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बॉल प्वाइंट पेन दिवस:ट्रायल से लेकर आपकी जेब तक कैसे पहुंची ये चीज

बॉल प्वाइंट पेन कोई मामूली कामयाबी नहीं थी, इसने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह दर्ज कराई

उर्मि भट्टाचार्य
दुनिया
Published:
बॉल प्वाइंट पेन का इजाद करने वाले दोनों भाइयों के बारे में बहुत काम जानकारी है
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बॉल प्वाइंट पेन का इजाद करने वाले दोनों भाइयों के बारे में बहुत काम जानकारी है
(Photo: iStockphotos.com)

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10 जून 1943 को बरो बंधु- लाजलो और यॉर्गी को अमेरिकी पेटेंट 2,390,636 मिला, जिसे दुनिया बॉल प्वाइंट पेन के नाम से ज्यादा पहचानती है. हंगरी के आविष्कारकों की नई कलम लिखने के साधन के मामले में बहुत बड़ा बदलाव थी. इसने लेखन के नजरिए से तो बदलाव किया ही, संचार के तरीके में भी हमेशा के लिए क्रांतिकारी बदलाव ला दिया.

बरो बंधु ऐसे पहले लोग नहीं थे, जिन्होंने स्याही को फैलाने के लिए एक लुढ़कने वाली गेंद की सोच को सामने रखा. दिलचस्प ये है कि इसी तरह के एक औजार के पेटेंट का आवेदन 1888 में भी दिया गया था. खुद बरो बंधुओं ने भी1939 में एक पेटेंट का आवेदन दिया था.

हालांकि ये 1943 का पेटेंट था, जो व्यावसायिक रूप से सफल साबित हुआ. इस पर ध्यान दिया गया, इसे स्वीकार किया गया और बाजार में उतार दिया गया. बॉल प्वाइंट पेन आते ही कागजों और दुनिया के कैनवास पर दौड़ने लगी, लेकिन सवाल है कि ये कैसे हुआ?

ये हैरतअंगेज बात है कि बॉल प्वाइंट पेन का ईजाद करने वाले दोनों भाइयों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है. आज का दिन जब बाल प्वाइंट पेन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, तो शायद ये सही मौका है कि हम इस गलती को सुधार लें.
बरो बंधु ऐसे पहले लोग नहीं थे जिन्होंने स्याही को फैलाने के लिए एक लुढ़कने वाली गेंद की सोच को सामने रखा(Photo: iStockphotos.com)
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रंगे हाथ: बरो बंधु कौन थे?

लाजलो बरो, हंगरी के एक पत्रकार थे. 1935 में वो एक छोटे से अखबार के संपादक थे. उन्होंने बहुत हताशा में ये महसूस किया कि फाउंटेन पेन में स्याही भरने और स्याही के निशान मिटाने में बहुत वक्त खराब होता है. उन्होंने बहुत जल्दी ही ये भी भांप लिया कि अखबारों में जिस स्याही का इस्तेमाल होता है, वो बहुत जल्दी सूख जाती है और पेज पर स्याही के धब्बे भी नहीं लगते.

लाजलो ने इस प्रक्रिया की नकल उतारने की ठान ली और उन्होंने इस काम में अपने भाई यॉर्गी से मदद मांगी जो कि एक केमिस्ट थे. उनके पास ऐसी चीजें थीं, जिससे लिखने के इस नए औजार को बनाया जा सकता था.

हकीकत तो ये है कि बॉल प्वाइंट पेन काफी पहले 1888 में खोजी जा चुका थी, जब जॉन लाउड नाम के अमेरिका के एक चमड़ा कर्मचारी ने नोक पर एक लुढ़कने वाली बॉल लगी एक मार्किंग पेन का पेटेंट कराया था.

लाउड के अविष्कार में एक अलग जगह स्याही रखी जाती थी और एक लुढ़क सकने वाली बॉल थी, जो उस स्याही को चमड़े के ऊपर अंकित करती थी. हालांकि ऐसे पेन को कभी भी बनाया नहीं जा सका. समस्या स्याही के गाढ़ेपन की थी. अगर स्याही पतली होती, तो पेन से बहने लगती और अगर वो गाढ़ी होती, तो सूख कर जम जाती थी.

