ग्लासगो में क्लाइमेट टॉक्स (Glasgow Climate Change Conference) कुछ ही दिन दूर हैं, और शायद यह आखिरी मौका है जब इस शताब्दी में विश्व स्तर पर पृथ्वी की गरमाइश को 1.5 डिग्री सेंटिग्रेट से ज्यादा होने से रोका जा सके.
इस जलवायु सम्मेलन (climate conference) में दुनिया के 100 से ज्यादा नेता जमा होंगे और कई अहम मसलों पर बातचीत करेंगे, जैसे यह तय करना कि एमिशन को कम करने के वादे को कितने वक्त में पूरा किया जाएगा. इसके लिए किन देशों को महत्वपूर्ण कदम उठाने की जरूरत है?
इस खास सम्मेलनों की प्रकृति ऐसी है कि सिर्फ कुछ देश मिलकर इसे कामयाब नहीं बना सकते- भले ही जलवायु परिवर्तन में उनकी भूमिका या ताकत जो भी हो. हमारे पास ऐसी कई मिसाल हैं.
1997 के क्योटो प्रोटोकॉल टॉक्स में सभी विकसित देशों को टारेगट और टाइम लिमिट तय करनी थी, यह भी तय करना था कि इन कैलकुलेशंस में किसे शामिल किया जा सकता है, और किसे हटाया जा सकता है. इसमें ऑस्ट्रेलिया (Australia) ने अड़ंगा लगाया. यानी मांग पूरी न होने तक वह समर्थन वापस लेने की धमकी देकर समझौते को ताक पर रख दिया.
2009 में कोपेनहेगन में क्योटो प्रोटोकॉल के बाद नए समझौते की योजना थी, जिसमें एमिशन को कम करने के नए टारगेट तय होने थे. तब चीन और अमेरिका (America) की जिद ने नया समझौता होने ही नहीं दिया.
2015 में पेरिस वार्ता के आयोजकों को सबक मिल चुका था. इसलिए 20 देशों के बीच जिम्मेदारियों को साफ तौर से बांटने की बजाय उन्होंने सभी देशों से कहा कि वे अपने हिसाब से टारगेट तय करें. एमिशन को कम करने में वे कितना योगदान देंगे और उनका अपना-अपना टारगेट क्या है.
लेकिन ग्लासगो में एकता फिर भी जरूरी है
यूं ग्लासगो सम्मेलन की सफलता इस बात पर निर्भर नहीं करेगी कि भागीदार देश एक राय हो जाएं, लेकिन फिर भी तीन वजहों से अंतरराष्ट्रीय सहयोग फिर भी अहम हैं.
पहला, पेरिस समझौते के बाद इस सम्मेलन में सभी देश एमिशन कम करने का नया वादा करेंगे. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन के नए लक्ष्यों की समय सीमा पर भी सहमति कायम होगी.
दूसरा, इस दौरान अमीर देश गरीब देशों की वित्तीय मदद करेंगे ताकि वे ग्रीनहाउस गैसों के एमिशन को कम करने के उपाय कर सकें जैसे नए कोयला स्टेशन बनाना. साथ ही जलवायु परिवर्तन के टाले न जा सकने वाले असर से निपटा जा सके, जैसे गंभीर और जल्द-जल्द आने वाली विपदाएं.
यूं सबसे बुनियादी बात यह है कि समय बीता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन पर तेजी से काम करने की जरूरत है. वैसे तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस, यहां तक कि 2 डिग्री सेल्सियस पर रखने का लक्ष्य पूरा करना अव्यावहारिक लग रहा है. पेरिस समझौते में यही लक्ष्य तो रखा गया था.
इस बार किन देशों को मुख्य भूमिका निभानी है?
अमेरिका (America)
अमेरिका दुनिया में ग्रीस हाउस गैस फैलाने वाले देशों में दूसरे नंबर पर है. विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते वह इन गैसों के एमिशन से संबंधित सेक्टर्स में मूल्य निर्धारण को प्रभावित कर सकता है, जैसे एनर्जी सेक्टर. साथ ही ऐसे समझौतों का रास्ता खोल सकता है जिनके तहत विकसित देश विकासशील देशों को संसाधन मुहैया कराएं.
काम संभालते ही जो बायडेन प्रशासन ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु संरक्षण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई थी. उसने कहा था कि 2030 तक एमिशन में 2005 के स्तर के मुकाबले 50 से 52% की कटौती की जाएगी. साथ ही विकासशील देशों को दोगुना फंड्स देने का ऐलान किया था, जोकि 2024 तक 11 बिलियन यूएस डॉलर तक होगा.
लेकिन बड़ा सवाल उसके मंसूबों का नहीं है. यह तो मेज पर तय होता है. उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिका दूसरे देशों को इस बात के लिए राजी करवा पाएगा. ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ठोस कार्रवाई करने से परहेज कर रहे हैं. इसके अलावा ऐसे देश भी हैं जिनसे अमेरिका के दोतरफा रिश्ते कड़वाहट से भरे हैं, जैसे चीन.
