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राहुल गांधी 'पप्पू' और 'रावण' एक साथ नहीं हो सकते: BJP ने क्यों बदली अपनी रणनीति?

BJP ने 5 अक्टूबर को एक्स पर एक पोस्ट डालकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी को 'नए जमाने का रावण' बताया.

आदित्य मेनन
पॉलिटिक्स
Published:
<div class="paragraphs"><p>राहुल गांधी 'पप्पू' और 'रावण' एक साथ नहीं हो सकते: BJP ने क्यों बदली अपनी रणनीति?</p></div>
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राहुल गांधी 'पप्पू' और 'रावण' एक साथ नहीं हो सकते: BJP ने क्यों बदली अपनी रणनीति?

(फोटो- क्विंट हिंदी)

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BJP ने 5 अक्टूबर को एक्स (ट्विटर) पर एक पोस्ट डालकर कांग्रेस (Congress) नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को 'नए जमाने का रावण' बताया था.

हालांकि राहुल गांधी बीजेपी के हमेशा से पसंदीदा टारगेट रहे हैं लेकिन यह पोस्ट महत्वपूर्ण है क्योंकि ये बीजेपी के हमलों के बारे में कई बातें बताता है.

ये हमला अलग क्यों हैं?

अब तक, राहुल गांधी के खिलाफ बीजेपी की प्राथमिक रणनीति उपहास ही रही है. इसका उदाहरण 'पप्पू' नाम है इस अपमानजनक लेबल का इस्तेमाल बीजेपी ने किया था.

2013 के आसपास शुरू हुए एक टारगेटेड कैंपेन के जरिए राहुल गांधी को मूर्ख, अस्पष्ट और अयोग्य के रूप में पेश किया गया था. और उनका यह अभियान सफल भी रहा और इसने संभावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में राहुल गांधी की ग्रोथ को गंभीर रूप से बाधित किया.

लेकिन राहुल गांधी को 'रावण' का टैग देना काफी अलग बात है. ये गांधी को ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाता है, जिसका मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए, बल्कि उससे डर लगना चाहिए. जैसा कि बीजेपी की पोस्ट कहती है, 'भारत का दुश्मन', 'धर्म का दुश्मन' और 'राम का दुश्मन' है.

संक्षेप में कहें तो उन्हें हिंदुओं के दुश्मन के तौर पर पेश किया जा रहा है.

लेकिन राहुल गांधी के नजरिए से यह एक सकारात्मक घटनाक्रम है. अगर एक राजनेता के प्रति नफरत है या डर हो की बात की जा रही है तो भी उसे सफल माना जा सकता है, क्योंकि दोनों ही नकारात्मक तरीके से भी शक्ति का संकेत देते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दोनों के मामले में भी ऐसा ही है.

हालांकि, एक नेता के लिए किसी उपहास से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है.

अब राहुल गांधी या तो रावण हो सकते हैं, या फिर पप्पू हो सकते हैं. वह दोनों नहीं हो सकते.

रावण का कार्टून 'पप्पू' टैग के अंत का प्रतीक है, जो भारत जोड़ो यात्रा के बाद किसी भी तरह से कम हो गया था.

'पप्पू' से अब रावण क्यों?

इसका संबंध बीजेपी और राहुल गांधी के बीच राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की प्रकृति से है. इससे समझ आता है कि बीजेपी राहुल गांधी को अपना एक 'खास' प्रतिस्पर्धी मानती हैं.

अब अगर आप बीजेपी के अन्य प्रतिस्पर्धी को देखें- जैसे अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार या फिर भूपेश बघेल और अशोक गहलोत, ये भी बीजेपी के प्रतिस्पर्धी हैं. राज्यों में ये बीजेपी प्रतिस्पर्धी हैं. जबकि इन दोनों का वोटर बेस भी एक जैसा है लेकिन फिर भी बीजेपी जिस तरह से इन्हें टारगेट करती है और राहुल गांधी को टारगेट करती है इसमें फर्क हैं.

आम तौर पर ऐसे मतदाता नहीं मिलते जो राज्य स्तर पर बीजेपी को चुनते हों लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी का समर्थन करते हों. अक्सर उलटा सच होता है - मतदाता राज्य स्तर पर कांग्रेस का समर्थन करते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का समर्थन करते हैं.

विशेष रूप से भारत जोड़ो यात्रा के बाद, राहुल गांधी और कांग्रेस उन मतदाताओं को एकजुट करने में कुछ हद तक सफल हो गए हैं जो वैचारिक रूप से बीजेपी के विरोधी हैं - इसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा और कई मतदाता शामिल हैं जो राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दलों का समर्थन करते हैं.

