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रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध (Russia Attack on Ukraine) का सबसे बड़ा कारण नाटो (NATO) को लेकर रूस की चिढ़ को माना जा रहा है. आज से 73 साल पहले 1949 में जन्मे इस संगठन नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन यानी NATO (North Atlantic Treaty Orgnization) से रूस शुरू से ही चिढ़ता रहा है. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन (Vladimir Putin) ने तो नाटो देशों को रूस यूक्रेन के मामले से दूर रहने की चेतावनी तक दे डाली थी. आइए यहां ऐसे पांच बड़े कारणों पर गौर करें जो रूस के नाटो (NATO) से चिढ़ने की प्रमुख वजह माने जाते हैं.
रूस के इस संगठन से नफरत करने का सबसे पहला कारण यही है कि इसका निर्माण ही तत्कालीन सोवियत संघ की विस्तारवादी हसरत पर लगाम लगाने के लिए किया गया था. जब द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भी सोवियत संघ की सेनाएं ईस्टर्न यूरोप में डटी रही और बर्लिन को कब्जाने का मंसूबा लेकर उसे घेरे रहीं, तब अमेरिका ने सोवियत संघ के इरादों काे निष्क्रिय करने यूरोप के प्रभावशाली देशों को अपनी ओर मिलाया. इन सबसे मिलकर बने संगठन को ही नाटो का नाम दिया गया. उस समय इस संगठन में 12 देश शामिल हुए थे, जिनकी अगुवाई अमेरिका कर रहा था. ये देश थे फ्रांस, बेल्जियम, ब्रिटेन, इटली, कनाडा, नीदरलैंड, नॉर्वे, डेनमार्क, आइसलैंड, पुर्तगाल और लक्जमबर्ग. नाटो को शुरू से ही एक सैनिक गठबंधन के तौर पर बनाया गया था, जिसका उद्देश्य इसके सदस्य देशों पर किसी अन्य देश के हमले के दौरान सैन्य कार्रवाई करना था.
पुतिन का नाटो से चिढ़ने का दूसरा सबसे बड़ा कारण है, उसकी तुलना में नाटो की बहुत बड़ी सैन्य ताकत और असीमित रक्षा खर्च. ग्लोबल फायर पावर की रिपोर्ट के अनुसार नाटो के पास इस समय 33.58 लाख सैनिक शामिल हैं, जिनमें से 40 हजार के आसपास सैनिकों को वह तत्काल युद्ध के मैदान में उतार सकता है. पिछले साल तक नाटो के सदस्य देशों ने नाटो की सैन्य शक्ति के लिए संयुक्त तौर पर 1174 अरब डॉलर से ज्यादा की राशि खर्च की थी, वहीं 2 साल पहले 2020 में नाटो का संयुक्त रक्षा खर्च 1106 अरब डॉलर था. इसकी तुलना रूस नाटो से पीछे पड़ता है. उसके पास कुल 12 लाख जवानों वाली सेना है जिसमें से 8.30 लाख जवान सक्रिय आर्मी में शामिल हैंं.बाकी के 3.50 लाख जवानों की उसके पास रिजर्व फोर्स है.
साल 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तब उससे टूटकर 15 नए देश बने. उज़्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, यूक्रेन, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, कजाखस्तान, लिथुआनिया, लातविया, माल्डोवा, रूस, आर्मीनिया, जॉर्जिया, अज़रबैजान, एस्टोनिया और बेलारूस. सोवियत संघ से अलग होने के बाद भी इन देशों के मध्य यह बाध्यता थी कि वे सोवियत से पूर्व में जुड़े राज्यों के खिलाफ दुश्मनी वाले, विरोध वाले, उकसावे वाले कोई कदम नहीं उठाएंगे. परंतु बाद में अमेरिका के नेतृत्व वाला नाटो सोवियत से टूटे इन देशों पर ही डोरे डालने लगा.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब नाटो की ओर से सोवियत संघ को कड़ी चुनौती मिलने लगी, तो साल 1955 में सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, रोमानिया, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी और बुलगारिया जैसे देशों को अपने साथ मिलाकर वारसा की संधि की. इस संधि में तय किया गया कि इस संधि को करने वाले सदस्य देश नाटो के सदस्य देशों को यूरोप में पैर नहीं फैलाने देंगे और उनके मुकाबले में खड़े रहेंगे. बाद में जब सोवियत संघ टूटा तो वारसा की संधि में शामिल 14 देशों को नाटो का सदस्य बना लिया गया इससे रूस तिलमिला उठा था.
नाटो से रूस की नफरत का हालिया और संभवत: सबसे बड़ा कारण रहा यूक्रेन की उससे जुड़ने की पहल रही. रूस का कहना है कि यूक्रेन 1917 से पहले रूसी शासन का हिस्सा था. आज भी यूक्रेन के पूर्वी भाग में रहने वाले लोग खुद को रूसी कहते हैं और रूस की परंपराओं का ही पालन करते हैं. इसी हिस्से पर रूस ने अलगाववादियों को समर्थन दे रखा है. यूक्रेन के जिन दो हिस्सों डोनेट्स्क (Donetsk) और लुहान्स्की (Luhansk) को रूस ने अलग देश का दर्जा दिया है, वह भी इसी हिस्से में हैं. यहीं के हिस्से क्रीमिया को उसने 2014 में कब्जा लिया था. अब जो देश रूस की इतनी तगड़ी पकड़ में आ चुका हो और उसे नाटो अपने अपने चंगुल में लेने की कोशिश करे तो रूस का भड़कना स्वाभाविक था.
यूक्रेन के नाटो में शामिल होने के अपने कारण हैं. उसकी आर्मी दो लाख सैनिकों की उसकी आर्मी रूस की बेहद बड़ी सेना के मुकाबले कहीं भी नहीं है ऐसे में वह नाटो में जुड़ कर खुद के प्रति रूस की आक्रामकता को कम करने का प्रयास कर रहा था पर हुआ उल्टा ही इससे रूस और ज्यादा भड़क गया. यूक्रेन रूस के साथ 2200 किमी की सीमा शेयर करता है. रूस चिंतित है कि यूक्रेन के NATO से जुड़ने पर उसकी कैपिटल मॉस्को से केवल 640 किलोमीटर दूर तक नाटो की तैनाती हो जाएगी. वह यह असुरक्षा कभी नहीं चाहता.
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