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COP26: ग्लासगो में हो रहा ये सम्मेलन क्यों है इतना अहम, एजेंडे में क्या है?

रियो डी जनेरियो से लेकर ग्लासगो तक, जलवायु परिवर्तन पर बैठकों का इतिहास क्या है ?

मोहम्मद साक़िब मज़ीद
दुनिया
Updated:
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COP26: ग्लासगो में हो रहा ये सम्मेलन क्यों है महत्वपूर्ण, एजेंडे में क्या है ?

(फोटो- UNFCCC)

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ताजा चेतावनियों और जलवायु संकट (Climate Crisis)की चेतावनियों के बीच, दुनिया भर के देश स्कॉटलैंड के ग्लासगो (Glasgow) में इकट्ठा हो रहे हैं. COP26, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लिए 26वां सम्मेलन है, जो पिछले साल उसी स्थान पर आयोजित होने वाला था, लेकिन कोरोना महामारी की वजह से अपने इतिहास में पहली बार इसे स्थगित करना पड़ा था.

दो सप्ताह की इस बैठक का आधिकारिक एजेंडा पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के लिए नियमों और प्रक्रियाओं को अंतिम रूप दिया जाना है, जिसे 2018 तक पूरा किया जाना था.

हालांकि बैठक से पहले की अधिकांश चर्चाएं सभी देशों को मिड-सेंचुरी के आसपास नेट-जीरो टारगेट के लिए प्रतिबद्ध करने के प्रयास के आसपास रही हैं.

कार्बन न्यूट्रैलिटी एक ऐसी स्थिति है, जिसमें किसी देश के उत्सर्जन की भरपाई या तो पेड़ों और जंगलों के जैसे ग्रीनहाउस गैसों के अवशोषण द्वारा की जाती है, या फिर तमाम आधुनिक तकनीक का उपयोग करके वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को फिजिकल रूप से हटाकर किया जाता है. नेट-जीरो (Net-Zero) एक अत्यंत विवादास्पद विषय है, जो विकसित और विकासशील देशों को बिल्कुल अलग कर देता है.

वार्षिक क्लाइमेट चेंज मीटिंग्स (Annual Climate Change Meetings) 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू की गई संयुक्त राष्ट्र (UN) समर्थित प्रक्रिया का हिस्सा हैं.

तब सारी दुनिया ने महसूस किया कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तापमान में वृद्धि की ओर है, जो धीरे-धीरे पृथ्वी को जीवन के लिए असहज बना देगा. कई सालों से इन बैठकों में जलवायु परिवर्तन को वैश्विक एजेंडे में सबसे ऊपर लाने और यह सुनिश्चित करने में सफलता मिली कि सभी देशों के पास जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक योजना है.

इस प्रक्रिया में दो अंतरराष्ट्रीय समझौते भी किए गए -1997 में क्योटो प्रोटोकॉल और 2015 में पेरिस समझौता, जिसका उद्देश्य ग्लोबल उत्सर्जन में कटौती करना है.

बैठक का अपेक्षित परिणाम नहीं मिला 

हालांकि इन बैठक के परिणाम अपेक्षित प्रतिक्रिया के पैमाने से मेल नहीं खाते हैं. मूल उद्देश्यों- उत्सर्जन में कमी की मात्रा और इंटरनेशनल क्लाइमेट आर्किटेक्चर (International Climate Architecture) को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों के संदर्भ में गंभीर रूप से कमजोर कर दिया गया है.

अधिकांश औद्योगिक देश न केवल उत्सर्जन में कमी पर अपने प्रारंभिक वादों को पूरा करने में विफल रहे हैं, बल्कि वित्त और टेक्नोलॉजी के साथ मदद करने के अपनी प्रतिबद्धत्ता पर भी विफल रहे. नतीजतन पिछले 20 वर्षों में जलवायु संकट बिगड़ गया है.

हालांकि खामियों के बावजूद, ये बैठक दुनिया को जलवायु आपदाओं से दूर रखने के लिए सबसे अच्छी बात है.

कॉर्बन मार्केट्स

2015 के ऐतिहासिक पेरिस समझौते (Paris Agreement) के नियम और प्रक्रियाएं अभी भी पूरी तरह से लागू नही हो सकी हैं, क्योंकि देशों को नए कार्बन मार्केट्स के निर्माण से संबंधित कुछ प्रावधानों पर सहमत होना बाकी है. कार्बन मार्केट्स, उत्सर्जन में कमी को सुगम बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन हैं, और क्योटो प्रोटोकॉल का एक अभिन्न अंग भी.

क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) के तहत, अमीर और औद्योगिक देशों के एक समूह को विशिष्ट उत्सर्जन में कमी के टारगेट दिए गए थे. इन्हें हासिल करने का एक अप्रत्यक्ष तरीका यह था कि इन देशों को विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीदने दिया जाए.

क्योटो प्रोटोकॉल के तहत अपने उत्सर्जन को कम करने के लिए कोई दायित्व नहीं था, लेकिन अगर वे ऐसा करने में सक्षम थे तो वे कार्बन क्रेडिट अर्जित कर सकते थे. विकसित देश इन क्रेडिट्स को खरीद सकते थे और उन्हें अपने टारगेट पूरा करने की दिशा में काउंट कर सकते थे. विकासशील देशों ने कुछ भी नहीं खोया, और इसके बजाय उन्हें स्वच्छ टेक्नोलॉजी पर स्विच करने के लिए पेमेंट किया गया.

क्योंकि कहीं भी उत्सर्जन में कमी ने पूरे विश्व को मदद की, इसे सभी के लिए एक जीत की स्थिति के रूप में देखा गया.
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इन वर्षों में, चीन, भारत और ब्राजील जैसे विकासशील देशों ने बड़ी संख्या में कार्बन क्रेडिट जमा किए, जो एक समय में बहुत मांग में थे क्योंकि विकसित देशों को अपने लक्ष्य हासिल करने थे और यह अक्सर उत्सर्जन को कम करने की तुलना में एक सस्ता तरीका था.

हालांकि जैसे-जैसे क्योटो प्रोटोकॉल को बदलने के लिए एक नए समझौते की स्थिति बनती दिखी विकसित देशों की अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ने की प्रेरणा कम हो गई. देशों ने महसूस किया कि उनके लक्ष्यों को प्राप्त न करने पर कोई जुर्माना नहीं लगाया जाता है.

इसलिए, अधिकांश अपने देश टारगेट को कभी पूरा नहीं कर पाए. कई देश तो क्योटो प्रोटोकॉल से भी बाहर हो गए.

लेकिन भारत, चीन और ब्राजील जैसे देशों ने इस उम्मीद में कार्बन क्रेडिट अर्जित करना जारी रखा कि क्योटो प्रोटोकॉल का समझौता होने के बाद मांग वापस आ जाएगी. ऐसा पेरिस समझौते के साथ हुआ.

पेरिस समझौते में भी कार्बन मार्केट्स की कल्पना की गई है, लेकिन एक नई समस्या पैदा हो गई. विकसित देशों ने कहा कि वे पहले के कार्बन क्रेडिट को नए मार्केट मकैनिज्म में बदलने की अनुमति नहीं देंगे. उन्होंने कार्बन क्रेडिट प्रदान करने के लिए और अधिक मजबूत तरीकों की मांग की. विकासशील देश इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उनका अरबों का संचित कार्बन क्रेडिट नए बाजार में वैध बना रहे.

पेरिस समझौते के नियमों और प्रक्रियाओं को अंतिम रूप देने में यह आखिरी ब्लॉक बना हुआ है. 2019 में मैड्रिड में पिछली मीटिंग के दौरान कई अन्य मुद्दों पर बातचीत की गई थी. इसे सुलझाना ग्लासगो बैठक के मुख्य उद्देश्यों में से एक है.

नेट जीरो (Net-Zero)

कार्बन मार्केट्स पर समझौते में जटिल बातचीत शामिल होगी. इस बीच नेट-जीरो टारगेट पर चर्चा बहुत अधिक ध्यान खींचने वाली है. संयोग से नेट-जीरो या कार्बन न्यूट्रैलिटी के मुद्दे का पेरिस समझौते में उल्लेख नहीं है और इसलिए प्रोसेस का हिस्सा नहीं बनता है. लेकिन यह पहली बार नहीं है कि कोई मुद्दा जो सीओपी की बैठकों से व्यवस्थित रूप से नहीं बढ़ा है, एक सत्र पर हावी हो गया है. सेंचुरी के मध्य तक 50 से अधिक देशों ने कार्बन-न्यूट्रैलिटी का संकल्प लिया है.

चीन ने कहा है कि वो 2060 तक यह दर्जा हासिल कर लेगा. जर्मनी ने 2045 के लक्ष्य की घोषणा की है. भारत सबसे बड़ा उत्सर्जक है जिसकी अभी भी नेट-जीरो कमिटमेंट नहीं है, और उसने कहा है कि उसका इरादा तत्काल कमिटमेंट नहीं है.

कई अन्य विकासशील देश भी इस तरह के लक्ष्यों का विरोध करते रहे हैं, यह तर्क देते हुए कि यह विकसित दुनिया का तरीका है कि वे उत्सर्जन को कम करने का अपना बोझ हर किसी पर डाल दें.

