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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 मार्च को बांग्लादेश की आजादी की 50वीं सालगिरह के जश्न में शामिल होने ढाका पहुंचे हैं. भारतीय प्रधानमंत्री का इस अहम मौके पर ढाका में होना बहुत अहम और प्रतीकात्माक है, क्योंकि 50 साल पहले बांग्लादेश के जन्म में भारत की पहली महिला पीएम इंदिरा गांधी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. 50वीं सालगिरह के मौके पर बंगाली लोगों के साहस और बांग्लादेश के लिए लड़ी गई लड़ाई को याद किया जाएगा, लेकिन इस दिन पर इंदिरा और भारतीय सेना के योगदान को याद करना भी जरूरी है.
1971 में बांग्लादेश की आजादी से पहले हुआ भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी को भारत का समर्थन देना और इस सबके बीच चली कूटनीति इंदिरा गांधी के नेतृत्व की गाथा है. 1971 का युद्ध भारत के लिए सिर्फ सैन्य जीत नहीं थी, ये राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से बहुत बड़ी सफलता थी. सिर्फ 24 साल पुराने आजाद भारत ने पाकिस्तान के ताकतवर दोस्त अमेरिका और चीन को हैरान कर दिया था.
1947 में आजादी मिलने के साथ जब भारत का बंटवारा हुआ था, तब दो पाकिस्तान अस्तित्व में आए थे. एक पश्चिमी पाकिस्तान- जिसे अब पाकिस्तान के नाम से जानते हैं और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान- जिसे अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है. दोनों पाकिस्तान की दूरी किलोमीटर में 2000 से ज्यादा और सांस्कृतिक रूप से उससे भी ज्यादा थी.
1969 में जनरल याह्या खान ने फील्ड मार्शल अयूब खान से पाकिस्तान की बागडोर अपने हाथ में ली थी और अगले साल चुनाव का ऐलान किया गया. ये आजाद पाकिस्तान के सही मायने में पहले चुनाव थे. 1970 में हुए इन चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान की आवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की 162 में से 160 सीटें जीतीं. जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) ने पश्चिमी पाकिस्तान की 138 में से 81 सीटों पर जीत हासिल की थी. बहुमत रहमान के पास था और उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए था, लेकिन पाकिस्तान के सैन्य शासन ने ऐसा होने नहीं दिया. भुट्टो ने कई हफ्तों तक मुजीबुर रहमान से बातचीत की पर जब कुछ हल नहीं निकला तो याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान में ज्यादतियां शुरू कर दीं.
भारत ने शुरुआत से ही अपना समर्थन आवामी लीग और मुजीबुर रहमान को दिया था. पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सीधे दखलंदाजी करने का फैसला नहीं लिया. हालांकि, भारतीय सेना की पूर्वी कमांड ने पूर्वी पाकिस्तान के ऑपरेशन्स की जिम्मेदारी संभाल ली थी.
15 मई 1971 को भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन जैकपॉट' लॉन्च किया और इसके तहत मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को ट्रेनिंग, हथियार, पैसा और साजो-सामान की सप्लाई मुहैया कराना शुरू किया. मुक्ति वाहिनी पूर्वी पाकिस्तान की मिलिट्री, पैरामिलिट्री और नागरिकों की सेना थी. इसका लक्ष्य गुरिल्ला युद्ध के जरिए पूर्वी पाकिस्तान की आजादी था.
1971 का युद्ध शुरू होने से पहले तक पीएम इंदिरा गांधी कई पहलुओं पर रणनीति बना चुकी थीं. उन्होंने अपने मिलिट्री जनरलों को पूरी छूट दी कि वो मुक्ति वाहिनी को अपने तरीके से तैयार करें और साथ ही खुद भी तैयार थीं- आने वाले कूटनीतिक संकट के लिए.
