Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019News Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019World Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019बांग्लादेश की कहानी:इंदिरा ने 13 दिन में पाकिस्तान को झुका दिया था

बांग्लादेश की कहानी:इंदिरा ने 13 दिन में पाकिस्तान को झुका दिया था

इंदिरा की रणनीति और नेतृत्व से पाकिस्तान के दो टुकड़े

नमन मिश्रा
दुनिया
Updated:
इंदिरा गांधी और मुजीबुर रहमान
i
इंदिरा गांधी और मुजीबुर रहमान
(फाइल फोटो: IANS)

advertisement

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 26 मार्च को बांग्लादेश की आजादी की 50वीं सालगिरह के जश्न में शामिल होने ढाका पहुंचे हैं. भारतीय प्रधानमंत्री का इस अहम मौके पर ढाका में होना बहुत अहम और प्रतीकात्माक है, क्योंकि 50 साल पहले बांग्लादेश के जन्म में भारत की पहली महिला पीएम इंदिरा गांधी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी. 50वीं सालगिरह के मौके पर बंगाली लोगों के साहस और बांग्लादेश के लिए लड़ी गई लड़ाई को याद किया जाएगा, लेकिन इस दिन पर इंदिरा और भारतीय सेना के योगदान को याद करना भी जरूरी है.

1971 में बांग्लादेश की आजादी से पहले हुआ भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी को भारत का समर्थन देना और इस सबके बीच चली कूटनीति इंदिरा गांधी के नेतृत्व की गाथा है. 1971 का युद्ध भारत के लिए सिर्फ सैन्य जीत नहीं थी, ये राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से बहुत बड़ी सफलता थी. सिर्फ 24 साल पुराने आजाद भारत ने पाकिस्तान के ताकतवर दोस्त अमेरिका और चीन को हैरान कर दिया था.

शुरुआत कहां से हुई?

1947 में आजादी मिलने के साथ जब भारत का बंटवारा हुआ था, तब दो पाकिस्तान अस्तित्व में आए थे. एक पश्चिमी पाकिस्तान- जिसे अब पाकिस्तान के नाम से जानते हैं और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान- जिसे अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है. दोनों पाकिस्तान की दूरी किलोमीटर में 2000 से ज्यादा और सांस्कृतिक रूप से उससे भी ज्यादा थी.

पश्चिमी पाकिस्तान की राजनीति में पंजाबी और उर्दू बोलने वालों का दबदबा था. वहीं, पूर्वी पाकिस्तान बंगाली भाषी था. पाकिस्तान बनने के बाद से ही भाषा और संस्कृति का ये अंतर खाई में तब्दील होने लगा था. मुद्दा सिर्फ भाषा का नहीं था. पश्चिमी पाकिस्तान में स्थित सरकार पूर्वी हिस्से की हर तरह से अनदेखी करती थी, चाहें वो आर्थिक मामला हो या उनकी राजनीतिक मांगें. 

1969 में जनरल याह्या खान ने फील्ड मार्शल अयूब खान से पाकिस्तान की बागडोर अपने हाथ में ली थी और अगले साल चुनाव का ऐलान किया गया. ये आजाद पाकिस्तान के सही मायने में पहले चुनाव थे. 1970 में हुए इन चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान की आवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की 162 में से 160 सीटें जीतीं. जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) ने पश्चिमी पाकिस्तान की 138 में से 81 सीटों पर जीत हासिल की थी. बहुमत रहमान के पास था और उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए था, लेकिन पाकिस्तान के सैन्य शासन ने ऐसा होने नहीं दिया. भुट्टो ने कई हफ्तों तक मुजीबुर रहमान से बातचीत की पर जब कुछ हल नहीं निकला तो याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान में ज्यादतियां शुरू कर दीं.

जनरल याह्या खान(फाइल फोटो: Wikimedia Commons)
मार्च 1971 तक आवामी लीग का काडर सड़कों पर था, प्रदर्शन हो रहे थे, हड़तालें चल रही थीं. पाकिस्तान की सेना खुलेआम बर्बरता कर रही थी. हमूदुर रहमान कमीशन ने मौतों का अधिकारी आंकड़ा 26,000 बताया था. लाखों-लाख शरणार्थी शरण पाने के लिए भारत चले गए थे.  

भारत के समर्थन से मजबूत हुआ पूर्वी पाकिस्तान

भारत ने शुरुआत से ही अपना समर्थन आवामी लीग और मुजीबुर रहमान को दिया था. पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सीधे दखलंदाजी करने का फैसला नहीं लिया. हालांकि, भारतीय सेना की पूर्वी कमांड ने पूर्वी पाकिस्तान के ऑपरेशन्स की जिम्मेदारी संभाल ली थी.

