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म्यांमार में क्यों हो रहा नरसंहार?1948 में आजादी से अब तक की कहानी

भारत का पड़ोसी देश म्यांमार एक बार फिर सैन्य शासन के बीच बड़े संकट में घिर गया है

अक्षय प्रताप सिंह
दुनिया
Updated:
म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं
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म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं
(फोटो: IANS)

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भारत का पड़ोसी देश म्यांमार एक बार फिर सैन्य शासन के बीच बड़े संकट में घिर गया है. म्यांमार में वहां की सेना ने बीते 1 फरवरी को स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची को हिरासत में लेकर तख्तापलट किया था.

इस सैन्य तख्तापलट के बाद से देशभर में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन देखने को मिले हैं. प्रदर्शनकारी लोकतांत्रिक सरकार को बहाल करने की मांग कर रहे हैं. वहीं सुरक्षाबल प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई कर रहे हैं. नतीजा यह हुआ है कि 1 फरवरी से अब तब ऐसी कार्रवाइयों में 400 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. इस सबके बीच बड़ी संख्या में म्यांमार के लोग देश छोड़ रहे हैं, जिससे एक शरणार्थी संकट भी खड़ा हो गया है.

म्यांमार के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि इस दक्षिण-पूर्व एशियाई देश ने लोकतांत्रिक सरकार हासिल करने के लिए लंबा संघर्ष देखा है, लेकिन यहां ज्यादातर वक्त शासन सेना का ही रहा है.

साल 1948 में बना आजाद देश

साल 1937 में ब्रिटेन ने म्यांमार (तब बर्मा) को भारत से अलग कर अपनी क्राउन कॉलोनी बना दिया था. इसके बाद 1942 में बर्मा पर जापान ने आक्रमण कर कब्जा कर लिया था. यह आक्रमण जापानियों की ओर से प्रशिक्षित की गई बर्मा इंडिपेंडेंस आर्मी की मदद से किया गया था. बर्मा इंडिपेंडेंस आर्मी बाद में एंटी फासिस्ट पीपल्स फ्रीडम लीग (AFPFL) में बदल गई और उसने जापानी शासन का विरोध करना शुरू कर दिया.

1945 में ब्रिटेन ने आंग सान (आंग सान सू ची के पिता) की अगुवाई में AFPFL की मदद से बर्मा को जापानी कब्जे से आजाद कराया. इसके बाद 1947 में आंग सान और उनकी अंतरिम सरकार के 6 सदस्यों की हत्या कर दी गई. ये हत्याएं आंग सान के उन विरोधियों ने की थीं, जिनकी अगुवाई यू सॉ कर रहे थे. 1948 में बर्मा आजाद देश बना और AFPFL सरकार में यू नू देश के प्रधानमंत्री बने.

आंग सान परिवार (फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

1958 में पहली बार राजनीति में सेना की एंट्री

पहली बार देश की राजनीति में सेना की एंट्री 1958 में हुई, जब AFPFL में विभाजन के बाद, चीफ ऑफ स्टाफ जनरल ने विन को अंतरिम प्रधानमंत्री के रूप में काम करने के लिए कहा गया.

जब 1949 में ने विन को चीफ ऑफ स्टाफ नियुक्त किया गया था, तो उन्हें सेना का पूरा नियंत्रण दिया गया था, जिसे उन्होंने समाजवादी लाइन के साथ पुनर्गठन किया.

साल 1960 में म्यांमार में चुनाव हुए, जिसमें यू नू विजेता बनकर उभरे, लेकिन स्टेट रिलीजन के तौर पर बौद्ध धर्म को उनके बढ़ावे और अलगाववाद के प्रति 'सहिष्णुता' ने सेना को उनके खिलाफ खड़ा कर दिया.

इसका नतीजा यह हुआ कि साल 1962 में सैन्य नेता ने विन ने तख्तापलट कर देश की बागडोर अपने हाथ में ले ली. इसके बाद उन्होंने लंबे वक्त तक जुंटा (सैन्य शासन) के जरिए देश पर शासन किया.
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अपने कार्यकाल में ने विन ने संघीय व्यवस्था को खत्म कर दिया और उन्होंने बौद्ध धर्म और समाजवाद के मिश्रण के साथ ''समाजवाद का बर्मा वाला तरीका'' लागू किया. इसके अलावा उन्होंने अर्थव्यवस्था का राष्ट्रीयकरण किया, राजनीतिक पार्टी के तौर पर सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी (SPP) बनाकर देश को सिंगल-पार्टी स्टेट में बदल दिया और आजाद अखबारों को बैन कर दिया.

