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Facebook बनाएगा अपना 'चुनाव आयोग', लेकिन विशेषज्ञों के मन में हैं कई सवाल

Facebook Election Commission: यह 2018 में बने फेसबुक 'ओवरसाइट बोर्ड' जैसा ही हो सकता है.

क्विंट हिंदी
दुनिया
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फेसबुक (Facebook) ने घोषणा की है कि उसने वैश्विक चुनाव से संबंधित मामलों पर सलाह देने के लिए एक 'चुनाव आयोग' (Election Commission) बनाने के बारे में शिक्षाविदों और नीति विशेषज्ञों से संपर्क किया है. ये पांच विशेषज्ञों की एक ऐसी टीम होगी, जो फेसबुक को अपने कुछ राजनीतिक फैसले लेने में एक सलाहकार की भूमिका निभाएगी. आयोग राजनीतिक विज्ञापन दिखाने और चुनाव संबंधित भ्रामक जनाकारी जैसे मुद्दों पर फैसले ले सकता है.

उम्मीद है कि फेसबुक अमेरिका में होने वाले 2022 के मिड-टर्म चुनावों के मद्देनजर इस आयोग को बनाने की घोषणा करेगा.

फेसबुक को 'चुनावी मामलों के विशेषज्ञों का एक पैनल' से उन आरोपों से बचने में मदद सकती है, जिसमें फेसबुक पर हाल के सालों में कंजरवेटिव्स (Conservatives) द्वारा उनकी आवाज को दबाने का आरोप लगाया गया था. नागरिक अधिकार समूहों और डेमोक्रेट्स द्वारा गलत राजनीतिक सूचनाओं को फैलने और ऑनलाइन फैलाने की अनुमति देने का आरोप लगाया गया था.

राजनीति को लेकर विवादों में रहा फेसबुक

ये चुनाव आयोग 2018 में फेसबुक द्वारा बनाए गए 'ओवरसाइट बोर्ड' (Oversight Board) जैसा ही हो सकता है. बता दें कि 2018 में फेसबुक ने बोर्ड का गठन किया था, जिसमें पत्रकारिता, कानून और नीति विशेषज्ञ शामिल थे, जो ये तय करता था कि कंपनी द्वारा अपने प्लेटफॉर्म से कुछ पोस्ट को हटाना सही था या नहीं.

दरअसल, 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में फेसबुक के फैसलों पर कई तरह के आरोप लगे थे और कंपनी को आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था.

ओवरसाइट बोर्ड का सबसे बड़ा फैसला 6 जनवरी, 2021 को यूएस कैपिटल हिल हिंसा (US Capitol Hill Violence) के बाद डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) के फेसबुक प्रोफाइल के निलंबन की समीक्षा करना रहा था. फेसबुक ने बड़ी कार्रवाई करते हुए ट्रंप के अकाउंट को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने का फैसला किया था, जिसे ओवरसाइट बोर्ड ने "उचित नहीं" समझा था और बोर्ड ने फेसबुक को फिर से विचार करने को कहा था. जून में, फेसबुक ने जवाब दिया कि वो ट्रंप को कम से कम दो साल के लिए अपने प्लेटफार्म से बैन करेगा.

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फेसबुक हमेशा से ही अपने फैसलों को लेकर विवादों में रहा है. फिर चाहे कोविड पोस्ट से संबंधित मामला हो या म्यांमार में अभद्र भाषा या भारत में लिंचिंग आदि का मुद्दा.

कुछ मिलाकर कह सकते हैं कि फेसबुक का इस मामले में ट्रैक रिकॉर्ड कुछ अच्छा नहीं रहा है.

अब आगे हंगरी, जर्मनी, ब्राजील और फिलीपींस जैसे देशों में कई चुनाव हैं, जहां फेसबुक के रोल और फैसलों की बारीकी से समीक्षा होनी है.

फेसबुक के इस कदम पर विशेषज्ञों का क्या कहना है?

स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर नथानिएल पर्सिली ने कहा, "पहले से ही ये धारणा है कि एक अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक अन्य देशों में इसके मंच के जरिये चुनावों को प्रभावित करती रही है. फेसबुक जो भी फैसला लेता है, उसका वैश्विक प्रभाव पड़ता है."

टेक पॉलिसी प्रेस के मुताबिक,

कोलंबिया जर्नलिज्म स्कूल में सेंटर फॉर डिजिटल जर्नलिज्म की संस्थापक निदेशक, एमिली बेल का कहना है, "हालांकि ये फेसबुक को अपनी जिम्मेदारी को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकते हैं, जो फेसबुक के लिए फायदेमंद हो सकता है. लेकिन, ये फेसबुक द्वारा डिजाइन, निर्मित और भुगतान किया गया है. इसलिए ये नागरिक समाज पर केंद्रित बेहतर रेगुलेशन का कभी भी विकल्प नहीं होगा."

2018 में फेसबुक में राजनीतिक विज्ञापन के लिए इलेक्शन इंटीग्रिटी ऑपरेशन की वैश्विक प्रमुख ईसेनस्टैट ने कहा,

"मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि फेसबुक को चुनावों और लोकतंत्र के बारे में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले फैसले लेने के लिए अकेले नहीं छोड़ा जाना चाहिए, खासकर जब वो फैसले उनके प्रॉफिट मॉडल के लिए असंगत हो सकते हैं. लेकिन इस विचार के बारे में मेरी मिली-जुली भावनाएं हैं. जब मुझे 2018 में काम पर रखा गया था, तो ये विशेष रूप से सबसे ज्यादा चुभने वाले सवालों से निपटने के लिए था. लेकिन, मेरे इस सवाल को दरकिनार कर दिया गया कि हम राजनीतिक विज्ञापनों की तथ्य-जांच क्यों नहीं कर रहे थे और अंततः ये सुनिश्चित करने के लिए कि हम इन विज्ञापनों के माध्यम से मतदाता को दबाने की अनुमति तो नहीं दे रहे हैं, मुझे बाहर कर दिया गया.

इसेनस्टैट ने कहा कि उनके पास कोई कारण नहीं है कि वो फेसबुक की नीयत पर भरोसा करें.

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