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फ्रांसीसी वायरोलॉजिस्ट लूक मॉन्टैनियर (Luc Montagnier) के नाम से सोशल मीडिया पर एक मैसेज वायरल हो रहा है. इसमें दावा किया जा रहा है कि जिन-जिन लोगों को कोविड वैक्सीन लग चुकी है वो सभी ''दो सालों के अंदर मर जाएंगे'' और उनके बचने की कोई गुंजाइश नहीं है.
इसमें आगे लिखा है कि, लूक ने कहा है कि वे सभी ''एंटीबॉडी डिपेंडेंट इनहैंसमेंट (ADE)'' से मर जाएंगे. वायरल दावे के एक अन्य वर्जन में ये भी कहा गया है कि लूक के मुताबिक वैक्सीन की वजह से ही कोरोना के नए वैरिएंट सामने आए हैं.
हालांकि, हमने पाया कि मॉन्टैनियर के ये दावे निराधार हैं और इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण या डेटा नहीं है. लोगों के मरने वाले बयान को गलत तरीके से पेश किया गया है. लेकिन मूल रूप से फ्रेंच में किए गए इस 11 मिनट के इंटरव्यू में, पूर्व नोबेल पुरस्कार विजेता ने टीकों के खिलाफ बात की है और दावा किया है कि इसका प्रभाव 2 से 3 साल बाद पता चलेगा.
ये दावे WhatsApp पर काफी शेयर किए जा रहे हैं. इन्हें कई न्यूज आउटलेट ने भी छापा है. ये दावे नीचे दिए गए हैं.
कई न्यूज ऑर्गनाइजेशन जैसे कि Amar Ujala, TV9 Bharatvarsh और Zee News ने वैक्सीनेशन से नए वैरिएंट बनने वाले इस दावे पर स्टोरी पब्लिश की है.
हमें पूरा वीडियो इंटरव्यू 'Odysee' नाम की वेबसाइट पर मिला. हमने पूरा इंटरव्यू देखा, लेकिन हमें ऐसा कोई कमेंट नहीं मिला, जहां मॉन्टैनियर ने ये बोला हो कि "जिन्हें वैक्सीन लग चुकी है, वो सभी 2 साल में मर जाएंगे". ये सच है कि वो वैक्सीन के बारे में निराधार दावे करते हैं और इसे लेकर संदेह पैदा करते हैं, लेकिन वो ऐसा नहीं कहते कि सभी वैक्सीन लगवा चुके लोग 2 साल में मर जाएंगे.
हालांकि, जब इंटरव्यू लेने वाला "दुष्प्रभावों" के बारे में पूछता है, तो जवाब में मॉन्टैनियर कहते हैं कि ये 2 से 3 साल बाद पता चलेगा.
वैरिएंट के बारे में पूछे जाने पर, पूर्व नोबेल पुरस्कार विजेता का कहना है कि “वैरिएंट वैक्सीनेशन की वजह से सामने आते हैं. इस वायरस में अपने आपको बदलने की बहुत मजबूत क्षमता है.” उन्होंने ये भी कहा कि ये एक ऐसी गलती है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता.
लेकिन क्या ये सच है? खैर, इस सवाल का आसान जवाब है 'नहीं'. क्विंट पहले भी इस दावे को खारिज कर चुका है कि इसका कोई ज्ञात प्रमाण नहीं है.
इससे पहले हमने डॉ. सत्यजीत से बात की थी. डॉ. सत्यजीत IISER के सहायक फैकल्टी और इम्यूनोलॉजिस्ट हैं. उन्होंने कहा, ''हमें ये ध्यान में रखना चाहिए कि जरूरी नहीं है कि ये वैरिएंट ‘घातक’ हों. हालांकि, वैक्सीनेशन के बाद नया वैरिएंट आ सकता है. आने वाले जो वैरिएंट फॉर्म होंगे, उनके फैलने का और इन्फेक्शन का खतरा तो हो सकता है, लेकिन वो हमारे लिए घातक नहीं होंगे.’’
उन्होंने आगे कहा कि हम नैचुरल इन्फेक्शन और वैक्सीनेशन दोनों से ‘इम्यून’ होते हैं.
हमने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में बायोलॉजिकल साइंसेज डिपार्टमेंट में प्रोफेसर संध्या कौशिका से भी बात की, जिन्होंने हमें बताया कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो ये बताता हो कि वैक्सीन की वजह से कोरोनावायरस के अलग-अलग वैरिएंट सामने आए हैं.
