वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों सहित 15 राजनीतिक दलों के 32 नेताओं ने भाग लिया. दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण, पार्टियों ने सीट बंटवारे और एक साझा कार्यक्रम पर बात करने के लिए जुलाई में फिर से मिलने का फैसला किया.
हालांकि 'AAP बनाम कांग्रेस' की जुबानी जंग ने मीडिया में काफी जगह बनाई है और भविष्य में भी ऐसा होने की संभावना है, लेकिन वास्तव में यह विपक्षी दलों के लिए मुख्य चुनौती नहीं है. असल में मुख्य चुनौती उत्तर प्रदेश है.
इस लेख में इसी पर चर्चा होगी.
कांग्रेस और AAP के बीच मुख्य रूप से तीन राज्यों- दिल्ली, पंजाब, गुजरात और एक केंद्र शासित प्रदेश- चंडीगढ़ में एक-दूसरे से मुकाबला है.
AAP का दावा है कि उसकी कुछ मौजूदगी हरियाणा में भी है, लेकिन अभी तक उसकी मौजूदगी निकाय स्तर पर ही है.
पिछले कई लोकसभा चुनावों से दिल्ली में वोटिंग की लहर चली है. दिल्ली ने 2009 में सभी सात सीटें कांग्रेस को और 2014 और 2019 में सभी सात सीटें बीजेपी को दी थी.
यही बात गुजरात की अधिकांश सीटों पर भी लागू होती है. अगर बीजेपी गुजरात में पिछले 10 वर्षों की तरह मजबूत बनी रहती है, तो कांग्रेस-AAP गठबंधन से उसे ज्यादा नुकसान होने की संभावना नहीं है.
अब हम पंजाब पर आते हैं. ग्रामीण सिख मतदाताओं के बीच बीजेपी के कमजोर आधार के कारण, पार्टी राज्य की 13 में से 10 सीटों के लिए मजबूत दावेदारी पेश करती नहीं दिखती है, जब तक कि वह शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन न कर ले.
यहां तक कि बचे हुए तीन सीटों- होशियारपुर, गुरदासपुर और अमृतसर में भी बीजेपी ग्रामीण सिख मतदाताओं के समर्थन के बिना नहीं जीत सकती.
अगर कांग्रेस और AAP चुनाव से पहले गठबंधन नहीं करते हैं, तो राष्ट्रीय स्तर पर इसका असर केवल कुछ सीटों पर ही पड़ेगा.
लोकसभा सीटों के मामले में पांच सबसे बड़े राज्य हैं:
उत्तर प्रदेश: 80 सीटें
महाराष्ट्र: 48 सीटें
पश्चिम बंगाल: 42 सीटें
बिहार: 40 सीटें
तमिलनाडु: 39 सीटें
उत्तर प्रदेश को छोड़कर बाकी राज्यों में विपक्षी दलों की अलग-अलग स्तर पर मजबूत गठबंध की व्यवस्था है.
तमिलनाडु में DMK के नेतृत्व में एक स्थिर गठबंधन की सरकार है. इस गठबंधन ने पिछले लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की और 2021 का विधानसभा चुनाव जीता. इसलिए अगले लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन तय है.
बिहार: चुनाव के बाद JDU, RJD, कांग्रेस, CPI-ML, CPI और CPI-M मिलकर राज्य में गठबंधन की सरकार चला रहे हैं. RJD, JDU और कांग्रेस ने 2015 में सहयोगी के रूप में चुनाव लड़ा था और RJD, कांग्रेस और वाम दलों ने 2020 विधानसभा चुनाव से पहले हाथ मिलाया था. यह देखते हुए कि गठबंधन में सभी दलों को एक-दूसरे की जरूरत है, लोकसभा चुनाव के लिए सीटों का बंटवारा करना मुश्किल नहीं होगा.
महाराष्ट्र: बिहार की तुलना में यहां मामला थोड़ा पेचीदा है. नीतीश कुमार की बदलती निष्ठाओं के बावजूद, गठबंधन सहयोगियों के बीच अभी भी काफी वैचारिक अनुकूलता है.
चूंकि सभी पार्टियां 2024 के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों को प्राथमिकता दे रही हैं, इसलिए वो लोकसभा चुनावों के लिए आम सहमति बनाने में कामयाब हो सकते हैं.
पश्चिम बंगाल: यहां चुनाव से पहले गठबंधन की कमी वास्तव में विपक्ष के लिए फायदेमंद हो सकती है. 2019 के लोकसभा चुनावों और 2021 के विधानसभा चुनावों में साफ हो गया था कि TMC को हराने के लिए वाम मोर्चे के मतदाता रणनीतिक रूप से बीजेपी की ओर चले गए थे.
अगर लेफ्ट खुद को पुनर्जीवित कर अकेले चुनाव लड़ता है, तो इससे बीजेपी को नुकसान और टीएमसी को फायदा होने की संभावना है.
उत्तर प्रदेश उन राज्यों में से एक है जहां बीजेपी 2019 की तुलना में कुछ सीटें जीतने की उम्मीद कर रही है. उसने अपने सहयोगी अपना दल के साथ 80 में से 64 सीटें जीती थीं. बीएसपी-एसपी-आरएलडी गठबंधन ने 15 सीटें जीतीं और सोनिया गांधी ने कांग्रेस के लिए रायबरेली सीट जीती.
अगर बीएसपी साथ आने से इनकार करती है, तो विपक्ष के लिए एकमात्र विकल्प समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल के बीच गठबंधन का बनता है.
इस तरह के गठबंधन में स्पष्ट रूप से एसपी-बीएसपी गठबंधन के समान अंकगणितीय शक्ति नहीं होगी, जिससे मुस्लिम मतदाताओं का 80 प्रतिशत और जाटव और यादव वोटों का लगभग 70 प्रतिशत एकीकरण हुआ.
एसपी और बीएसपी की तरह कांग्रेस के पास जातीय आधार नहीं है.
लेकिन यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में एसपी मुख्य विपक्षी दल है और कांग्रेस विधानसभा स्तर की तुलना में लोकसभा स्तर पर राज्य में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करती है. पिछला लोकसभा चुनाव एक अपवाद था क्योंकि एसपी-बीसपी-आरएलडी गठबंधन के कारण कांग्रेस की हार हुई थी.
एसपी-कांग्रेस-आरएलडी गठबंधन से दो चीजें हासिल करने में मदद मिलेगी:
पहला, इससे यह धारणा बनाने में मदद मिलेगी कि यह एक राष्ट्रीय विकल्प हो सकता है. अपने आप में, एसपी एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में विश्वास पैदा नहीं कर पाएगी. कांग्रेस को राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखा जाता है लेकिन यूपी में उसकी जमीनी ताकत नहीं है.
दूसरा, इससे बीजेपी विरोधी मतदाताओं को एकजुट करने में मदद मिल सकती है. यहां तक कि एसपी के नेतृत्व वाले बहुत छोटे से गठबंधन ने भी विधानसभा चुनाव में लगभग 35 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था.
मुख्य चुनौती सीटों का बंटवारा होगा. ऐसे गठबंधन को सफल बनाने के लिए एसपी को कांग्रेस को सम्मानजनक संख्या में सीटें देनी होंगी. 2017 के विधानसभा चुनावों में, जब दोनों दल गठबंधन में थे, तब कांग्रेस ने लगभग एक-चौथाई सीटों पर चुनाव लड़ा था.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined