advertisement
उत्तराखंड के हल्द्वानी (Haldwani Violence) में मरियम मस्जिद और अब्दुल रज्जाक जकारिया मदरसे को ढहाए जाने के बाद हुई हिंसा को एक हफ्ते का वक्त बीत चुका है. इसे लेकर एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं, जैसे कि कैसे हिंसा भड़की और क्या चूक हुई?
एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) द्वारा 'बुलडोजिंग पीस: स्टेट वायलेंस एंड अपैथि इन मुस्लिम सेटलमेंट्स ऑफ हलद्वानी' (शांति पर बुलडोजर चलाना: हल्द्वानी की मुस्लिम बस्तियों में राज्य द्वारा हिंसा और उदासीनता) शीर्षक से फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट तैयार की गई.
फैक्ट फाइंडिंग टीम में एपीसीआर (APCR) के नदीम खान और मोहम्मद मोबश्शिर अनीक, कारवान-ए-मोहब्बत के हर्ष मंदर, नवशरण सिंह, अशोक शर्मा, कुमार निखिल और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता जाहिद कादरी शामिल थे, जिन्होंने 8 फरवरी, 2024 को हुई हिंसक घटनाओं पर अपनी अंतरिम रिपोर्ट जारी की है.
द क्विंट की रिपोर्ट के मुताबिक, हल्द्वानी हिंसा में ड्राइवर फहीम हादी और पिता-पुत्र मोहम्मद जाहिद और अनस सहित करीब छह लोगों की मौत हुई है. घटना के बाद, लगभग 300 घरों को पुलिस की कार्रवाई का सामना करना पड़ा, जहां कई घरेलू सामान क्षतिग्रस्त हो गए. परिवार के सदस्यों को पीटा गया और हिरासत में लिया गया, जबकि कर्फ्यू जारी है.
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में बोलते हुए, नदीम खान ने कहा, "गिरफ्तारी से ज्यादा हिरासत में लिए गए, सूत्रों के मुताबिक, लगभग 15 किलोमीटर दूर एक स्कूल है, जिसका इस्तेमाल एक सेंटर के रूप में किया जा रहा है, जहां लोगों को रखा जा रहा है. स्थानीय लोगों ने हमें बताया कि वहां 5,000 से अधिक लोगों के होने की बात कही गई है, लेकिन वे वीडियो सैंपल से लोगों का मिलान करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि दोषी संभवतः स्थानीय नहीं हैं."
द क्विंट से बात करते हुए, हल्द्वानी पुलिस के पीआरओ दिनेश जोशी ने ऐसे आरोपों से इनकार किया. उन्होंने कहा, "ऐसा कोई डिटेंशन सेंटर नहीं है. स्कूल सामान्य रूप से काम कर रहा है और वे अपनी बोर्ड परीक्षा आयोजित कर रहे हैं."
टीम के मुताबिक, हल्द्वानी की घटना उत्तराखंड को हिंदुओं की पवित्र भूमि देवभूमि बनाने की धारणा से गहराई से जुड़ी हुई है, जिसमें अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं होगी.
टीम ने यह भी कहा कि मौतों की संख्या से लेकर साइट पर गोली मारने के आदेश तक, संदिग्ध नजर आते हैं .
रिपोर्ट के मुताबिक, "हिंसा में 7 लोगों की मौत हो गई. अब तक 31 लोगों को गिरफ्तार किया गया है और 90 से अधिक लोगों को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया गया है. 5,000 लोगों के खिलाफ एक अज्ञात प्राथमिकी दर्ज की गई है. स्थानीय लोगों का दावा है कि मरने वालों की संख्या 20 से अधिक है."
दिनेश जोशी ने द क्विंट को बताया है कि कुल 42 लोगों को गिरफ्तार किया गया है.