इसके अलावा, अगर हम यूके में पाए गए वैरिएंट के लिहाज से देखें, तो वहां टीकाकरण दिसंबर में शुरु हुआ था लेकिन सरकार ने घोषणा की थी कि पहली बार सितंबर में ये वैरिएंट पाया गया था. यानी टीकाकरण के भी 3 महीने पहले.
न्यूज रिपोर्ट्स और WHO के मुताबिक, कोविड 19 का B.1.617 वैरिएंट, जो भारत में सबसे प्रमुख वैरिएंट बन गया है, पहली बार इसकी पहचान अक्टूबर 2020 में हुई थी. यानी देश में टीकाकरण अभियान शुरू होने से बहुत पहले ही ये वैरिएंट पाया गया था.
मॉन्टैनियर ने ये भी कहा कि एपिडेमियोलॉजिस्ट को "एंटीबॉडी-डिपेंडेंट इनहैंसमेंट" के बारे में पता है, लेकिन फिर भी वो इसके बारे में नहीं बोल रहे हैं.
लेकिन, ADE क्या है? एंटीबॉडी-डिपेंडेंट इनहैंसमेंट से मतलब उस बायोलॉजिकल तथ्य से है जिसमें एक रोगाणु (इस मामले में, एक वायरस) खुद को एक एंटीबॉडी से जोड़कर, उन कोशिकाओं को प्रभावित करने की क्षमता हासिल कर लेता है जिन्हें पहले प्रभावित नहीं कर सकता था. एंटीबॉडी, रोगाणु के लिए एक वाहक के रूप में काम करने लगती हैं. इससे रोगाणुओं में होस्ट कोशिकाओं में प्रवेश करने की क्षमता बढ़ जाती है और रोग और खतरनाक हो जाता है.
हालांकि, एक्टपर्ट्स ने इन दावों को खारिज कर दिया और इसे कोविड 19 वैक्सीन के मामले में गैरजरूरी मुद्दा बताया है. MedPage Today में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, वैक्सीन के विकास के शुरूआती चरणों में ही वैज्ञानिकों ने उस SARS-CoV-2 प्रोटीन को निकाला जिससे ADE होने की संभावना सबसे कम थी.
नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन (NCBI) ने 2020 में एक पेपर पब्लिश किया था जिसका शीर्षक है, 'COVID-19 वैक्सीन: क्या हमें ADE से डरना चाहिए?' इसमें बताया गया था कि अभी तक की जांच के मुताबिक कोविड 19 की वैक्सीन में ADE का कोई खतरा नहीं है.
लूक मॉन्टैनियर ने HIV की खोज के लिए 2008 में चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार जीता था. हालांकि, उन्होंने इसके पहले भी कई ऐसे दावे किए हैं जिनकी वजह से उनकी आलोचनाएं हुई हैं.
2020 की शुरुआत में, उन्होंने बार-बार उभर कर आने वाली इस कॉन्सपिरेसी थ्योरी के बारे में भी बोला था कि कोरोनावायरस मानव निर्मित है. हालांकि, इसका प्रमाण नहीं है कि कोरोना मानव निर्मित वायरस है. संक्रामक रोग पर अमेरिका के शीर्ष विशेषज्ञ डॉ एंथनी फाउची जैसे लोगों ने भी कोविड की उत्पत्ति को लेकर छानबीन की थी और उनकी ओर से कहा गया था कि वो इस वायरस के पैदा होने से जुड़ी ऐसी किसी थ्योरी से सहमत नहीं हैं.
उन्होंने फ्लू के टीकों से कोविड रोगियों की मौत होने संबंधी बयान भी दिए हैं. जिसे हेल्थ एक्सपर्ट्स गलत बताते हैं. इसके पहले मॉन्टैनियर एंटी वैक्सर यानी वैक्सीन का विरोध करने वालों का भी समर्थन कर चुके हैं. उन्होंने दावा किया था कि DNA ''इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव'' फैलाते हैं या उत्सर्जित करते हैं और DNA के मॉलीक्यूल्स टेलीपोर्ट कर सकते हैं. टेलीपोर्ट से मतलब अपना स्वरूप बदलकर एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंच सकते हैं.
मतलब साफ है, मॉन्टैनियर के दावे न केवल निराधार और अप्रमाणिक हैं, बल्कि वो इस तरह के बयान पहले भी देते रहे हैं.
(ये स्टोरी क्विंट के कोविड-19 और वैक्सीन पर आधिरित फैक्ट चेक प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जो खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के लिए शुरू किया गया है)
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