पिछले हफ्ते एक वर्चुअल मीटिंग में 24 देशों के मंत्री, जो खुद को 'लाइक माइंडेड डेवलपिंग कंट्रीज (LMDCs) कहते हैं, इन देशों ने सभी पर नेट-जीरो टारगेट को लागू करने के प्रयासों की निंदा करते हुए कहा कि यह इक्विटी और क्लाइमेट जस्टिस के खिलाफ है.

भारत LMDC का हिस्सा है, और दिलचस्प बात यह है कि चीन भी ऐसा ही है. अन्य सदस्यों में इंडोनेशिया, मलेशिया, ईरान, बांग्लादेश, फिलीपींस और श्रीलंका शामिल हैं.

विकसित दुनिया को याद दिलाते हुए कि सीओपी की मीटिंग्स उनके टूटे हुए वादों का इतिहास थीं. एलएमडीसी ने कहा कि अमीर देशों की ओर से पर्याप्त कार्रवाई की कमी के कारण क्लाइमेट क्राइसिस हुआ था.

मिनिस्ट्रियल स्टेटमेंट में कहा गया कि 2050 तक सभी देशों के लिए नेट-जीरो उत्सर्जन की मांग विकसित और विकासशील देशों के बीच मौजूदा असमानताओं को और बढ़ा देगी.

यह स्पष्ट है कि नेट-जीरो पर चर्चा से ग्लासगो में बहस होने की भी संभावना है.

जलवायु परिवर्तन पर बैठकों का इतिहास 

1992: पृथ्वी शिखर सम्मेलन, रियो डी जनेरियो

यह एक अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट चेंज एग्रीमेंट पर वार्ता के लिए आर्किटेक्चर की स्थापना करने वाली बैठक थी. इसने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) को अंतिम रूप दिया, जो मूल समझौता है. यह उन उद्देश्यों और सिद्धांतों को निर्धारित करता है जिन पर देशों द्वारा जलवायु कार्रवाही आधारित होती है. इसने स्वीकार किया कि विकासशील देशों के पास उत्सर्जन को कम करने के लिए कम दायित्व और क्षमताएं थीं. विकसित देश 2000 तक अपने 1990 के उत्सर्जन स्तर पर लौटने के उद्देश्य से उपाय करने के लिए एक गैर-बाध्यकारी प्रतिबद्धता पर सहमत हुए.

2009: COP15, कोपेनहेगन

यह एक नए एग्रीमेंट को अंतिम रूप देने का प्रयास था लेकिन विफलता में समाप्त हुआ. 110 से अधिक राष्ट्रों के अध्यक्ष इकट्ठे हुए, लेकिन मतभेद इतने गहरे थे कि उन्हें पाटा नहीं जा सकता था. देश कुछ साल बाद फिर से प्रयास करने के लिए सहमत हुए. विकसित देश 2020 से विकासशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस में हर साल 100 अरब डॉलर जुटाने के लिए कमिटेड हैं.

1997: COP3, क्योटो

1997 में क्योटो प्रोटोकॉल दिया गया, जो पेरिस समझौते का अगुआ था. प्रोटोकॉल ने 2012 तक हासिल किए जाने वाले विकसित देशों के एक समूह के लिए विशिष्ट उत्सर्जन में कमी के टारगेट निर्धारित किए थे. अन्य देशों को उत्सर्जन को कम करने के लिए स्वैच्छिक कार्रवाही करनी थी.

2007: COP13, बाली

इसने क्योटो प्रोटोकॉल के प्रतिस्थापन को खोजने के प्रयासों में सीबीडीआर के सिद्धांतों की पुष्टि की, जिससे विकसित राष्ट्र तेजी से असहज हो रहे थे. विकसित देश सभी के लिए या किसी के लिए भी उत्सर्जन में कमी के टारगेट चाहते हैं. उनका यह तर्क है कि चीन और भारत की कड़ी कार्रवाही के बिना, किसी भी जलवायु कार्रवाही की सफलता संभव नहीं होगी.

2015: COP21, पेरिस

आखिरकार सफल एग्रीमेंट सामने आया. पेरिस एग्रीमेंट किसी भी देश को उत्सर्जन में कमी के टारगेट निर्धारित नहीं करता है. इसके बजाय, यह सभी को अपना बेस्ट देने के लिए कहता है. लेकिन उन्होंने अपने लिए जो टारगेट निर्धारित किए हैं, उन्हें रिपोर्ट और वेरिफाई किया जाना चाहिए. इसका उद्देश्य प्री-इंडस्ट्रियल टाइम( औधोगीकरण से पहले) के औसत तापमान में ग्लोबल वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस के अंदर सीमित करना है.

2021: COP26, ग्लासगो

यह सम्मेलन 2020 में आयोजित होने वाला था लेकिन कोरोना के कारण स्थगित कर दिया गया था. पेरिस समझौते को लागू करने के लिए रूलबुक को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है.

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Published: 28 Oct 2021,09:50 PM IST

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