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उत्तर प्रदेश के अयोध्या (Ayodhya) में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह हुआ. बेशक ये कहा जा सकता है कि इस दौरान पूरा ध्यान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर था. हालांकि, एक और राजनेता हैं, जिन्हें काफी प्रसिद्धि मिली- उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ. जब रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के लिए अनुष्ठान आयोजित किए जा रहे थे, तब पुजारियों के अलावा, गर्भगृह में सिर्फ चार लोग थे- RSS के सरसंघचालक मोहन भागवत, PM नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ.
इन चारों में से केवल दो ही सक्रिय राजनीति में हैं- पीएम मोदी और सीएम योगी आदित्यनाथ.
तो, योगी आदित्यनाथ के लिए इस समारोह का क्या मतलब है?
उनके लिए यहां से आगे क्या रास्ता निकलता है?
आइए इन दोनों पहलुओं पर नजर डालते हैं...
योगी आदित्यनाथ यूपी के मुख्यमंत्री होने के नाते, अयोध्या शहर में बीजेपी की योजनाओं के केंद्र में हैं. भले ही मंदिर निर्माण का प्रबंधन केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है, लेकिन अयोध्या शहर का विकास काफी हद तक CM योगी के अधीन है.
नतीजतन, अयोध्या में बदलाव का श्रेय आदित्यनाथ और उनकी सरकार को जाएगा. बेशक, इसका मतलब सरकार की ओर से मदद से भी है, जैसा कि द क्विंट की इस ग्राउंड रिपोर्ट में देखा जा सकता है कि किस तरह से भूमि अधिग्रहण किया गया है.
मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के अगले दिन भी योगी आदित्यनाथ ने मंदिर में सुरक्षा व्यवस्था और भीड़ प्रबंधन को लेकर बैठक की.
वैसे भी, किसी भी अन्य बीजेपी सीएम की तुलना में योगी आदित्यनाथ का नेशनल प्रजेंस ज्यादा है. इसकी वजह उनकी कट्टर हिंदुत्ववादी छवि है. साथ ही तथ्य यह है कि वह भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य पर शासन करते हैं.
वह किसी भी चुनाव में बीजेपी के प्रमुख प्रचारकों में से एक बनकर उभरे हैं.
यह काफी हद तक इस पर निर्भर करेगा कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर बीजेपी कैसा प्रदर्शन करती है.
पार्टी के पक्ष में दो बातें जा रही हैं:
पहला, राम मंदिर के उद्घाटन का जोश. बीजेपी ने राज्य के हर जिले में राम मंदिर को लेकर माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह देखना बाकी है कि यह उत्साह इस साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव तक बना रहता है या नहीं.
दूसरा, एसपी-बीएसपी-आरएलडी का गठबंधन टूट गया है. पिछले आम चुनावों में गठबंधन को 39 फीसदी वोट और 80 में से 15 सीटें हासिल हुई थीं. बीएसपी प्रमुख मायावती ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी अपने दम पर चुनाव लड़ेगी. 2019 में इसे 19 फीसदी वोट मिले थे. SP और RLD ने हाल ही में अपनी सीट-बंटवारे पर मुहर लगाई है. 2019 में छह फीसदी वोट पाने वाली कांग्रेस गठबंधन में शामिल हो सकती है, लेकिन यह बीएसपी के बाहर जाने से हुए नुकसान की भरपाई के लिए पर्याप्त नहीं होगा.
इन दो वजहों से बीजेपी और उसकी सहयोगी- अपना दल 80 में से 64 सीटों के अपने 2019 के प्रदर्शन को दोहराने के लिए अच्छी स्थिति में है और शायद इसमें सुधार भी कर सकते हैं.
हालांकि, चुनाव परिणाम हमेशा वैसा नहीं होता जैसी भविष्यवाणी की जाती है.
उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में 1993 का विधानसभा चुनाव दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हुआ था. इसके बावजूद, बीजेपी की सीटों में 44 सीटों की कमी आई और 1991 चुनाव की तुलना में वोट शेयर में लगभग 1 फीसदी की गिरावट आई. भले ही सीट शेयर में गिरावट आंशिक रूप से एसपी और बीएसपी के एक साथ आने के कारण थी, लेकिन विध्वंस के बाद की राजनीतिक लामबंदी को देखते हुए वोट शेयर में स्थिरता आश्चर्यजनक थी.
उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति का इतिहास है और यह मुमकिन है कि विपक्ष की जाति जनगणना की रणनीति को मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की तुलना में यूपी में ज्यादा समर्थन मिले.
भले ही योगी उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करने में सक्षम हों, लेकिन यह उनके राजनीतिक भविष्य की गारंटी नहीं दे सकता है. दिसंबर 2023 में जिस तरह से पीएम मोदी, अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से शिवराज सिंह चौहान को रीप्लेस किया गया, उसे सभी बीजेपी मुख्यमंत्रियों के लिए एक चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए. शिवराज चौहान 18 साल तक मुख्यमंत्री रहे थे और उन्होंने हाल ही में विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल की थी- फिर भी उन्हें रिप्लेस कर दिया गया.
अगर बीजेपी प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में एक और कार्यकाल जीतती है, तो वह जवाहरलाल नेहरू के बाद लगातार तीन चुनाव जीतने वाले पहले पीएम बन जाएंगे. अगर वह भारी अंतर से तीसरा कार्यकाल जीतते हैं, तो मुख्यमंत्रियों पर उनकी निर्भरता और कम हो जाएगी.
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