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वाशिंगटन डीसी और पटना के बीच की दूरी कितनी है? नहीं, आप भौगोलिक दूरी पर मत जाइए, मेरा मतलब दो शहरों के बीच की उड़ान वाली दूरी से नहीं है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक दूरी से है, जो 2024 में भारत के आम चुनावों के परिणाम तय कर सकती है.
आर्थिक और तकनीकी शक्ति के साथ भारत की एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में उभरने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पना एक मजबूत और समृद्ध देश के प्रेमियों को भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के तहत निर्णायक नेतृत्व के साथ एक स्थिर सरकार की संभावनाओं का संकेत देती है.
वहीं, दूसरी ओर भारत के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक की राजधानी में 15 विपक्षी राजनीतिक दलों के नेताओं की बैठक उन लाखों मूक और बिना चेहरा वाले लोगों की आवाज और चेहरों का प्रतिनिधित्व कर सकती है जो एक सीधा और सरल सवाल पूछ रहे हैं : इसमें मेरे लिए क्या है?
क्या विपक्षी एकता एक महत्वपूर्ण चुनावी जीत के रूप में परिवर्तित होगी या क्या अमेरिका की एक सफल यात्रा के बाद मोदी का उत्साह उन्हें तीसरी बार सत्ता में लाने का आश्वासन देगा? इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है.
आइए, पटना और वाशिंगटन में जाहिर प्रदर्शनों से परे जाकर देखते हैं और उम्मीद करते हैं कि एक सही तस्वीर दिखाई दे. भाषा, धर्म, आर्थिक स्थिति, पारिस्थितिकी, संस्कृति और विचारधारा के आधार पर बंटे हुए 1.5 अरब लोगों के देश में राजनीति आसान नहीं है. इसके साथ ही उभरती घटनाएं भी हैं, जो मूड बदल देती हैं. जिनसे यह सब और अधिक जटिल हो जाता है.
बड़ी चुनौती संभावित "मोदी फटीग" से बचना या उसे रोकना है, जिसे एक ऐसे नेता के लिए खारिज नहीं किया जा सकता है जिसने सत्ता में एक दशक तक उतार-चढ़ाव के साथ बिताया है, जिसमें कोविड (COVID) महामारी, उच्च मूल्य वाले नोटों को विमुद्रीकरण करने का असफल प्रयास और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था शामिल है.
इन सबके बाद भी, पटना बैठक के नतीजे जमीनी स्तर की चुनौतियों से भरे हुए हैं जिन्हें नकारा नहीं जा सकता.
जब पटना में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान विभिन्न क्षेत्रों और विचारधाराओं के राजनेताओं ने मंच संभाला, तब उनका सौहार्द्र और एक-दूसरे के प्रति शिष्टाचार स्पष्ट था. उनके बीच मजबूत पॉजिटिव केमेस्ट्री थी, जोकि उनके बीच साझा मोदी विरोधी भावना के परिणामस्वरुप है. क्योंकि इनका विरोधी दलों का मानना है कि मोदी की जो शैली है वह लोकतंत्र, संविधान और इसके अंतर्निहित सिद्धांतों को कमजोर करती है. जैसा कि पुरानी कहावत है, प्रतिकूल परिस्थितियाँ वास्तव में अजीब साथी बनाती हैं.
इस केमेस्ट्री को चुनावी फिजिक्स और जीत के अंकगणित में परिवर्तित करना एक कठिन काम है.
चूंकि कांग्रेस दिल्ली सरकार के अधिकार को सीमित करने वाले अध्यादेश को पलटने के उसके प्रयासों में सहयोग नहीं कर रही है, इसलिए हम आम आदमी पार्टी के विपक्षी बैठक के वास्तविक बहिष्कार को नजरअंदाज कर सकते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि भले ही पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी का प्रभाव है लेकिन AAP वास्तव में 545 लोकसभा सीटों में से अधिकतम 12 सीटों पर ही नतीजों को प्रभावित कर सकती है.
केरल में कम्युनिस्ट पार्टियां स्थानीय स्तर पर कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी हैं, वहीं बंगाल में कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस से मुकाबला करना होगा. हालांकि इन सभी ने पटना में मंच साझा किया था.
यूपी में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के पास व्यावहारिक रूप से राज्य के बड़े हिस्से में कोई सहयोगी नहीं बचा है और उसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ताकत के खिलाफ शून्य से शुरुआत करनी होगी. और इसी तरह... हर राज्य की अपनी एक अलग कहानी है.
इस सफर का सबसे कठिन हिस्सा एक नेता या कम से कम एकजुट नेतृत्व के विचार को पेश करना होगा, हालांकि अतीत में विपक्षी दलों ने 1989 और 1996 में इसके बिना भी सत्ता हासिल की है. उसमें से भी शायद सबसे कठिन काम स्थानीय लाभ चाहने वाले जमीनी स्तर के पार्टी कार्यकर्ताओं को राष्ट्रीय मुद्दे को कायम रखने के लिए अब तक प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले लोगों को एक साथ लाना है. उच्च सिद्धांतों और निचले स्तर पर बंटे हुए कार्यकर्ताओं को जोड़ पाना आसान नहीं है. लेकिन यही राजनीति है.
पटना में उद्धव ठाकरे उस समय कुछ असहज दिखे जब वह उन नेताओं के बगल में बैठे जिनकी पार्टियां दशकों से उनकी शिव सेना की हिंदुत्व समर्थक विचारधारा (जो सत्ता-बंटवारे में खींचतान के कारण हिल गई थी) के साथ एक-दूसरे से सहमत नहीं थीं.
पटना में बहुजन समाज पार्टी, भारत राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) नेताओं की स्पष्ट रूप से अनुपस्थिति चिंता की बात है. क्षेत्र के आधार पर इंडियन नेशनल कांग्रेस विपक्षी दलों के लिए एक चुंबक (आकर्षित करने वाली) और प्रतिकारक (पीछे धकेलने वाली) दोनों है.
हो सकता है कि विपक्षी दल अच्छी तरह से बुने हुए चुनावी ताने-बाने को दिखाने की जल्दबाजी में न हो, क्योंकि यह सच है कि मोदी की बीजेपी से उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने राज्यों और पार्टी मशीनरी की ताकत के जरिए विपक्षी एकता के कार्यों में बाधा पैदा करेगी.
विपक्ष और बीजेपी दोनों यही उम्मीद कर रहे होंगे कि उनके प्रतिद्वंद्वी कोई बड़ी गलती करें. पटना कॉन्क्लेव को एक रणनीति योजना तैयार करने वाली सभा के बजाय एक मिशन वक्तव्य की घोषणा करने वाली सभा के रूप में देखना ज्यादा उचित होगा. आने वाले दिनों में पर्दे के पीछे की हलचलें देखने लायक होंगी.
(लेखक एक सीनियर पत्रकार और कमेंटेटर हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनका ट्विटर हैंडल @madversity है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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