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देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं से हाल-फिलहाल में जो तस्वीर आई है वो लोकतांत्रिक प्रदर्शनों के लिहाज से खतरे की 'घंटी' जैसी है. प्रदर्शनस्थलों के आसपास बिछाई गई कंटीली तारे, सड़क पर स्थायी नुकीली कील, बैरिकेडिंग की दीवारें और सैकड़ों की तादाद में पुलिसबल. ये तस्वीरें खुद-ब-खुद प्रदर्शन पर कसी जा रही नकेल की कहानी कह रही हैं.
एक तरफ दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों में ये कवायद चल रही है कि पुलिस को कैसी ट्रेनिंग मिले जिससे प्रदर्शनों में सख्ती से कैसे बचा जाएस कैसे प्रदर्शनकारियों को बिना डराए उनसे पार पाया जाए. दूसरी तरफ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की राजधानी में पुलिस प्रदर्शन पर लगाम कसने के लिए सख्त से सख्त होती जा रही है.
दिल्ली पुलिस के कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव ने इस विस्तृत सुरक्षा इंतजाम को 'बैरिकेड मजबूत' करना करार दिया है. श्रीवास्तव ने न्यूज एजेंसी आईएएनएस से बातचीत में कहा, "जब ट्रैक्टर का इस्तेमाल हुआ तो मैं हैरान था, पुलिस पर हमला हुआ, 26 जनवरी को बैरिकेड तोड़े गए, कोई सवाल नहीं पूछे गए. हमने सिर्फ बैरिकेड को मजबूत किया है ताकि ये दोबारा न तोड़े जा सकें."
किसी प्रदर्शन को लेकर इस तरह के सुरक्षा इंतजाम पहली बार देखने को मिल रहे हैं. पिछले साल हुए CAA प्रदर्शन में पुलिसिया कार्रवाई को देखते हुए दिल्ली पुलिस के इस कदम की आलोचना हो रही है.
भारत एक लोकतांत्रिक देश है और संविधान भी हर नागरिक को शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करने का अधिकार देता है. तो पुलिस के इस इंतजाम को किस तरह देखा जा सकता है? बाकी लोकतांत्रिक देशों में प्रदर्शनों से निपटने के लिए भी क्या पुलिस कटीली तार और कीले लगाती है? आज तक तो ऐसा नहीं हुआ.
पुलिसिंग सिस्टम में भीड़ को नियंत्रित करने के दो तरीके रहे हैं. पहला तरीका एस्केलेटेड फोर्स कहलाता है. इसमें ताकत का इस्तेमाल तब तक बढ़ाया जाता है, जब तक कि प्रदर्शनकारी जगह से हट न जाएं.
अमेरिका में एक तीसरा तरीका भी सामने आया है. इसे कमांड एंड कंट्रोल कहा जाता है और इसके पीछे न्यू यॉर्क सिटी पुलिस डिपार्टमेंट का दिमाग कहा जाता है. इस स्ट्रेटेजी में भीड़ का आकार बड़ा होने से पहले ही उसे बांट देने या तितर-बितर कर दिया जाता है. प्रदर्शनकारियों को जो सार्वजानिक जगह दी जाती है, उस पर पुलिस कड़ा नियंत्रण रखती है.
कोई देश किसी पॉपुलर प्रदर्शन से किस तरह निपटता है, इसका कोई एक नियम नहीं है. पुलिस किस तरह प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत करेगी या स्थिति संभालेगी, इसके लिए नियम-कायदे हो सकते हैं, लेकिन ये सरकार पर भी निर्भर करता है. उदाहरण के लिए, अमेरिका में पिछले साल जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद हुए प्रदर्शनों में पुलिस ने आंसू गैस से लेकर रबर बुलेट का इस्तेमाल किया.
एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में क्रिमिनोलॉजी के प्रोफेसर एड मैग्वायर कहते हैं कि 'जब पुलिस प्रदर्शन जैसी घटनाओं में जरुरत से ज्यादा प्रतिक्रिया देती है, तो उसका नतीजा विद्रोह और ललकार होता है.'
यूनाइटेड किंगडम में साल 2009 में G20 समिट के खिलाफ प्रदर्शन हुए थे. इसमें न्यूजपेपर वेंडर इयान टॉमलिंसन की मौत हो गई थी. इसका जिम्मेदार एक पुलिस अफसर को पाया गया था. घटना के बाद पुलिस वॉचडॉग चीफ इंस्पेक्टोरेट ऑफ कांस्टेबुलरी ने प्रदर्शनों में पुलिसिंग को लेकर नया फ्रेमवर्क जारी किया था.
जर्मनी में प्रदर्शनों की वीडियो सर्विलांस आम बात है. नाजी शासन का इतिहास रखने वाले देश ने विरोधी आवाजों को ताकत से कम ही कुचला है. कोरोना वायरस महामारी के दौरान जब चांसलर एंजेला मर्कल ने मास्क पहनना, सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन को अनिवार्य किया तो हजारों लोग सड़क पर उतर आए.
नवंबर 2020 में हजारों प्रदर्शनकारी लॉकडाउन प्रतिबंधों का विरोध कर रहे थे. सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कर रहे थे. इस दौरान पुलिस ने वॉटर कैनन और पेपर स्प्रे का इस्तेमाल किया, साथ ही लाउडस्पीकर पर लोगों से घर लौटने की अपील भी की.
जर्मनी के पड़ोसी देश फ्रांस में बात जब प्रदर्शन या भीड़ को नियंत्रित करने की हो, तो कोई भी सरकार पैरामिलिट्री या सेना को बुलाने की नहीं सोचती. फ्रांस के पास अपनी विशेष दंगा रोधी यूनिट्स हैं.
इन सभी देशों में एक बात लगभग कॉमन है, वो ये कि प्रदर्शनों की पुलिसिंग तभी होती है जब भीड़ अनियंत्रित होती दिखाई देती है. शांतिपूर्ण प्रदर्शन की घेराबंदी जैसे कदम देखने को नहीं मिलते हैं. लोकतांत्रिक देशों के संविधान लोगों को प्रदर्शन करने, विरोध जताने और आवाज उठाने के अधिकार देते हैं. शांतिपूर्ण ढंग से चल रहे आंदोलन की जैसी घेराबंदी दिल्ली में देखने को मिली है, वो सुरक्षा नहीं दमन का संदेश देती है.
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