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राहुल गांधी ने अमेठी के साथ ही केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ने का एलान क्या किया, लेफ्ट और राइट से हमले शुरू हो गए. CPM के प्रकाश करात बोले,
उधर केरल के CM पी विजयन ने कहा, ''उन्हें ऐसी लोकसभा सीट से लड़ना चाहिए था, जहां बीजेपी लड़ रही हो. यह और कुछ नहीं, लेफ्ट के खिलाफ लड़ाई है.'' CPM महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा - केरल आकर लेफ्ट के खिलाफ लड़ना क्या संदेश देता है, ये कांग्रेस को लोगों बताए.' एक तरफ लेफ्ट नाराज है तो दूसरी तरफ BJP भी हमलावर.
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा - ‘राहुल गांधी को अमेठी में हारने का डर था, इसलिए वो केरल की सीट से भी लड़ रहे हैं. वो वहां ध्रुवीकरण की राजनीति करके जीतना चाहते हैं.’
सियासी बयानबाजियां अपनी जगह हैं लेकिन वाकई अपनी पुश्तैनी सीट अमेठी के साथ ही राहुल गांधी केरल के वायनाड से चुनाव क्यों लड़ रहे हैं?
वायनाड सीट पर कांग्रेस का सौ फीसदी कामयाबी का इतिहास रहा है. ये सीट 2008 के डिलिमिटेशन के बाद बनी. इसे कन्नूर, मलाप्पुरम और वायनाड लोकसभा सीटों को मिलाकर बनाया गया. 2008 के बाद हुए दोनों चुनावों में यहां कांग्रेस जीती.
दोनों ही बार कांग्रेस के एमआई शनवास जीते और दोनों बार CPI हारी. 2018 में शनवास का निधन हो गया और तब से ये सीट खाली है. 2009 के चुनाव में कांग्रेस को यहां डेढ़ लाख से ज्यादा मतों से जीत मिली थी. जीत 2014 में भी मिली लेकिन जीत का अंतर सिमटकर महज 21 हजार के करीब रह गया.
अब कयास ये भी लगाया जा रहा है कि राहुल के पिक्चर में आने के बाद बीजेपी इस सीट पर अपना खुद का उम्मीदवार भी उतार सकती है. तो वायनाड कांग्रेस के लिए सेफ सीट है या नहीं, इस पर कोई भविष्यवाणी करने से पहले ये तीन बातें याद रखनी होंगी.
अब जरा बीजेपी के आरोपों को भी तौल लीजिए. बीजेपी ने एक बार फिर अमेठी से स्मृति ईरानी को उतारा है. बगल की सीट सुल्तानपुर से मेनका गांधी भी हैं. पिछले चुनाव में राहुल गांधी ने ईरानी को 1 लाख से ज्यादा और 2009 में बीएसपी को पौने चार लाख वोटों से हराया था.
1998 और 1977 को छोड़ दें तो यहां से कांग्रेस के अलावा कभी कोई और पार्टी नहीं जीती. ऐसे में अमेठी से डर के मारे भागने की बात चुनावी बयानबाजी की मजबूरी से ज्यादा कुछ नहीं लगती.
वायनाड से राहुल को लड़ाने की मांग केरल से ही आई थी. पार्टी मुख्यालय में जब एके एंटनी ने राहुल के वायनाड से लड़ाने का ऐलान किया तो बताया कि इस सीट का चुनाव इसलिए किया गया ताकि दक्षिण भारत के चार राज्यों, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में कांग्रेस को मज़बूत किया जा सके.
पार्टी अध्यक्ष अगर साउथ से लड़ रहे हों तो इसका अपना सियासी संदेश जाता है. गौरक्षा के नाम पर देश के कई हिस्सों में हुई हिंसा और केरल में इसपर मचे बवाल के बैकड्रॉप पर आप इसे समझने की कोशिश कीजिए. इस सीट पर 56 फीसदी मुस्लिम आबादी है. क्रिश्चियन आबादी भी अच्छी खासी है. 35 फीसदी से ज्यादा SC/ST हैं.
यानी इस सीट की वो डेमोग्राफी है जिसको हक दिलाने की बात कांग्रेस करती है. लिहाजा यहां से चुनाव लड़ना अपने आप में एक बड़ा संदेश देना है. बड़े नेता के आने से पूरे इलाके में काडर का जोश बढ़ता है वो अलग. 2014 में वडोदरा सीट के साथ ही मोदी ने वाराणसी सीट से चुनाव लड़ा तो इसके पीछे वडोदरा में हारने का डर नहीं था। मोदी के वाराणसी आने से पूरे पूर्वांचल और साथ ही बिहार की कई सीटों पर असर पड़ा.
लेफ्ट की बौखलाहट की वजह ये है कि बीजेपी ने अपनी सहयोगी बीडीजेएस (भारतीय धर्म जन सेना) को ये सीट दी है. दो बार से कांग्रेस से जीत रहे शनवास के निधन के बाद CPI को उम्मीद होगी कि वो इस बार ये सीट आराम निकाल लेगी, लेकिन राहुल के खड़े होने के बाद उसके लिए यहां से जीतना टेढ़ी खीर साबित होगी. CPI ने इस सीट से पीपी सुनीर को उतारा है.
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Published: 31 Mar 2019,05:43 PM IST