2014 से सत्ता से बाहर रहने के बावजूद कांग्रेस को वैचारिक एकजुटता देने और पार्टी के आधार को पूरी तरह से गिरने से रोकने में राहुल गांधी का राजनीतिक दृष्टिकोण महत्वपूर्ण रहा है. हालांकि, यह दृष्टिकोण वैचारिक ध्रुवीकरण के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के लिए बहुत गंभीर खतरा नहीं रहा है. दोनों पक्षों के बीच के टकराव ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी वोटर्स पर जीत हासिल करने में बाधा उत्पन्न की है.

यह कर्नाटक के उन क्षेत्रों के चुनाव परिणामों से स्पष्ट हुआ जो भारत जोड़ो यात्रा मार्ग पर आए थे. इस यात्रा से भले ही कांग्रेस को बड़ा फायदा हुआ हो, लेकिन इससे बीजेपी को कोई नुकसान नहीं हुआ. इसका खामियाजा जेडी-एस को भुगतना पड़ा है.

लेकिन ये अब बदल सकता है.

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अब कांग्रेस जाति जनगणना के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के जनाधार में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है, जिसकी वकालत राहुल गांधी आक्रामक तरीके से कर रहे हैं.

उदाहरण के लिए, हाल की प्रेस कॉन्फ्रेंस में, राहुल गांधी ने पत्रकारों को यह पूछकर आश्चर्यचकित कर दिया कि उनमें से कितने दलित, आदिवासी या ओबीसी हैं.

यह एक तीखा हमला था और इससे ये पता चला कि मीडिया पर सवर्ण का नियंत्रण हो गया. इसके जरिए कांग्रेस का मकसद ओबीसी और कुछ हद तक दलितों और आदिवासियों के बीच भी अपना आधार बढ़ाना है.

सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में, यूपी और बिहार के यादव जैसे समुदायों को छोड़कर, ओबीसी के बीच बीजेपी का प्रभुत्व उच्च जाति के वोटों पर उसके नियंत्रण के बराबर है.

यदि विपक्ष अपनी जाति जनगणना पिच के माध्यम से इस वर्ग के बीच लाभ प्राप्त करता है, तो यह काफी हद तक एनडीए की कीमत पर होगा.

लेकिन यह सिर्फ चुनाव के बारे में नहीं है. यह एक बड़ी लड़ाई है. आइए आपको फ्लैशबैक में लेकर चलते हैं.

जब तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के अपने फैसले की घोषणा की, तो उन्हें हिंदुत्ववादी तत्वों की नफरत झेलनी पड़ी थी.

दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी और पत्रकार चो रामास्वामी ने वीपी सिंह को "सबसे खतरनाक आदमी" कहा था, जिन्होंने "अपनी कुर्सी के लिए हिंदू समाज को विभाजित किया." सिंह के खिलाफ फिर इसी भाषा का इस्तेमाल किया गया.

यह राहुल गांधी के खिलाफ मुख्य नैरेटिव होने की संभावना है और साथ ही वह जाति जनगणना पर अधिक से अधिक जोर देते हैं.

लेकिन केवल राहुल गांधी को ही क्यों चुना गया, अन्य इंडिया गठबंधन गुट के नेताओं को क्यों नहीं? यह एक महत्वपूर्ण पहलू है.

जाति जनगणना को लेकर नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत या एमके स्टालिन पर हमला करना उल्टा पड़ सकता है क्योंकि इसे ओबीसी या दलित नेताओं पर हमला माना जा सकता है जो आबादी में अपने हिस्से के अनुसार अपना उचित हिस्सा मांग रहे हैं.

बीजेपी और राहुल गांधी के बीच बयानों की एक नई लड़ाई शुरू हो गई है.

बीजेपी द्वारा इस्तेमाल किए गए ग्राफिक की कई लोगों ने काफी पुराने कार्टून से तुलना की है. यह 1945 के एक मराठी प्रकाशन से है, जिसमें कांग्रेस को दस सिर वाले रावण के रूप में दिखाया गया है, जिसमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद, सी राजगोपालचारी और अन्य नेताओं को दस सिर के रूप में दिखाया गया है. दूसरी ओर, हिंदुत्व विचारक वीडी सावरकर और एसपी मुखर्जी को राम और लक्ष्मण की तरह इस 'रावण' से लड़ते हुए दिखाया गया है.

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