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फांसी,जहरीला इंजेक्शन, गैस चैंबर: क्या मानवीय गरिमा के साथ मौत की सजा मुमकिन है?

मौत की सजा के किस तरीके को सबसे ज्यादा मानवीय कहा जा सकता है?

मेखला सरन
दुनिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>फांसी,जहरीला इंजेक्शन, गैस चैंबर: क्या मानवीय गरिमा के साथ मौत की सजा मुमकिन है?</p></div>
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फांसी,जहरीला इंजेक्शन, गैस चैंबर: क्या मानवीय गरिमा के साथ मौत की सजा मुमकिन है?

(फोटो- द क्विंट)

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(चेतावनी: इस लेख में मौत की सजा और सजा देते समय हुई तकलीफों का विस्तार से ब्योरा है.)

(हम साफ कर देना चाहते हैं कि द क्विंट सैद्धांतिक रूप से किसी भी और हर तरह के मृत्युदंड का, इसके क्रूर, अमानवीय और पलटे न जा सकने की प्रकृति के कारण, इसका विरोध करता है. हमारा मानना है कि जीवन के अधिकार को हर हालत में कायम रखा जाना चाहिए. इस लेख का मकसद भारत के सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर हालिया चर्चा के मद्देनजर केवल उन तमाम तरीकों पर बात करना है, जिनसे लोगों को मौत की सजा दी जाती है.)

अफ्रीकन-अमेरिकन क्लेटन लॉकेट (Clayton Lockett) का जन्म 1975 में कथित रूप से ड्रग्स लेने वाली मां के यहां हुआ था, जिसने तीन साल की उम्र में उसे एक खराब पिता के पास छोड़ दिया. 25 साल की उम्र में लॉकेट को हत्या, बलात्कार और अपहरण का दोषी ठहराया गया. 14 साल बाद अमेरिका (America) के ओक्लाहोमा राज्य के पेनिटेन्शियरी में उसने आखिरी सांस ली.

लेकिन क्लेटन लॉकेट को मौत आसानी से नहीं आई.

‘बेहोशी की दवा काम नहीं कर रही है’

क्लेटन लॉकेट की फाइल फोटो

(फोटो साभार: Twitter/Liza Sabater, Altered by The Quint)

लॉकेट की मौत की सजा, जिसे टेंथ सर्किट कोर्ट ऑफ अपील्स ने “प्रक्रियात्मक आपदा” (procedural disaster) कहा, थ्री-ड्रग प्रोटोकॉल के तौर पर सेडेटिव माइडाज़ोलाम (midazolam) के इस्तेमाल का अमेरिका में पहला मामला था.

CNN की रिपोर्ट बताती है कि मृत्युदंड के रिव्यू में पाया गया कि सजा देने वाले टीम की नाकामी की वजह से बेहोश करने की दवा न तो नसों में पहुंची न खून के बहाव में मिल सकी. हालांकि फिर भी उन्होंने उसे बेहोश घोषित कर दिया.

जैसा कि चश्मदीदों ने बताया, इसके बाद उसे बाकी दो लिक्विड दिए जाने के बाद उन्होंने लॉकेट को तड़पते, छटपटाते और कोसते हुए देखा. वह कह रहा था “दवाएं काम नहीं कर रही हैं.” आखिरकार अंतिम इंजेक्शन रोक दिया गया. माइडाज़ोलाम दिए जाने के 43 मिनट बाद लॉकेट को मरा घोषित कर दिया गया.

इस पर अमेरिका के सेफ्टी प्रोटोकॉल की समीक्षा की गई. यह जानलेवा इंजेक्शन (lethal injection) से मृत्यु दंड में गड़बड़ी का इकलौता उदाहरण नहीं है, और समस्या सिर्फ माइडाज़ोलाम के इस्तेमाल की नहीं है. तमाम किस्म की दवाओं और अलग-अलग प्रोटोकॉल के बावजूद गड़बड़ी के कई और उदाहरण हैं.

(घातक इंजेक्शन टेबल की फाइल फोटो)

(Image Courtesy: Wikimedia Commons)

1990 में इलिनोइस में मशीन की खराबी और इंसानी चूक के चलते चार्ल्स वॉकर (Charles Walker) को मृत्युदंड दिए जाने के दौरान तकलीफ का सामना करना पड़ा. 2006 में फ़्लोरिडा में एंजेल डियाज़ (Angel Diaz) उम्मीद से ज्यादा देर तक होश में रहा. शरीर में केमिकल से जलन के बाद दर्द से कराहता, खांसता रहा. उसका शरीर शांत पड़ जाता और फिर “झटके” लेने लगता.