चीन (China)
ग्लासगो वार्ता का सबसे अहम देश है चीन. वह दुनिया में सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस फैलाता है. वह दुनिया का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक देश है और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था.
यूं हमें दुनिया के कई कोनों से जीरो एमिशन का वादा सुनाई दे रहा है, यह भी कि कोयला वाले पावर स्टेशन भी नहीं बनाए जाएंगे. लेकिन पेरिस समझौते के बाद एमिशन कम करने के कोई नए टारगेट नहीं रखे गए है और न ही यह पक्का किया गया है कि चीनी राष्ट्रपति जी जिनपिंग इस सम्मेलन में शामिल होंगे.
सरकारी स्त्रोत कहते हैं कि क्लाइमेट ऐक्शन को देशों के बीच व्यापक रिश्तों से अलग करके नहीं देखा जा सकता. इससे इस बात की आशंका पैदा होती है कि मानवाधिकारों, दक्षिण चीनी सागर और ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच जिस तरह ठनी है, उससे चीन की महत्वाकांक्षाएं प्रभावित होंगी और इसका असर क्लाइमेट ऐक्शन पर भी होगा.
चीन के लिए यह अहम है कि वह अंतरराष्ट्रीय दबाव में न आए और जो देश गंभीर कार्रवाई करने के लिए बेकरार हैं, उनके लिए चीन का रवैया कूटनीति को और मुश्किल बना देता है.
युनाइटेड किंगडम (United kingdom)
यूके ग्लासगो सम्मेलन का मेजबान देश है. जो देश ऐसे सम्मेलनों के मेजबान होते हैं, उनकी कुछ ज्यादा ही जवाबदेही होती है. वे सम्मेलन की औपचारिक ‘प्राथमिकताएं’ भी तय करते हैं जोकि बातचीत के फोकस और उसकी कामयाबी के मानदंडों को प्रभावित करते हैं.
हमने देखा है कि हाल ही में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों की मेजबानी करते हुए यूके ने किस तरह कूटनीतिक कोशिशें की हैं, और दोतरफा बातचीत में इस मसले को उठाया है. वह दुनिया की आबो-हवा को साफ रखने की सबसे बड़ी ख्वाहिश भी जाहिर कर चुका है- 2035 तक एमिशन में 1990 के स्तर से 78% की कटौती करना.
फिर कोविड-19 संकट में लापरवाही और ब्रेग्जिट के बाद प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन पर इस बात का जबरदस्त घरेलू दबाव है कि वे इस वार्ता को सफल बनाएं.
रूस (Russia)
पिछले दो अंतरराष्ट्रीय समझौतों को रूस ने बहुत देरी से और बेदिली से माना था. क्योटो प्रोटोकॉल तो तब लागू हुआ, जब रूस ने 2004 में इसे मंजूर किया- इस पर दस्तखत करने के सात साल बाद. इसी तरह पेरिस समझौते को भी बहुत देर से मंजूर किया.
ग्रीसहाउस गैसों को सबसे ज्यादा छोड़ने वाले पांच मुख्य देशों में से एक देश रूस भी है. वह दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जलवायु परिवर्तन के जोखिमों को लगातार कम करके आंका है. रूस इस बात का सबसे ज्यादा विरोध करता रहा है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जलवायु परिवर्तन के सुरक्षा प्रभावों पर बातचीत की जाए.
लेकिन ग्लासगो वार्ता के दौरान कुछ अच्छी पहल की उम्मीद है. जून में पुतिन ने नई क्लाइमेट स्ट्रैटेजी का ऐलान किया है और जुलाई में नए क्लाइमेट कानून लागू किए हैं. इस बात खबरें हैं कि मॉस्को नेट जीरो गोल और एमिशन कम करने के नए टारगेट पर सोच-विचार कर रहा है.
यकीनन रूस की स्थिति बताएगी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्लाइमेट ऐक्शन क्या रफ्तार पकड़ता है.
भारत (India)
भारत दुनिया में ग्रीनहाउस एमिनशन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है, और उन विकासशील देशों में सबसे आगे है, जो सतत विकास और क्लाइमेट ऐक्शन की कीमत को लेकर चिंतित हैं.
हमने देखा कि 2015 में पेरिस के बाद भारत ने कोई नए टारगेट तय नहीं किए. उनसे रीन्यूएबल एनर्जी में निवेश के अपने वादे को भी पूरा नहीं किया है. हाल ही में हमने देखा है कि कई भारतीय नेता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि विकसित और दौलतमंद देश फॉसिल फ्यूल के विकल्पों के लिए पैसा मुहैय्या कराएं.
आखिर में ग्लासगो वार्ता में भारत का सहयोग इस बात पर निर्भर करेगा कि विकसित देश एनर्जी ट्रांजिशन, यानी ऊर्जा के दूसरे विकल्पों पर कितना पैसा खर्च करने के लिए रजामंद हैं.
(लेखक क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है. यह आर्टिकल मूल रूप से द कनवर्जेशन में पब्लिश हुआ है. मूल आर्टिकल को यहां पढ़ें.)
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