इस बीच, आधिकारिक तौर पर13 फरवरी को मोहम्मद इसरार की मौत की बात सामने आई, जिससे मरने वालों की संख्या छह हो गई. हालांकि, पहले जबकि एसएसपी प्रह्लाद मीना ने मरने वालों की संख्या 5 बताई थी, एसपी हरबंस सिंह ने 9 फरवरी को पीटीआई को बताया कि कम से कम छह लोगों की मौत हुई थी.
इस पर जवाब देते हुए जोशी ने कहा, ''कमेटी में जांच कुमाऊं के कमिश्नर आईएएस दीपक रावत कर रहे हैं.''
फै्ट फाइंडिंग टीम ने कहा कि लव जिहाद, लैंड जिहाद, व्यापार जिहाद और मजार जिहाद के ध्रुवीकरण वाले नैरेटिव, दावों और मुसलमानों के आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार के आह्वान ने भी अशांति बढ़ाने में भूमिका निभाई है.
नगर आयुक्त पंकज उपाध्याय द्वारा पदमुक्त न किया जाना. 31 जनवरी को उनका तबादला कर दिया गया फिर भी उन्होंने अपना नया पद नहीं संभाला और 8 फरवरी को मुसलमानों को गाली देते हुए, मुस्लिम महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते हुए देखे गए.
वाल्मिकी समुदाय के सफाई कर्मचारियों ने मुसलमानों पर हमला करने में पुलिस का साथ दिया. ऐसा लगता है कि उनका हमला "मुस्लिम विरोधी नफरत और कट्टरपंथ का हिस्सा" था क्योंकि वाल्मिकी समुदाय के एक संजय सोलंकर ने भी अपने पड़ोसी फहीम की हत्या कर दी थी.
पुलिस स्टेशन पर हमले से जुड़ी एक अलग घटना में तीसरे ग्रुप की भागीदारी देखी गई, जिससे और ज्यादा लोग हताहत हुए और हालात और बिगड़ गए.
पुलिस ने वहां रखे कुरान और दूसरे सामान की लिस्ट नहीं बनाई और जिम्मेदार अधिकारी को सौंपने से भी परहेज किया.
नदीम खान ने बताया...
अब जब कुछ बातें सामने आई हैं तो कुछ सवाल जो अधिकारियों से पूछे जाने चाहिए, वे भी फैक्ट फाइंडिंग टीम ने उठाए हैं.
जिला मजिस्ट्रेट द्वारा एक और बयान दिया गया कि समुदाय के नेताओं को 8 फरवरी को तोड़फोड़ से पहले बुलाया गया था लेकिन उनके फोन बंद होने के कारण उनसे संपर्क नहीं किया जा सका. हालांकि, मुस्लिम मौलवी और नेता इस बयान से इनकार करते हैं.
काजी ने बताया, "80 व्यक्ति एक ही समय में अपने फोन बंद नहीं कर सकते." वे इन दावों को साबित करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट की जवाबदेही की मांग करते हैं.
यहां कुछ प्रासंगिक सवाल हैं, जो फैक्ट फाइंडिंग टीम ने उठाए हैं:
14 फरवरी को हाईकोर्ट में सुनवाई होने के बावजूद प्रशासन को मस्जिद और मदरसा तोड़ने की इतनी जल्दी क्यों थी?
सीलिंग के समय जब मुस्लिम समुदाय पहले ही सहयोग कर चुका है तो दूसरी बार उन्हें विश्वास में क्यों नहीं लिया गया?
जहां तक नगर निगम आयुक्त पंकज उपाध्याय का सवाल है, तो आपत्तिजनक गतिविधियों वाले व्यक्ति को दूसरे ऑफिस में ट्रांस्फर के बावजूद मौजूदा हालाक का संभालने की इजाजत क्यों दी जाती है?
उत्तरांचल दीप के पत्रकार सलीम खान के घर भी पुलिस घुसी. उनकी पत्नी और बच्चे पुलिस का शिकार हुए और उनके हाथ टूट गए. सरकार यह दावा कैसे कर सकती है कि कर्फ्यू और देखते ही गोली मारने के आदेश अभी भी प्रभावी हैं और स्थिति शांतिपूर्ण है?