बताया जाता है कि उसने बीच में एक बार कहा था: “यह क्या हो रहा है?”

मृत्युदंड का काम 15 मिनट में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक यह 34 मिनट चला.

अमेरिका ने जब 1980 के दशक में मौजूदा तरीकों– इलेक्ट्रिक चेयर, फांसी, जहरीली गैस और गोली मारने– में बदलाव शुरू किया, तो उन्होंने सबसे “मानवीय” (humane) जहरीले इंजेक्शन को अपनाया. लेकिन कोई चीज सचमुच कितनी मानवीय है, अगर ऊपर बताई गड़बड़ियों की संभावनाएं उसके साथ जुड़ी हैं?

ऑस्टिन सरत (Austin Sarat) ने अपनी किताब ग्रूज़म स्पेक्टेकल्स: बॉच्ड एक्ज़ीक्यूशंस एंड अमेरिकाज़ डेथ पेनल्टी (Gruesome Spectacles) में जहरीले इंजेक्शन से मृत्युदंड में गड़बड़ी की दर को 7.12% बताया है. दूसरी तरफ सरत ने इलेक्ट्रिक शॉक से मृत्यु दंड में गड़बड़ी की दर 1.92% बताई है.

बिजली का शॉक: धुआं, चिंगारी और ‘बेहद डरावने ख्याल’

जॉर्जिया (Georgia) के सुप्रीम कोर्ट ने जब मृत्युदंड के लिेए बिजली के शॉक (electrocution) पर पाबंदी लगाई तो उन्होंने विशेषज्ञ के सुझाव का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि बिजली का करंट “दिमाग को बार-बार सक्रिय कर सकता है, जिससे बेचैन करने वाला दर्द और बेहद डरावने ख्याल पैदा हो सकते हैं.”

नेब्रास्का (Nebraska) के सुप्रीम कोर्ट ने अपनी ओर से विशेषज्ञ की राय ली जिसने कहा कि इलेक्ट्रिक चेयर पर कैदी की त्वचा अधिकतम “200 डिग्री तक का तापमान” सह सकती है.

बज़फीड (Buzzfeed) की रिपोर्ट का कहना है कि चश्मदीदों ने एक कैदी के पैर से निकलने वाले धुएं के भयानक नजारे और दर्शकों के कमरे में गोश्त जलने की गंध आने की बात बताई थी.

(फोटो- कैनवा/द क्विंट)

बताया जाता है कि 1983 में अलबामा (Alabama) में जॉन इवांस (John Evans) को बिजली का पहला झटका दिए जाने के बाद उसके पैर से जुड़े इलेक्ट्रोड से चिंगारी और आग की लपटें निकलीं. फिर इलेक्ट्रोड स्ट्रैप से धमाके से अलग हो गया और जलने लगा.

उसकी मौत की सजा पर लिखे एक लेख में बताया गया है, “इवांस के सिर पर पहनाई गई टोपी से सिर के बाएं हिस्से के पास से धुआं और चिंगारी भी निकली.”

दो डॉक्टरों की टीम कमरे में घुसी तो उन्होंने उसके दिल की धड़कन चलती पाई. ऐसे में इलेक्ट्रोड को फिर से जोड़ा गया और एक और झटका दिया गया. लेकिन इस धुआंधक्कड़ और जलाने-तापने के बाद भी डॉक्टरों ने फिर से उसकी दिल की धड़कन चलती पाई. ऐसे में इवांस के वकील की गुहारों को अनसुना कर तीसरा झटका दिया गया.

बज़फीड की रिपोर्ट यह भी बताती है कि जॉर्जिया और नेब्रास्का दोनों के फैसलों में कैदी का सिर जलने की संभावना पर चर्चा की गई थी, और कहा गया थी कि सिर, गाल, कान के ऊपर और पीछे “खोपड़ी का बड़ा हिस्सा उधड़ने या ‘फिसलने' या किनारों पर स्किन खिसकने” जैसी बातें हो सकती है.

तो ऑस्टिन सरत की रिसर्च के हिसाब से गड़बड़ी के आंकड़े कम हो सकते हैं लेकिन कल्पना के किसी भी आकलन से तरीकों की क्रूरता कम नहीं हो जाती है.