15 मई 1971 को भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन जैकपॉट' लॉन्च किया और इसके तहत मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को ट्रेनिंग, हथियार, पैसा और साजो-सामान की सप्लाई मुहैया कराना शुरू किया. मुक्ति वाहिनी पूर्वी पाकिस्तान की मिलिट्री, पैरामिलिट्री और नागरिकों की सेना थी. इसका लक्ष्य गुरिल्ला युद्ध के जरिए पूर्वी पाकिस्तान की आजादी था.

भारतीय सेना अभी तक खुद इस जंग में शामिल नहीं हुई थी, लेकिन दिसंबर 1971 में पाकिस्तान ने इसकी वजह दे डाली. 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी एयरफोर्स ने भारत से हमले की आशंका में पश्चिमी क्षेत्रों पर हमला कर दिया था. 4 दिसंबर की सुबह तक भारत ने आधिकारिक रूप से पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया.  
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

इंदिरा की रणनीति और नेतृत्व से पाकिस्तान के दो टुकड़े

1971 का युद्ध शुरू होने से पहले तक पीएम इंदिरा गांधी कई पहलुओं पर रणनीति बना चुकी थीं. उन्होंने अपने मिलिट्री जनरलों को पूरी छूट दी कि वो मुक्ति वाहिनी को अपने तरीके से तैयार करें और साथ ही खुद भी तैयार थीं- आने वाले कूटनीतिक संकट के लिए.

इंदिरा का 1971 युद्ध के लिए नजरिया एकदम साफ था- ये छोटा और निर्याणक हो. युद्ध लंबा खिंचने से इसमें अमेरिका और चीन जैसे देशों की दखलंदाजी का डर था. इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान का संकट शुरू होने से लेकर युद्ध तक अपना धैर्य बनाए रखा. शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही थी, कलकत्ता से पूर्वी पाकिस्तान की निर्वासित सरकार चल रही थी और भारत में विपक्ष इस सरकार को आधिकारिक पहचान देने की मांग कर रहा था. लेकिन इंदिरा ने धैर्य धारण किया.  

वो नहीं चाहती थीं कि किसी भी सूरत में भारत युद्ध शुरू करे. पाकिस्तानी एयरफोर्स के हमले ने इस बात को सुनिश्चित कर दिया था. हमले के दौरान इंदिरा कलकत्ता में थीं. वो जल्दी दिल्ली पहुंची और देश को संबोधित करते हुए कहा, "हम पर एक युद्ध थोपा गया है." इन शब्दों से हमें इंदिरा की कूटनीति की एक झलक मिलती है.

भारत का 1971 युद्ध जीतना इसलिए भी मुमकिन हो पाया क्योंकि इंदिरा के अपने सैन्य चीफ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पर भरोसा किया था. अप्रैल 1971 में इंदिरा पूर्वी पाकिस्तान के हालात देखते हुए कुछ सैन्य कदम उठाना चाहती थीं, लेकिन मानेकशॉ ने इंदिरा के मुंह पर इसके लिए मना कर दिया था. एक कैबिनेट बैठक के दौरान मानेकशॉ से इंदिरा ने 'कुछ करने के लिए कहा था', जिसके जवाब में फील्ड मार्शल ने कहा कि वो 'युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं.' मानेकशॉ ने इंदिरा को चीन के हमले की आशंका, मौसम की वजह से बाधाओं और ऐसे में सेना की सीमाओं की जानकारी दी और उनसे कुछ समय मांगा. इंदिरा ने उन पर भरोसा किया.

इंदिरा गांधी और सैम मानेकशॉ(फाइल फोटो: Pinterest)

इंदिरा की रणनीति थी कि युद्ध छोटा हो लेकिन लंबा खिंचता है तो दुनिया को पहले से ही पाकिस्तान की करतूत पता होनी चाहिए. इसके लिए मार्च से अक्टूबर 1971 तक इंदिरा गांधी ने दुनिया के कई नेताओं को खत लिखकर भारत की सीमा पर चल रहे हालात की जानकारी दी. गांधी ने 21 दिन का जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, बेल्जियम और अमेरिका का दौरा भी किया था. हर जगह इंदिरा ने पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे नरसंहार का जिक्र किया.