एक और घटना हुई थी, जहां पास की एक मुस्लिम परिवार की शादी में उसी भीड़ ने हमला किया जिसने पुलिस स्टेशन पर हमला किया था. स्थानीय लोग और पुलिस हमलावरों की पहचान नहीं कर सके, जिससे पता चलता है कि हमलावर बाहरी थे. अगर भीड़ या हमलावर मुस्लिम समुदाय से होते तो वे अपने लोगों पर हमला क्यों करते?
इसके अलावा, फैक्ट फाइंडिंग टीम ने कहा कि हिंसा के दौरान, शहर के अलग-अलग इलाकों में लगातार पुलिस फायरिंग हुई और दो घंटे में लगभग 1,000-2,000 राउंड फायरिंग हुई. हालांकि, मीडिया ने केवल 350 राउंड फायरिंग की सूचना दी.
इसके साथ ही, "शाम 5 बजे के आसपास जानबूझकर बिजली काट दी गई थी, यह अनुमान लगाते हुए कि शाम 7 या 8 बजे तक सभी इनवर्टर की चार्जिंग खत्म हो जाएगी." ब्लैकआउट के दौरान कुछ लोगों ने थाने में आग लगा दी.
नजूल भूमि का मालिकाना हक सरकार के पास है लेकिन अक्सर इसे सीधे राज्य संपत्ति के रूप में प्रशासित नहीं किया जाता है. राज्य आम तौर पर ऐसी भूमि को किसी भी इकाई को 15 से 99 वर्ष के बीच एक निश्चित अवधि के लिए पट्टे पर आवंटित करता है.
अगर पट्टे की अवधि समाप्त हो रही है, तो कोई लिखित आवेदन जमा करके पट्टे को नवीनीकृत करने के लिए प्राधिकरण से संपर्क कर सकता है. सरकार पट्टे को नवीनीकृत करने या रद्द करने के लिए स्वतंत्र है.
रिपोर्ट में कहा गया है, "फैक्ट यह है कि एक तरफ मामला अदालत में विचाराधीन है और दूसरी तरफ सरकार इसे नियमित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है, यह स्पष्ट रूप से सरकार के सांप्रदायिक एजेंडे की ओर इशारा करता है. यह पैटर्न पूरे उत्तराखंड में साफ दिखता है."
इसके अलावा, लंबे समय से रेलवे के इस दावे को लेकर विवाद चल रहा है कि मुसलमानों की बड़ी बस्तियां रेलवे की जमीन पर हैं. उनके प्रस्तावित निष्कासन पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है.
द क्विंट ने उत्तराखंड हाई कोर्ट के वकील अहरार बेग से बात की थी, उन्होंने बताया कि मस्जिद और मदरसे को कम समय के भीतर खाली करने के लिए बेदखली नोटिस भेजे गए थे.
जब शहर के उलेमाओं के प्रतिनिधिमंडल और हल्द्वानी के नगर आयुक्त के बीच कोई सहमति नहीं बनी तो 4 फरवरी को नगर निगम कार्यालय ने मस्जिद और मदरसे को सील कर दिया.
विवादित भूमि की असली पट्टेदार होने का दावा करने वाली सोफिया मलिक ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की है, जिसपर 8 फरवरी को सुनवाई हुई और अगली सुनवाई के लिए 14 फरवरी की तारीख तय की गई थी. बेग ने कहा, "लेकिन मामले में कोई आदेश नहीं दिया गया."
मस्जिद और मदरसा दोनों दो दशक पुराने थे और 2003-2004 के आसपास बनाए गए थे. इस क्षेत्र में भूमि 1937 से स्लम योजना में कैटेगरी ए के तहत रेजिस्टर्ड बस्ती के साथ पट्टे पर है.
इसके अलावा, बड़ी संख्या में कम आय वाले दिहाड़ी मजदूरों वाली बस्ती के लोगों को लंबे समय से लगे कर्फ्यू के कारण भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)