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नेपाल में कोरोना कहर के बीच कैसे आया सियासी संकट? पूरी कहानी

नेपाल में संसद का निचला सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स भंग कर दिया गया है

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केपी शर्मा ओली और विद्या देवी भंडारी
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केपी शर्मा ओली और विद्या देवी भंडारी
(फोटो: IANS)

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नेपाल में संसद के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स के भंग होने से एक नया संकट खड़ा हो गया है. राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने निचले सदन को भंग करने और और मिड-टर्म चुनाव की तारीखों का ऐलान किया है. ये चुनाव 12 और 19 नवंबर को होंगे.

नेपाल में यह घटनाक्रम ऐसे वक्त में हुआ है, जब वहां कोरोना वायरस पैर पसार रहा है, वैक्सीन और जरूरी चिकित्सकीय सामानों की भारी किल्लत की खबरें सामने आ रही हैं.

सदन भंग करने से पहले राष्ट्रपति ने माना कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और विपक्षी गठबंधन, दोनों सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं.

भंडारी की इस घोषणा से पहले ओली ने शुक्रवार-शनिवार की रात को मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद 275 सदस्यीय सदन को भंग करने की सिफारिश की थी.

राष्ट्रपति कार्यालय से जारी प्रेस रिलीज में बताया गया है कि संसद को भंग कर दिया गया है और नेपाल के संविधान के आर्टिकल 76 (7) के आधार पर मध्यावधि चुनाव की तारीखों की घोषणा की गई है.

शुक्रवार को ओली और देउबा ने पेश किए थे दावे

प्रधानमंत्री ओली और विपक्षी नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने नई सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए राष्ट्रपति की ओर से राजनीतिक दलों को दिए गए शुक्रवार शाम पांच बजे तक के समय से कुछ वक्त पहले ही अपने-अपने दावे पेश किए थे.

ओली ने दावा किया था कि उन्हें हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स में 153 सदस्यों का समर्थन हासिल है. वहीं, नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने 149 सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था. इन दावों पर इसलिए सवाल उठ रहे थे कि दोनों पक्षों के आंकड़ों की कुल संख्या हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स के मौजूदा संख्याबल 271 से ज्यादा हो रही थी.

नेपाली मीडिया की खबरों के मुताबिक, ओली और देउबा दोनों ने ऐसे कुछ सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था जिनके नाम उन दोनों की लिस्ट में शामिल थे.

ओली ने अपने दावे से एक दिन पहले ही राष्ट्रपति भंडारी से सिफारिश की थी कि नेपाल के संविधान के आर्टिकल 76 (5) के अनुरूप नई सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाए. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, तब उन्होंने एक और शक्ति परीक्षण के लिए अनिच्छा जाहिर की थी.

बता दें कि ओली सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष हैं. उन्होंने 14 मई को तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी.

राष्ट्रपति भंडारी ने ओली (69) को 13 मई को फिर से प्रधानमंत्री नियुक्त किया था, जब विपक्षी पार्टियां नई सरकार बनाने के लिए संसद में बहुमत हासिल करने में नाकाम रही थीं. इससे तीन दिन पहले ओली हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स में अहम विश्वास मत हार गए थे.

ओली को नई सरकार चलाने के लिए सदन में बहुमत साबित करने को 30 दिन का वक्त मिला था. उनकी पार्टी सीपीएन-यूएमएल 121 सीटों के साथ हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स में सबसे बड़ी पार्टी थी, जबकि सदन के मौजूदा संख्याबल के हिसाब से सरकार बनाने के लिए 136 सीटों की जरूरत थी.

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पिछले साल शुरू हुआ था राजनीतिक संकट

नेपाल में हालिया राजनीति संकट पिछले साल 20 दिसंबर को तब शुरू हुआ था, जब राष्ट्रपति भंडारी ने प्रधानमंत्री ओली की अनुशंसा पर संसद के निचले सदन को भंग कर 30 अप्रैल और 10 मई को नए सिरे से चुनाव कराने का ऐलान किया था.

इस पर, तत्कालीन सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी यानी एनसीपी के एक हिस्से ने और नेपाली कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने अपना विरोध दर्ज कराया था.

उस वक्त एनसीपी में अंदरूनी कलह चरम पर पहुंच जाने के बाद संसद के निचले सदन को भंग करने का कदम उठाया गया था. दरअसल एनसीपी में दो गुटों के बीच महीनों से सत्ता के लिए रस्साकशी चल रही थी, जिनमें से एक गुट का नेतृत्व ओली, जबकि दूसरे गुट का नेतृत्व पुष्पकमल दहल प्रचंड कर रहे थे. बता दें कि ओली की सीपीएन-यूएमएल और प्रचंड की सीपीएन-माओवादी सेंटर के 2018 में विलय के बाद एनसीपी का गठन हुआ था.

एनसीपी की कलह तब खुलकर सामने आ गई थी, जब प्रचंड ने आरोप लगाया था कि ओली पार्टी से परामर्श किए बिना सरकार चला रहे हैं. जबकि ओली ने इस आरोप को खारिज किया था और प्रचंड को पार्टी के मामलों को संभालने में असहयोग करने के लिए जिम्मेदार ठहराया था.

इसके बाद ओली को तब बड़ा झटका लगा था, जब फरवरी में, देश की शीर्ष अदालत ने हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स को बहाल कर दिया था.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नेपाल का राजनीतिक संकट तब गहरा गया, जब सीपीएन-माओवादी सेंटर की ओर से 5 मई को आधिकारिक रूप से समर्थन वापस लेने के बाद ओली सरकार ने अपना बहुमत खो दिया.

प्रचंड की पार्टी ने अपने इस फैसले के पीछे की दलील देते हुए ओली सरकार पर संविधान के उल्लंघन करने का आरोप लगाया था. सीपीएन-माओवादी सेंटर ने कहा था कि सरकार की गतिविधियों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए खतरा पैदा किया है. उस वक्त सीपीएन-माओवादी सेंटर के पास संसद के निचले सदन में कुल 49 सांसद थे.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, सीपीएन-माओवादी सेंटर के समर्थन वापस लेने के बाद ओली सरकार बचाने के लिए शेर बहादुर देउबा के बूढानीलकंठ स्थित आवास भी पहुंचे थे.

(PTI के इनपुट्स समेत)

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Published: 22 May 2021,11:12 AM IST

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