वो नहीं चाहती थीं कि किसी भी सूरत में भारत युद्ध शुरू करे. पाकिस्तानी एयरफोर्स के हमले ने इस बात को सुनिश्चित कर दिया था. हमले के दौरान इंदिरा कलकत्ता में थीं. वो जल्दी दिल्ली पहुंची और देश को संबोधित करते हुए कहा, "हम पर एक युद्ध थोपा गया है." इन शब्दों से हमें इंदिरा की कूटनीति की एक झलक मिलती है.
भारत का 1971 युद्ध जीतना इसलिए भी मुमकिन हो पाया क्योंकि इंदिरा के अपने सैन्य चीफ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पर भरोसा किया था. अप्रैल 1971 में इंदिरा पूर्वी पाकिस्तान के हालात देखते हुए कुछ सैन्य कदम उठाना चाहती थीं, लेकिन मानेकशॉ ने इंदिरा के मुंह पर इसके लिए मना कर दिया था. एक कैबिनेट बैठक के दौरान मानेकशॉ से इंदिरा ने 'कुछ करने के लिए कहा था', जिसके जवाब में फील्ड मार्शल ने कहा कि वो 'युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं.' मानेकशॉ ने इंदिरा को चीन के हमले की आशंका, मौसम की वजह से बाधाओं और ऐसे में सेना की सीमाओं की जानकारी दी और उनसे कुछ समय मांगा. इंदिरा ने उन पर भरोसा किया.
इंदिरा की रणनीति थी कि युद्ध छोटा हो लेकिन लंबा खिंचता है तो दुनिया को पहले से ही पाकिस्तान की करतूत पता होनी चाहिए. इसके लिए मार्च से अक्टूबर 1971 तक इंदिरा गांधी ने दुनिया के कई नेताओं को खत लिखकर भारत की सीमा पर चल रहे हालात की जानकारी दी. गांधी ने 21 दिन का जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, बेल्जियम और अमेरिका का दौरा भी किया था. हर जगह इंदिरा ने पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे नरसंहार का जिक्र किया.
भारत उस समय जवाहरलाल नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति से चलता था. हालांकि, भारत और सोवियत रूस की नजदीकी जगजाहिर थी लेकिन फिर भी इसे उसके गुट में होना नहीं कहा जा सकता. फिर भी जब 1971 में इंदिरा USSR पहुंची, तो तत्कालीन राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव ने इंदिरा को आश्वासन दिया कि अगर भारत-पाकिस्तान युद्ध होता है तो सोवियत रूस उनके साथ होगा.
जब भारत और पाकिस्तान का युद्ध शुरू हुआ तो निक्सन ने अमेरिका की सातवीं फ्लीट को बंगाल की खाड़ी में भेज दिया था. इस फ्लीट में दुनिया का सबसे बड़ा वॉरशिप भी शामिल था. निक्सन का अंदाजा था कि भारत इस कदम से घबरा जाएगा और पाकिस्तान पर भारत की कार्रवाई में कुछ ढील आएगी.
16 दिसंबर 1971 और युद्ध शुरू होने के 13 दिन बाद पाकिस्तानी सेना की पूर्वी कमांड के इंचार्ज जनरल एए खान नियाजी ने ढाका को सरेंडर कर दिया था. नियाजी ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर भारतीय सेना के पूर्वी कमांड इंचार्ज लेफ्टिनेंट जनरल जेएस अरोड़ा को सौंपकर इंस्ट्रूमेंट ऑफ सरेंडर साइन किया था. इस घटना की तस्वीर भारत के पराक्रम की गवाह बनी थी.
सरेंडर के बाद इंदिरा ने तुरंत सीजफायर का ऐलान कर दिया था. वो दुनिया को संदेश देना चाहती थीं कि भारत क्षेत्रीय लाभ नहीं कमाना चाहता है. भारत की 1971 की जीत सिर्फ सैन्य लिहाज से बड़ी नहीं थी. इंदिरा ने अपनी कूटनीति से रिचर्ड निक्सन को चतुरता में मात दी थी, रणनीति से उन्होंने सिर्फ 13 दिन में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे और मानवीयता दिखाते हुए लाखों-लाख लोग शरणार्थियों को पनाह भी दी थी.
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