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भारतीय जनता पार्टी ने लम्बे समय से इंतजार कर रही दिल्ली और बिहार इकाई को उनका नया अध्यक्ष दे दिया है. मनोज तिवारी को दिल्ली का अध्यक्ष बना दिया गया है. साथ ही बिहार इकाई का अध्यक्ष नित्यानंद राय को बना दिया गया है.
उत्तर-पूर्वी दिल्ली से बीजेपी सांसद मनोज तिवारी गायक हैं, भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता हैं. संगठन में कोई खास काम नहीं किया है. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले ही बीजेपी में आए हैं.
नित्यानंद राय 4 बार विधायक रहे हैं और इस समय उजियारपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं. पहली नजर में तिवारी और राय के बीच कोई समानता नहीं नजर आती. लेकिन इन दोनों के बीच एक ऐसी समानता है, जिसने चुनाव वाले राज्य उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है. दरअसल दोनों ही लोकसभा सांसद हैं. जनप्रतिनिधि हैं यानी चुनाव में इनको पहले टिकट मिला, फिर पदाधिकारी भी बना दिए गए. यही वो समानता है, जिसने यूपी बीजेपी के नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है.
उसके पीछे बड़ी सीधी-सी वजह ये कि पार्टी पदाधिकारी चुनाव लड़ाने का काम करेंगे और ज्यादा से ज्यादा सीटों पर पार्टी प्रत्याशी को जिताने में जुटेंगे, जबकि खुद चुनाव लड़ने पर प्रत्याशी सिर्फ अपनी सीट के बारे में ही सोच सकेगा. इसी फॉर्मूले के तहत बहुत से लोगों को बीजेपी में पदाधिकारी नहीं बनाया गया.
चुनावी रणनीति के लिहाज से ये काफी हद तक सही भी माना जा सकता है. लेकिन उत्तर प्रदेश में हालिया पदाधिकारियों की नियुक्ति ने बीजेपी नेताओं को एक नई पहेली सुलझाने के लिए दे दी है. वो पहेली ये कि क्या अब बीजेपी में ज्यादातर पदाधिकारी सिर्फ जनप्रतिनिधि ही होंगे. कम से कम हाल में नियुक्त पदाधिकारियों के चयन से तो यही संदेश जाता दिखता है. उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य बनाए गए. केशव इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से चुनकर आए हैं.
केशव के अलावा शिवप्रताप शुक्ला उत्तर प्रदेश बीजेपी के उपाध्यक्ष हैं, साथ ही उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भी भेज दिया है. दूसरे उपाध्यक्षों में धर्मपाल सिंह विधायक हैं, आशुतोष टंडन (गोपाल) विधायक हैं. गोपाल टंडन लालजी टंडन के बेटे हैं. कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह भी सांसद हैं और प्रदेश उपाध्यक्ष हैं.
सांसद सतपाल सिंह को भी प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया है. सुरेश राणा भी विधायक हैं, साथ ही प्रदेश उपाध्यक्ष भी. कानपुर से विधायक सलिल विश्नोई को भी पार्टी का महामंत्री बनाया गया है. जनप्रतिनिधियों का कब्जा सिर्फ अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री की कुर्सी तक ही नहीं है. एक महिला मोर्चा को छोड़कर यूपी में बीजेपी के सभी मोर्चे के अध्यक्ष जनप्रतिनिधि ही हैं. पिछड़ा मोर्चा का अध्यक्ष राजेश वर्मा को बनाया गया है. राजेश वर्मा सीतापुर से सांसद हैं. युवा इकाई का अध्यक्ष सुब्रत पाठक को बनाया गया है.
सुब्रत पाठक कन्नौज से डिम्पल यादव के खिलाफ चुनाव लड़े थे और करीब 15 हजार मतों से हार गए थे. यानी पार्टी ने पहले सुब्रत को टिकट दिया और अब उन्हें पदाधिकारी भी बना दिया. सुब्रत पाठक कन्नौज के मजबूत नेताओं में हैं. लेकिन सवाल वही है कि क्या बीजेपी में राजनीति करने वाले सिर्फ वही नेता महत्व पाएंगे, जो टिकट पाकर चुनाव जीत सकेंगे या चुनाव जीतने की हैसियत रखते हैं. यहां तक कि यूपी में अनुसूचित मोर्चा के अध्यक्ष कौशल किशोर भी सांसद हैं और अनुसूचित जनजाति मोर्चा अध्यक्ष छोटेलाल खरवार सोनभद्र से सांसद हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाले काशी क्षेत्र के अध्यक्ष लक्ष्मण आचार्य हैं और उन्हीं को पार्टी ने विधान परिषद सदस्य भी बनाया. पश्चिम क्षेत्र के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह विधान परिषद के सदस्य हैं. अवध क्षेत्र के अध्यक्ष मुकुट बिहारी वर्मा भी विधायक हैं.
सामान्य तौर पर देखने पर इसमें कोई भी गड़बड़ी नजर नहीं आती. लेकिन ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों का आधार मजबूत करने में बड़े आधार वाले नेताओं के साथ शानदार संगठन करने वाले नेताओं की भी बड़ी भूमिका रही है. भारतीय जनता पार्टी तो मूलत: संघ के पूर्णकालिक संगठन मंत्रियों के आधार पर संगठन तैयार करने वाली पार्टी रही है. जहां संगठन में अच्छा काम करने वालों को ही पदाधिकारी बनाए जाने की परम्परा रही है.
अब सवाल यह है कि अगर जनप्रतिनिधियों को ही पदाधिकारी और पदाधिकारी को ही मनोनीत जनप्रतिनिधि बनाने की ये परम्परा मजबूत हो रही है, तो संगठन का काम कौन करेगा? भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, लगातार चुनाव जीत रही है. अभी हो सकता है कि इस गलत परम्परा के खतरे न दिख रहे हों. लेकिन, जब पार्टी का चुनावी आधार हल्का पड़ेगा, तो संगठन में काम करने वाले भी शायद ही मिलेंगे. संगठन हो या सरकार बीजेपी कुछ ही लोगों के हाथ में हर तरह की सत्ता जाने के बड़े खतरे की ओर बढ़ रही है.
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(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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