अमेरिका भी नहीं कर पाया पाकिस्तान की मदद

भारत उस समय जवाहरलाल नेहरू की गुटनिरपेक्ष नीति से चलता था. हालांकि, भारत और सोवियत रूस की नजदीकी जगजाहिर थी लेकिन फिर भी इसे उसके गुट में होना नहीं कहा जा सकता. फिर भी जब 1971 में इंदिरा USSR पहुंची, तो तत्कालीन राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव ने इंदिरा को आश्वासन दिया कि अगर भारत-पाकिस्तान युद्ध होता है तो सोवियत रूस उनके साथ होगा.

इससे उलट अमेरिका में तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का इंदिरा के साथ व्यवहार काफी रूखा और अशिष्ट था. निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर पहले से ही भारत के खिलाफ थे. पर इंदिरा ने इसे भी कूटनीति से जीता और संबोधन का मौका मिलने पर सीधे अमेरिकी लोगों को पूर्वी पाकिस्तान की व्यथा सुना दी. 

जब भारत और पाकिस्तान का युद्ध शुरू हुआ तो निक्सन ने अमेरिका की सातवीं फ्लीट को बंगाल की खाड़ी में भेज दिया था. इस फ्लीट में दुनिया का सबसे बड़ा वॉरशिप भी शामिल था. निक्सन का अंदाजा था कि भारत इस कदम से घबरा जाएगा और पाकिस्तान पर भारत की कार्रवाई में कुछ ढील आएगी.

भारत घबराया नहीं और सोवियत रूस से इंडो-सोवियत सुरक्षा समझौते का एक प्रावधान सक्रिय करने के लिए कहा. इस प्रावधान के मुताबिक, भारत पर हमला रूस पर हमला माना जाता. रूस ने इस निवेदन को स्वीकारा और व्लादिवोस्तोक से अपनी एक फ्लीट बंगाल की खाड़ी के लिए रवाना कर दी. रूस की फ्लीट में भी अमेरिका की तरह परमाणु हथियार शामिल थे. ब्रिटिश नेवी का भी एक समूह भारतीय क्षेत्र की तरफ बढ़ रहा था. इसे अमेरिका ने अपनी मदद और भारतीय नेवी को घेरने के लिए बुलाया था. लेकिन रूस की फ्लीट को देखकर ब्रिटिश नेवी वापस चली गई थी और अमेरिका भी कुछ नहीं कर पाया. रूस ने अपनी फ्लीट 13 दिसंबर 1971 को भेजी थी और तीन दिन बाद युद्ध का फैसला होने वाला था.  

13 दिन में युद्ध खत्म

16 दिसंबर 1971 और युद्ध शुरू होने के 13 दिन बाद पाकिस्तानी सेना की पूर्वी कमांड के इंचार्ज जनरल एए खान नियाजी ने ढाका को सरेंडर कर दिया था. नियाजी ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर भारतीय सेना के पूर्वी कमांड इंचार्ज लेफ्टिनेंट जनरल जेएस अरोड़ा को सौंपकर इंस्ट्रूमेंट ऑफ सरेंडर साइन किया था. इस घटना की तस्वीर भारत के पराक्रम की गवाह बनी थी.

जनरल एए खान नियाजी ढाका का सरेंडर देते हुए (फाइल फोटो: Wikimedia Commons)
16 दिसंबर की शाम 5 बजे जनरल सैम मानेकशॉ ने इंदिरा गांधी को फोन करके बताया कि ढाका अब मुक्त है और पाकिस्तानी सेना ने बिना शर्त सरेंडर कर दिया है. इंदिरा इसके बाद संसद गईं और कहा, “ढाका अब एक आजाद देश की राजधानी है. हम जीत के इस क्षण में बांग्लादेश के लोगों का अभिवादन करते हैं.” तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा को पाकिस्तान को हराने और उसके दो टुकड़े करने के लिए ‘अभिनव चंडी दुर्गा’ कहा था.  हालांकि, बाद में वाजपेयी ने एक इंटरव्यू में इनकार कर दिया था कि उन्होंने इंदिरा को ‘दुर्गा’ कहा था. लेकिन कई सांसद इस बात को कहते आए हैं कि वाजपेयी ने ऐसा कहा था.

सरेंडर के बाद इंदिरा ने तुरंत सीजफायर का ऐलान कर दिया था. वो दुनिया को संदेश देना चाहती थीं कि भारत क्षेत्रीय लाभ नहीं कमाना चाहता है. भारत की 1971 की जीत सिर्फ सैन्य लिहाज से बड़ी नहीं थी. इंदिरा ने अपनी कूटनीति से रिचर्ड निक्सन को चतुरता में मात दी थी, रणनीति से उन्होंने सिर्फ 13 दिन में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए थे और मानवीयता दिखाते हुए लाखों-लाख लोग शरणार्थियों को पनाह भी दी थी.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 26 Mar 2021,12:32 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT