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प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ने अपनी नई पार्टी बनाने की जिन अटकलों को 2 मई के एक ट्वीट से शुरू किया था, अब 5 मई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन अटकलों पर विराम लगा दिया है, या कहें कि अपनी पार्टी की घोषणा को आगे के लिए टाल दिया है. बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस से लेकर टीएमसी तक के लिए जीत का फॉर्मूला तैयार कर चुके इस कुशल चुनावी रणनीतिकार को शायद यह अंदाजा हो गया कि अभी समय इस कठिन परीक्षा में उतरने के लिए अनुकूल नहीं हैं.
आखिर वे क्या कारण रहे कि तीन दिन पहले तक उनकी राजनीतिक पार्टी बनाने की तय नजर आ रही मंशा एक दम से एक साल तक आगे बढ़ गई है. इस सवाल का जवाब हमें वर्तमान की उन चुनौतियों में मिलेगा, जो बिहार की राजनीति में प्रशांत किशोर के आगे मुंह बाए खड़ी हैं. आइए नजर डालते हैं ऐसी ही दस चुनौतियों पर जिन्होनें पीके को अपने प्लान को आगे खिसकाने पर मजबूर कर दिया है.
बिहार में बीजेपी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड), लोक जनशक्ति पार्टी, हिंदुस्तान अवाम मोर्चा जैसी पार्टियां पहले से ही मजबूत पकड़ रखती हैं. ऐसे में प्रशांत किशोर इन दिग्गजों से अभी कैसे लड़ते. उनके पास संगठन और मजबूत काडर की भी कमी है. इस कमी को पूरा करने के लिए ही उन्होंने इंटरव्यू और टेस्ट से युवाओं को अपने साथ जोड़ने के कैंपेन को पहले अंजाम देना उचित समझा. बिहार में इस समय कांग्रेस को छोड़ दें तो बीजेपी, आरजेडी, जेडीयू तीनों का संगठन बेहद मजबूत है. ऐसे में पीके को अपना काडर तैयार करने के बाद ही पार्टी की घोषणा का ऑप्शन सही लगा होगा.
बिहार जाति की राजनीति पर चलता है. लालू को यादव और मुस्लिमों का फुल सपोर्ट है. नीतीश कुमार और बीजेपी ने उच्च जातियों में राजपूत, ब्राह्मण, लाला और बाकी जातियों में भूमिहार, बनिया, कुर्मी, कोइरी, धानुक समेत कई जाति को साध लिया है. मुकेश सहनी को भी बिहार में जो कुछ सफलता मिली तो इसका कारण उनकी मल्लाह जाति पर पकड़ थी. प्रशांत किशोर के पास आज की तारीख में किसी जमात का समर्थन हासिल नहीं है. वह ब्राह्मण समाज से आते हैं, जिसकी आबादी बिहार में केवल 5 फीसदी है, यदि इन मतदाताओं के बीच वे कोई बड़ी उम्मीद पैदा करने में सफल रहते हैं तो यह वर्ग उनके साथ जा सकता है. पर वह कैसे बाकी जातियों का गणित साध पाएंगे. लिहाजा उनके लिए अभी बिहार की राजनीति करना आसान नहीं था.
आम आदमी पार्टी का गठन जन लोकपाल के जिस मॉडल पर हुआ, पीके भी उसी तरह का कोई विचार सोच रहे हैं, पर इस विचार को धरातल पर लाने के लिए उन्हें पर्याप्त तैयारी और वक्त की जरूरत है. वह आम लोगों के साथ सिविल सोसायटी को जोड़ने का विजन रखते हैं तो उनकी टीम को इस थीम पर काम करने के लिए टाइम चाहिए ही होगा.
पीके ने बिहार के कई महत्वपूर्ण और अलग-अलग क्षेत्र के सक्रिय लोगों से संपर्क करना शुरू किया है. वह इंडिया अगेंस्ट करप्शन यानी आईएसी और आम आदमी पार्टी वाले मॉडल पर चलने की तैयारी में लग रहे हैं. इसके जरिए वह पिछले तीन दशक से लालू और नीतीश के मॉडल से उकताए बिहारवासियों को बिहार का गौरव वापस पाने का नया सपना तो दिखाएंगे, पर इस पूरी प्रक्रिया के सही से न होने पर उसके फेल होने का खतरा भी है.
बिहार की राजनीतिक जमीन पर नए पौधे इतनी जल्दी पनप नहीं पाते. जिसने भी यहां धमाकेदार एंट्री की कोशिश की उन्हें असफल होने में देर नहीं लगी. 2020 के चुनाव में प्लूरल्स पार्टी को लेकर काफी होहल्ला था, लेकिन एक भी कैंडिडेट नहीं जीता. पुष्पम प्रिया चौधरी ने बड़ी कॉर्पोरेट कंपनी की नौकरी छोड़कर धमाकेदार अंदाज में विधानसभा चुनाव में एंट्री मारी थी. उनके पास पिता की राजनीतिक विरासत भी थी, लेकिन इसके बाद भी वे राजनीतिक तौर पर सफल नहीं हो पाईं. जीतनराम मांझी की 'हम' पार्टी भी फेल रही. दलितों की राजनीति करने वाली पुरानी पार्टी लोजपा भी असफल है. वीआईपी का भी बुरा हाल हुआ. ऐसे में पीके को शक था कि उनकी पार्टी कितना सफल होगी.
प्रशांत किशोर जानते हैं कि वे भले ही अभी चर्चाओं में जरूर हों, पर कोई पॉलिटिकल फेस अभी नहींं हैं. देश के मतदाता के आगे खुद को राजनेता के रूप में दिखाने से पहले पॉलिटिकल फेस भी पाना होता है. अन्ना आंदोलन की वजह से अरविंद केजरीवाल पॉलिटिकल फेस बनकर ही सामने आए. लंबे समय से बिहार की पॉलिटिक्स में सक्रिय रहे लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी, रामविलास पासवान जैसे नेता राजनीति में आने से पहले स्डूडेंट पॉलिटिक्स के कारण लीडर की पहचान पा चुके थे.
स्थिति यह है कि बीजेपी भले ही बिहार में सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन आज भी उसके पास कोई बड़ा पाॅलिटिकल फेस अब तक नहीं है. ऐसे में प्रशांत किशोर जनता के बीच क्या फेस लेकर जाते कि मैं पैसे लेकर पार्टियों के लिए चुनाव मैनजमेंट का काम करता हूं. वह जानते थे अभी के समय में जनता के साथ जमीनी जुड़ाव के लिए उनके पास जरूरी पॉलिटिकल फेस नहीं है, जिसे पाना ही होगा.
भारत की राजनीति में स्ट्रगल की कहानी बड़ी अपीलिंग होती हैं. हर बड़े नेता के पास अपने संघर्ष के बारे में कहने को कुछ न कुछ है पर प्रशांत किशोर के पास ऐसी कोई कहानी अभी नहीं है. पीएम मोदी पूरी दुनिया में बताते हैं कि वह चाय बेचने वाले हैं. लालू ने भैंस चराने की बात खूब भुनाई. नीतीश ने भी बिहार के हर घर में बिजली नहीं आने तक अपने पैतृक आवास में बिजली कनेक्शन नहीं जुड़वाया था. मुलायम सिंह यादव ने साइकिल से घूम घूम कर संघर्ष किया तो साइकिल के प्रचार चिन्ह से सत्ता पाई. प्रशांत किशोर अब अपनी पैदल यात्रा से अपने लिए संघर्ष की जिंदगी जीने वाले शख्स की छवि क्रिएट करने निकल पड़ेंगे, जिससे जनता आसानी से उन्हें नेता स्वीकारे.
अभी पीके यदि जन सुराज नाम की पार्टी बनाकर सीधे लोगों के बीच पहुंचते तो उन्हें यह भरोसा कैसे देते कि वो देश में प्रचलित परंपरागत राजनीति से इतर कुछ खास प्रयोग करने जा रहे हैं. उस सूरत में वे बाकी पार्टी की तरह ही होकर रह जाते, पर राजनीति को जानने में चतुर हो चुके पीके कोई बड़ा प्रभाव छोड़ने की इच्छा रखते हैं, इसलिए वह इस समर में ज्यादा से ज्यादा लोगों का साथ पाने यात्रा पर निकल रहे हैं और बिहार को अपने राजनीतिक प्रयोग की प्रयोगशाला बनाने जा रहे हैं. वो अपनी यात्रा की शुरुआत चंपारण से कर रहे हैं जो बिहार में महात्मा गांधी के आंदोलन का काशी है. यह उनका सोचा समझा मूव है, यदि तुरत फुरत पार्टी बनाते तो शायद वह उतना प्रभाव पैदा नहीं कर पाते.
प्रशांत के पास राजनीति में सफल होने के लिए एक बड़ी चीज की कमी है, वह है एक राजनेता जैसी छवि. प्रशांत किशोर की चुनाव प्रबंधक की पृष्ठभूमि के कारण लोग उन्हें नेताओं व पार्टियों के इशारे पर काम करने वाला मैनेजर मानते हैं. इससे आगे बढ़कर प्रशांत को लीडर वाली छवि बनानी होगी. जबसे 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए उन्होंने काम किया है, तबसे उन पर मोदी का आदमी होने का तमगा लगा रहा है. वे मोदी की स्पीच के लिए इनपुट भी प्रदान करते रहे हैं. अब उन्हें अपनी नई छवि गढ़ने के लिए मोदी के साथी वाली पुरानी छवि से पूरी तरह से छुटकारा पाना होगा. राजनीति में आगे बढ़ने के लिए नेता लगना भी जरूरी है.
प्रशांत किशोर ने अपनी राजनीतिक पार्टी की सोच तो तैयार कर ली है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन पॉलिटिकल विश्लेषण के अपने लंबे अनुभव के बावजूद वह इसके आधार को लेकर दृढ़ नहीं कहे जा सकते हैं. देश और बिहार के राजनीतिक दलों के आधार अलग अलग रहे हैं. कुछ का गठन वैचारिक आधार पर, कुछ का जन्म सामाजिक राजनीतिक मूवमेंट्स से और कुछ का जन्म जाति, वर्ग और क्षेत्रीय अस्मिता को आधार बनाकर हुआ. प्रशांत किशोर की पार्टी का आधार इन में किसी श्रेणी में नहीं आता. पीके को अपना वैचारिक आधार तैयार करने के लिए वक्त की दरकार है और उनकी राजनीति की समझ ने उन्हें इस कारण से इस पार्टी के गठन के लिए अभी खुद को वक्त देने को कहा होगा.
प्रशांत एक तरफ कांग्रेस को सुधार का फॉर्मूला देकर वहां अपनी जगह तलाश रहे थे, दूसरी ओर केसीआर की नैया भी पार लगाने को तैयार थे और तीसरी ओर वो अपनी राजनीति खुद करने की तैयारी भी कर रहे होते हैं. इसका मतलब तय है कि वह इन व्यस्तताओं के बीच अपनी पार्टी बनाने की पूरी तैयारी अंजाम नहीं दे पाए होंगे. यह तो आनन फानन में उनके ट्वीट से बात बाहर आ गई. अब उन्हें बिहार में घूम-फिरकर मुद्दों, लोगों की भावनाओं, अपनी सफलता की संभावनाओं, जमीनी हकीकत को देखना ही होगा. इसके बाद ही वह कोई कदम उठाने की स्थिति में होंगे.
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Published: 06 May 2022,09:01 AM IST