गैस और गोली मारना: कैदी ‘अपने खुद के अंतिम संस्कार के लिए’ चल कर जाता है

1983 में मिसिसिपी में सांस घोंटकर (asphyxiation) से मृत्युदंड की घटना को याद करते हुए बचाव पक्ष के वकील डेविड ब्रुक ने कहा था, “रिपोर्टर जिमी ली ग्रे की कराहों की गिनती कर रहे थे और उसने गैस चैंबर (gas chamber) में एक लोहे के खंभे से सिर टकराकर अपनी जान दे दी.”

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इस मामले में सरकारी अधिकारी तय समय से पहले ही कमरे से चले गए थे. बताया जाता है कि जल्लाद शराब के नशे में था.

यहां तक कि एक और शख्स डोनाल्ड यूजीन हार्डिंग (Donald Eugene Harding) जिसे 1992 में एरिजोना में सांस घोंट कर मृत्युदंड दिया गया था, एक भयावह उदाहरण है कि यह तरीका कितना क्रूर है. एक टीवी पत्रकार कैमरन हार्पर ने इस घटना को “हिंसक मौत” और “बदनुमा घटना” बताया था.

उन्होंने कहा था, “हम जानवरों तक को इससे ज्यादा मानवीय तरीके से मारते हैं.”

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एक अखबार की रिपोर्टर कार्ला मैकक्लेन ने कहा था: “हार्डिंग की मौत बेहद हिंसक थी. उसे बहुत तकलीफ हो रही थी. मैंने उसकी सांस घुटते और कराहते सुना. मैंने देखा कि उसका शरीर लाल से जामुनी हो गया है.”

दूसरी तरफ गोली मारना हमेशा से बेरहम हिंसा, युद्ध और आतंक फैलाने के क्रूर साधनों से जुड़ा रहा है.

साउथ कैरोलिना यूनिवर्सिटी में इतिहास के जाने-माने प्रोफेसर मार्क एम. स्मिथ ने द कन्वर्सेशन (The Conversation) के लिए एक लेख में लिखा था. “हम जानते हैं कि गृह युद्ध (American Civil War) में फायरिंग स्क्वायड हमेशा हमेशा फौरन कारगर नहीं थे.”

स्मिथ ने एक फायरिंग स्क्वायड की 1864 की रिपोर्ट का जिक्र किया है, जिसमें बताया गया है कि 49वीं रेजीमेंट कलर्ड इन्फेंट्री के एक सैनिक को “पिस्तौल से गोली मारनी पड़ी, क्योंकि बंदूक के घाव से फौरन मौत नहीं हुई थी.” उन्होंने हार्पर्स वीकली (Harper’s Weekly) के 1863 के लेख का भी जिक्र किया जिसमें कहा गया था:

वे सभी (फायरिंग स्क्वायड के सामने भेजे जाने के लिए चुने गए कैदी) दिमागी तौर बहुत तकलीफ में थे, और ऐसा लग रहा था जैसे वे अपने अंतिम संस्कार के लिए आगे बढ़ रहे थे. वे शराबी की तरह लड़खड़ाते हुए अपनी मौत से मिलने जा रहे थे.

फांसी से मृत्युदंड: ‘धीमी और तकलीफदेह’ मौत या इससे भी बुरा?

अमेरिका में 19वीं सदी में ज्यादातर समय तक फांसी देना (hanging) सबसे आम तरीका था. लेकिन अमेरिका “कम असभ्य तरीके” की तलाश पूरी होने के साथ फांसी से दूर जाने लगा. 1885 में न्यूयॉर्क के गवर्नर डेविड बी हिल ने विधायिका से कहा था: “फांसी अज्ञानता के काल से मौजूदा समय तक आई है.”

“... फांसी खौफनाक हो सकती है. अगर रस्सी बहुत छोटी है तो फंदा धीरे-धीरे मुजरिम का गला घोंटेगा. अगर रस्सी बहुत लंबी है, तो गिरने का झटका मुजरिम का सिर धड़ से अलग कर सकता है.”

भारत के सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में फांसी से मृत्युदंड, जिसमें “देर तक दर्द और तकलीफ” होती है, के मौजूदा चलन को खत्म करने की मांग की गई है. याचिका में बचन सिंह बनाम पंजाब सरकार के मुकदमे में न्यायमूर्ति पीएन भगवती की असहमति की राय का हवाला दिया गया है. न्यायमूर्ति पीएन भगवती ने कहा था:

“अगर रस्सी की लंबाई बहुत कम है तो गला घोंटने में एक धीमी और तकलीफदेह मौत होगी. दूसरी ओर अगर रस्सी बहुत लंबी है तो सिर फट जाएगा.”