साल 1974 में देश में नया संविधान लागू कर दिया गया, जिसके तहत सैन्य बलों से पावर पीपल्स असेंबली की तरफ शिफ्ट हो गई, हालांकि इसकी अगुवाई ने विन और दूसरे पूर्व सैन्य नेता ही कर रहे थे.

साल 1981 में ने विन ने रिटायर्ड जनरल सान यू के लिए राष्ट्रपति पद छोड़ दिया, हालांकि वह SPP के चेयरमैन बने रहे.

उस वक्त बर्मा सुस्त अर्थव्यवस्था और अनियंत्रित महंगाई से जूझते हुए ने विन की विनाशकारी नीतियों की कीमत चुका रहा था.

1987 में भड़के सरकार-विरोधी दंगे

जब साल 1987 में करेंसी डिवैल्युएशन (मुद्रा अवमूल्यन) की वजह से बहुत से लोगों ने अपनी बचत गंवा दी तो बड़े पैमाने पर सरकार-विरोधी दंगे शुरू हो गए. इन दंगों में हजारों लोग मारे गए.

जब तक साल 1988 में ने विन ने SPP के चेयरमैन पद से इस्तीफा दिया, तब तक बर्मा की आर्थिक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि संयुक्त राष्ट्र ने इसे "सबसे कम विकसित देशों'' में से एक घोषित कर दिया.

साल 1988 में देश में जुंटा के खिलाफ शुरू हुए लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों के बीच स्टेट लॉ एंड ऑर्डर रीस्टोरेशन काउंसिल (Slorc) का गठन हुआ.

इसके बाद 1989 में Slorc ने मार्शल लॉ का ऐलान किया, हजारों लोगों को गिरफ्तार किया, इनमें वो लोग भी शामिल थे जो लोकतंत्र और मानवाधिकारों की वकालत कर रहे थे. इसी साल बर्मा के नाम को बदलकर म्यांमार और उस वक्त की राजधानी रंगून के नाम को बदलकर यंगून कर दिया गया.

सू ची को किया गया नजरबंद

1989 में ही, म्यांमार की आजादी के नायक रहे आंग सान की बेटी और नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) नेता आंग सान सू ची को नजरबंद कर दिया गया, जो जुंटा की खुलकर आचोलना कर रही थीं.

इसके बाद 27 मई 1990 का वो दिन भी आया जब देश में आम चुनाव हुए, जिनमें NLD को जबदस्त जीत हासिल हुई, लेकिन सेना ने उसे सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया. अक्टूबर 1991 में सू ची को सैन्य शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण संघर्ष के लिए नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

साल 1992 में थान श्वे, सॉ मुआंग की जगह जुंटा के प्रमुख बने. यह वो वक्त था, जब जुंटा पर दबाव बढ़ रहा था कि वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर म्यांमार की छवि में सुधार करे. इसी क्रम में 1992 में कई राजनीतिक कैदियों को रिहा किया गया था.

सू ची को भी आखिरकार 1995 में करीब 6 साल की नजरबंदी के बाद रिहा किया गया. हालांकि इसके बाद भी उनकी आवाजाही पर कुछ प्रतिबंध जारी रहे. ऐसे में सितंबर 2000 में जब उन्होंने इन प्रतिबंधों को तोड़कर मंडालय शहर जाने की कोशिश की तो उन्हें फिर से नजरबंद कर दिया गया. इसके बाद मई 2002 में सू ची को नजरबंदी से रिहा किया गया.

फिर 2003 में जब जुंटा और NLD के समर्थकों के बीच हिंसक झड़प हुई तो सू ची को कैद कर लिया गया. हालांकि बाद में उन्हें घर जाने दिया गया, लेकिन नजरबंद रखा गया. इसके बाद कई बार उनकी नजरबंदी की समयसीमा को आगे बढ़ा दिया गया.