बॉल प्वाइंट पेन कोई मामूली कामयाबी नहीं थी, इसने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह दर्ज कराई (Photo: iStockphotos.com)

करीब 50 साल बाद इस चुनौती का हल खोजने का जिम्मा बरो बंधुओं ने उठाया. वो बहुत खुशकिस्मत थे कि उन्हें अगस्तिन हूश्तो के रूप में एक मार्गदर्शक मिल गया, जो इत्तेफाक से अर्जेंटीना के राष्ट्रपति थे.

जब हूश्तो ने लाजलो और यॉर्गी के बॉल प्वाइंट पेन का मॉडल देखा, तो उन्हें अर्जेंटीना में फैक्ट्री लगाने के लिए प्रेरित किया. वो अर्जेंटीना में सिर्फ अपने पेन को पेटेंट कराने के लिए ही रुक सके और जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ, तो दोनों भाई पेरिस भाग गए.

हालांकि बॉल प्वाइंट पेन का पहला सेट बहुत खराब निकला, वो इस मामले में पहले हुए प्रयासों से बहुत बेहतर साबित नहीं हुआ. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि पेन से तभी लिखा जा सकता था जब उसे लगभग खड़ा करके लिखा जाए, ताकि उसकी स्याही गुरुत्वाकर्षण से नोक पर लगी बॉल तक पहुंच सके. इसका मतलब ये था कि जब स्याही गाढ़ी होती थी, तो वो पेपर पर थक्का सा छोड़ जाती थी.

बरो बंधुओं ने अपनी प्रयोगशाला में दोबारा काम किया और बहुत जल्दी ही इसका हल खोज लिया. उन्होंने एक नई डिजाइन तैयार की, जिसमें स्याही गुरुत्वाकर्षण के बजाए कैपिलरी ऐक्शन यानी नली में बहाव के सिद्धांत पर काम करती थी. पेन की नोक पर लगी बॉल धातु के सोख्ते की तरह काम करती थी, जो ज्यादा स्याही को हटा देती थी और स्याही को फैलने से भी रोक देती थी.

नए पेन के इस बेहतर मॉडल को 10 जून 1943 को पेटेंट कराया गया, जो सफलता की कहानी लिखने की राह पर निकल पड़ी.

एक पेन ने विश्व युद्ध की कहानी लिखने में कैसे मदद की....

बॉल प्वाइंट पेन कोई मामूली कामयाबी नहीं थी, इसने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह दर्ज कराई. इत्तेफाक से इसका आविष्कार द्वितीय विश्व युद्ध के साथ हुआ. ये वो वक्त था जब ब्रिटिश रॉयल एयरफोर्स को बहुत शिद्दत से एक नए तरह की पेन की जरूरत थी. ऐसी पेन, जिसमें बहुत ऊंचाई पर उड़ रहे लड़ाकू विमान में रिसाव न हो जाए.

पुराने तरह के फाउंटेन पेन में बहुत दिक्कत थी, जिनमें बार-बार स्याही भरनी पड़ती थी. एयरफोर्स द्वारा बॉल प्वाइंट पेन के सफल इस्तेमाल से बरो बंधुओं का बॉल प्वाइंट पेन चर्चा में आ गया.

सच तो ये है कि ब्रिटेन की सरकार ने युद्ध के कामकाज में इस पेन के इस्तेमाल का लाइसेंस भी ले लिया. 70 साल बाद चले आएं, आज भी जिंदगी की कल्पना पुराने भरोसेमंद बॉल प्वाइंट पेन के बिना मुश्किल लगती है.

ब्रिटेन की सरकार ने युद्ध के कामकाज में इस पेन के इस्तेमाल का लाइसेंस भी ले लिया (Photo: iStockphotos.com)

बॉल प्वाइंट पेन दिवस इतिहास के आकाश पर एक क्लासिक की तरह है, जिसने अपने छोटे से योगदान से एक युद्ध को जीतने में मदद की और जो आज भी हमारी 'विलासिता' की सबसे किफायती चीजों में एक है.

तो आप किस बात का इंतजार कर रहे हैं? अपने टैबलेट को एक तरफ रखिए और पेन उठा लीजिए. बरो बंधुओं के आविष्कार का सबसे बेहतरीन तरीके से सम्मान करें. अपने हाथ से कुछ लिखें और अपने निशान छोड़ जाएं. ये कोई मजाक की बात नहीं है.

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