LiveLaw के मुताबिक याचिकाकर्ता ने ऐसे मामलों का उदाहरण दिया जिसमें मौत की सजा पाए मुजरिमों को दो दिन तक फंदे पर लटकाए रखा गया था क्योंकि गला घोंटने से वे धीरे-धीरे मरे थे.

याचिकाकर्ता ने यह भी बताया कि दूसरे देशों में मृत्युदंड के लिए फांसी को धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है. उन्होंने इसकी जगह जहरीला इंजेक्शन, गोली मारने, बिजली का करंट या गैस चैंबर जैसे विकल्प अपनाने की मांग की.

याचिका में कहा गया है

यह (फांसी से मौत) न तो जल्दी होती है, न ही मानवीय है— 30 मिनट तक शरीर तब तक लटका रहता है, जब तक डॉक्टर यह नहीं जांच लेता कि वह मर चुका है या नहीं.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कहा?

जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी को “फांसी से मौत की सजा देने, दर्द और मौत में लगने वाले समय, इसके लिए संसाधनों की उपलब्धता” पर बेहतर डेटा के साथ दोबारा आने…” के लिए कहा था.

खंडपीठ ने पूछा था, “और क्या आज का विज्ञान यह कहता है कि यह सबसे अच्छा मौजूदा तरीका है या कोई और भी तरीका है जो मानवीय गरिमा को बनाए रखने के लिए ज्यादा सटीक है?”

खंडपीठ ने मृत्युदंड के वैकल्पिक तरीकों का पता लगाने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का भी सुझाव दिया.

हालांकि यह साफ नहीं है कि सरकार, कोई भी सरकार इन सवालों का सही जवाब किस तरह ढूंढ सकती है. उदाहरण के लिए अमेरिका ने कोशिश की. लेकिन कुल मिलाकर जलता गोश्त और नाकाम इंजेक्शन के साथ उनकी कोशिश ज्यादा उम्मीद नहीं जगाती है. ऐसा ही है ना?

तो मृत्युदंड के किस तरीके को सबसे ज्यादा मानवीय कहा जा सकता है? कानूनी तौर पर किसी को मौत के मुंह में धकेलने के किस तरीके में कम से कम दर्द होने की संभावना है? क्या किसी मुजरिम को फंदे से लटकाने में मानवीय गरिमा कायम रहेगी? या उसकी नसों में जहर भर देना, या बिजली की कुर्सी पर उसके शरीर को जला देना बेहतर नतीजा देगा?

साल 2015 में CNN पर जहरीले इंजेक्शन को लेकर एक चर्चा में एनेस्थिसियोलॉजी और सर्जरी स्पेशलिस्ट डॉ. जोएल बी. जिवोट ने कहा था:

“चूंकि हम मर चुके से शख्स यह नहीं पूछ सकते हैं कि क्या यह तरीका क्रूर या दर्दरहित था, यह जानने का एकमात्र तरीका चश्मदीदों के देखे पर आधारित है.”

क्या यह बात मृत्युदंड के सभी तरीकों पर लागू नहीं होती है?

एमनेस्टी इंटरनेशनल (Amnesty International) ने मौत की सजा के खिलाफ अपने तर्क में कहा था:

लोगों को मारने के “मानवीय” तरीके की खोज में यह देखा जाना चाहिए कि यह किस लिए है– उन सरकारों के लिए जो मानवीय दिखना चाहती हैं, और कथित रूप से जिस जनता के नाम पर हत्या की जा रही है, हत्याओं को अंजाम देने वालों के लिए मृत्यु दंड को और ज्यादा स्वीकार्य बनाने की कोशिश है.

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में जस्टिस सैमुअल एलिटो ने कहा था: “यह देखते हुए कि आठवां संशोधन (Eighth Amendment) दर्द के सभी जोखिमों को पूरी तरह खत्म करने की मांग करता है, इसका मतलब मृत्युदंड को पूरी तरह खत्म कर देना होगा.”

फांसी के खिलाफ जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मौखिक टिप्पणी में कहा:

मृत्यु दंड का ऐसा कोई तरीका नहीं है, जिसकी मौत में गरिमा हो.

इसलिए अगर हम सच में सजा के किसी मानवीय और गरिमापूर्ण तरीके की तलाश कर रहे हैं, तो हमें मृत्युदंड में समाधान मिलने की कतई संभावना नहीं है, जो गुस्से से भरा देश इंसान को देता है.

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