साल 2010 तक हाल यह था कि सू ची करीब2 दशक में 14 साल से ज्यादा वक्त नजरबंदी या कैद के तहत गुजार चुकी थीं.

2010 में हुए चुनाव, USDP ने किया जीत का दावा

साल 2007 में फ्यूल की ऊंची कीमतों और सरकार विरोधी नई लहर के बीच एक बार फिर से प्रदर्शन होते दिखे, जिसमें बौद्ध भिक्षु भी शामिल थे. इस दौरान भी बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं.

2007 के प्रदर्शन की एक तस्वीर(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

इसके बाद नवंबर 2010 में म्यांमार में 2 दशक में पहली बार चुनाव हुए जिनमें सेना के समर्थन वाली यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डिवेलपमेंट पार्टी (USDP) ने जीत का दावा किया. हालांकि विपक्ष ने इस चुनाव में धांधली के आरोप लगाए. मगर जुंटा ने इन चुनाव को सैन्य शासन से एक नागरिक लोकतंत्र की तरफ ट्रांजिशन का प्रतीक बताया.

चुनाव के बाद आखिरकार 13 नवंबर 2010 को सू ची को रिहा किया गया, जिनको चुनाव में हिस्सा लेने से रोक दिया गया था.

मार्च 2011 में थेन सेन ने नाममात्र की नागरिक सरकार में राष्ट्रपति के तौर पर शपथ ली. साल 2012 में सू ची उपचुनाव में जीत हासिल कर संसद पहुंचीं, वह पहली बार किसी सार्वजनिक पद पर काबिज हुईं.

2012 उपचुनाव के चुनाव प्रचार के दौरान सू ची (फोटो: विकीपीडिया)

आखिरकार सत्ता में आई NLD

लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए लंबे संघर्ष के बाद म्यांमार के इतिहास में नवंबर 2015 का वो वक्त भी दर्ज हुआ, जब 1990 के बाद पहली बार स्वतंत्र रूप से हुए आम चुनाव में सू ची की पार्टी NLD को भारी जीत मिली.

हालांकि इसके बाद भी सेना ने संविधान के तहत प्रमुख शक्तियां अपने पास रखीं, जिसमें सू ची को राष्ट्रपति पद से दूर रखना शामिल था. ऐसे में सरकार के नेतृत्व के लिए स्टेट काउंसलर का पद बनाया गया और सू ची इस पर काबिज हुईं.

मगर सू ची के शासनकाल में भी म्यांमार के लिए सब कुछ ठीक नहीं रहा. अगस्त 2017 में पश्चिमी रखाइन राज्य में सैन्य चौकियों पर रोहिंग्या चरमपंथियों के हमले हुए, जिसमें दर्जनों मौतें हुईं. इसके जवाब में सेना ने रोहिंग्या मुसलमान आबादी के खिलाफ भीषण कार्रवाई करते हुए पटलवार किया, जिससे इस समुदाय के हजारों लाखों लोग बांग्लादेश भाग गए.

इस बीच, सेना पर रोहिंग्याओं के ‘नरसंहार’ के आरोप लगने लगे और उसकी हिंसक कार्रवाई को लेकर दुनियाभर में म्यांमार की आलोचना होने लगी.

हालांकि, 11 दिसंबर 2019 को सू ची ने हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय अदालत में एक मामले में सेना का बचाव करते हुए नरसंहार की बात से इनकार किया.

नवंबर 2020 को म्यांमार में एक बार फिर संसदीय चुनाव हुए. इसमें NLD को 476 में से 396 सीटों पर जीत हासिल हुई, जिससे सू ची को पांच और सालों के लिए सरकार बनाने का मौका मिल गया था. सेना के समर्थन वाली पार्टी USDP को इस चुनाव में महज 33 सीटों पर जीत मिली. इसके बाद सेना ने सार्वजनिक रूप से चुनाव में धांधली के आरोप लगाना शुरू दिया. फिर आखिरकार 1 फरवरी को सेना ने इतिहास दोहराकर तख्तापलट कर दिया. इस तख्तापलट के बाद म्यांमार की सत्ता कमांडर-इन-चीफ ऑफ डिफेंस सर्विसेज मिन ऑन्ग लैंग के हाथों में आ गई है.

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Published: 30 Mar 2021,11:03 PM IST

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