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प्रियंका गांधी की एक्टिव पॉलिटिक्स में एंट्री से सियासी बाजार में सेंसेक्स जैसे उछाल दिखने लगे हैं. कल तक बीजेपी छोड़िए विपक्षी पार्टियों ने भी जिस कांग्रेस को यूपी में सबसे मामूली समझ लिया था, उसके सिर्फ एक कदम ने राजनीतिक समीकरण ही बदल दिए.
राहुल गांधी के इस मास्टर स्ट्रोक से खासतौर पर पीएम मोदी और बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह की मुश्किलें बढ़ गई हैं, जो अब तक ये दावा ठोक रहे थे कि इस बार यूपी में... 73 नहीं 75.
पिछले पांच साल से उत्तर प्रदेश की राजनीति में नरेंद्र मोदी चमकते हुए धूमकेतु की तरह थे. मोदी के आसपास यूपी की सियासत सिमट गई थी. चाहे लोकसभा चुनाव हो या फिर विधानसभा. मोदी मैजिक के आगे राजनैतिक धुरंधर ध्वस्त होते चले गए. मायावती का सूपड़ा साफ हो गया तो समाजवादी पार्टी, यादव परिवार तक सीमित हो गई. कांग्रेस भी जैसे-तैसे रायबरेली और अमेठी में नाक बचाने में कामयाब रही.
ऐसे में लोकसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी ने तुरुप का इक्का चलते हुए अपनी बहन प्रियंका गांधी को मैदान में उतार दिया. जिसे मोदी के लिए सीधा चैलेंज माना जा रहा है. वैसे भी इससे पहले प्रियंका अपनी मां और भाई के चुनाव की बागडोर संभालती रही है. लेकिन अब पहली बार होगा जब वो नरेंद्र मोदी को हारने के लिए नजर आएंगी.
राहुल गांधी ने प्रियंका को ईस्टर्न यूपी की कमान यूं ही नहीं सौंपी है. राहुल के इस कदम के कई मायने हैं. माना जा रहा है कि राहुल गांधी ने एक तीर से दो निशाना साधा है. इसे सझने के लिए आपको पांच साल पहले जाना होगा. पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे अहम जिले वाराणसी को केंद्र बनाया. मोदी ने यहीं से चुनाव आगाज किया और कामयाबी की नई इबारत लिखी.
राहुल जानते है कि अगर यूपी में बीजेपी के रथ को रोकना है तो मोदी को उनके गढ़ में घेरना बेहद जरुरी है. इसके साथ ही पूर्वांचल की राजनीति में हाशिए पर जा चुकी पार्टी को फिर से खड़ा करना भी एक बड़ी चुनौती है. राहुल की नजरों में इन दोनों चुनौतियों से निबटने के लिए प्रियंका गांधी शायद सबसे फिट हैं.
ईस्टर्न यूपी का किला फतह कर पाना प्रियंका गांधी के लिए आसान नहीं है. मौजूदा सियासी दौर में कांग्रेस क्राइसेस के दौर से गुजर रही है. उसके सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं, मसलन.
तमाम सर्वे और उपचुनाव के नतीजों से साफ है कि यूपी में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता धीरे-धीरे घट रही है. बेरोजगारी के मुद्दे पर युवाओं के बीच मोदी का क्रेज कम होता जा रहा है तो एससी-एसटी एक्ट को लेकर सवर्ण नाराज हैं.
इसके पीछे वाजिब वजहें भी है. प्रियंका भले ही अब तक अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार करती रहीं हैं लेकिन उनकी लोकप्रियता का ग्राफ यूपी में अभी कम नहीं. प्रियंका के पास राजनैतिक हुनर है तो ग्लैमरस चेहरा भी. खासतौर से यूथ और महिलाओं के बीच प्रियंका का क्रेज खूब है. यूथ को जहां प्रियंका की स्टाइल पसंद है तो बुजुर्ग और महिलों में इंदिरा गांधी का अक्स दिखता है. दूसरा ये कि प्रियंका के फैसलों पर कोई नेता ऊंगली नहीं उठा सकता, लिहाजा प्रियंका खुलकर निर्णय लेंगी.
पार्टी को उम्मीद है कि प्रियंका के आने से बीजेपी से नाराज चल रहे अपर क्लास और खासकर ब्राह्मण वोटर फिर से जुड़ सकते हैं. जो कांग्रेस के लिए दूसरी जातियों को जोड़ने के लिए फेविकोल का काम कर सकता है. हाल के चुनावों की बात की जाए तो 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जोरदार प्रदर्शन करते हुए अकेले दम पर 21 सीटें हासिल की थी. उस दौरान पूर्वी यूपी में कांग्रेस पार्टी ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया था.
महाराजगंज के अलावा बहराइच, श्रावस्ती, गोंडा, बाराबंकी, सुलतानपुर, रायबरेली,अमेठी, फैजाबाद, पड़रौना समेत कई सीटें कांग्रेस जीती थी. लेकिन 2014 में देश की सबसे पुरानी पार्टी यूपी में दो सीटों पर सिमट गई. विधानसभा चुनाव में उसकी हालत अपना दल सरीखे नई पार्टियों से भी खराब हो गई.
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