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उन्हें लाइमलाइट से कोई दूर नहीं रख सकता.
देश के वित्तीय संकट को हल करने में उनकी विफलता के बावजूद रानिल विक्रमसिंघे (Ranil Wickremesinghe) को 20 जुलाई को संसद द्वारा आठवें राष्ट्रपति के तौर पर चुना गया. इससे पहले श्रीलंका के छह बार के प्रधान मंत्री रह चुके रानिल राष्ट्रपति चुनाव में दो बार हार का मुंह देख चुके हैं. राष्ट्रपति चुनाव में जीत हासिल करने से पहले वे (विक्रमसिंघे) श्रीलंका के मौजूदा कार्यवाहक राष्ट्रपति थे.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार 73 वर्षीय रानिल ने अपने बयान में कहा "इस सम्मान के लिए मैं संसद को धन्यवाद देता हूं."
वहीं संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा "अब हमारे मतभेद खत्म हो गए हैं."
प्रदर्शनकारियों ('GotaGoGama' एक्टिविस्ट्स) द्वारा जो प्रमुख मांगे रखी गईं थीं उनमें से एक मांग यह भी थी कि विक्रमसिंघे और पूर्व राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे दोनों इस्तीफा दें. (नीचे संलग्न पैम्फलेट में जो पॉइंट्स दर्शाए गए हैं उनमें से दूसरे नंबर वाले को देखें.)
इस्तीफा देने की बात तो दूर इस समय वह (रानिल) देश के सबसे ताकतवर शख्स हैं.
23 जून 2021 को विक्रमसिंघे ने संसद सदस्य के तौर पर शपथ ली थी. इस चुनाव में रानिल की यूनाइटेड नेशनल पार्टी (कभी श्रीलंका की राजनीति में जिसने अपना दबदबा बना रखा था) को अपनी अब तक की सबसे बुरी हार का सामना पड़ा था. यूएनपी (यूनाइटेड नेशनल पार्टी) के खाते में महज 2.15 फीसदी वोट गए थे. यूएनपी की ओर से रानिल विक्रमसिंघे एकमात्र संसदीय प्रतिनिधि थे.
श्रीलंका में आर्थिक उथल-पुथल के बीच मई 2022 में तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे द्वारा विक्रमसिंघे को छठवीं बार प्रधान मंत्री के तौर पर फिर से नियुक्त किया गया था.
इसके बाद, 9 जुलाई 2022 (जिस दिन प्रदर्शनकारियों ने गोटबाया के घर पर अचानक से धावा बोला था ) को विक्रमसिंघे ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी. इसी दिन प्रदर्शनकारियों ने विक्रमसिंघे के घर को भी आग के हवाला कर दिया था.
इसके बाद श्रीलंका में संवैधानिक संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई, जिसकी मांग यह थी कि संसद एक नए राष्ट्रपति का चुनाव करे. 20 जुलाई को तीन मुख्य प्रतिद्वंद्वियों -विक्रमसिंघे, अनुरा कुमारा दिसाना (जनता विमुक्ति पेरामुना के नेता) और दुल्लास अल्हाप्पेरुमा (राजपक्षे की पार्टी, श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना)- के बीच राष्ट्रपति पद के लिए मुकाबला हुआ.
श्रीलंका के लोगों बीच इतनी ज्यादा नाराजगी होने के बावजूद 'द फॉक्स' ने संसद में 134 वोट हासिल करते हुए देश के अगले राष्ट्रपति के तौर पर अपनी पोजीशन को सुरक्षित कर लिया.
1970 के दशक में विक्रमसिंघे ने राजनीति में कदम रखा था. महज 28 साल की उम्र में उन्हें विदेश मामलों का उपमंत्री बनाया गया था. यही वजह थी कि विक्रमसिंघे देश (श्रीलंका) के राजनीतिक इतिहास में इस तरह के वरिष्ठ पद को संभालने वाले सबसे कम उम्र के लोगों में से एक बन गए थे.
लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री रणसिंघे प्रेमदासा की हत्या के बाद 1993 में विक्रमसिंघे को पहली बार देश का प्रधान मंत्री नियुक्त किया गया था.
हालांकि उनका पहला कार्यकाल एक वर्ष से थोड़ा अधिक समय तक ही रहा था. 2002 में पीएम के तौर पर उनका दूसरा कार्यकाल शुरु हुआ, जब उन्होंने फ्रंट से अपनी पार्टी का नेतृत्व किया और देश में हुए आम चुनाव में भारी भरकम जीत हासिल की थी.
उस समय विक्रमसिंघे का मुख्य काम युद्धग्रस्त राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन जुटाना था. उनकी अंतर्राष्ट्रीय पहुंच का ही परिणाम था कि श्रीलंका को विकास सहायता के लिए 4 बिलियन डॉलर से अधिक की राशि प्राप्त हुई थी.
विक्रमसिंघे को दो बार राष्ट्रपति चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा है और उनकी वजह से पार्टी को लंबे समय तक चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है. इसकी वजह से उनके नाम के साथ "रिकॉर्ड हारने वाले" ("record loser") का टैग भी जुड़ गया, उन्हें यह टैग देने वालों में उनके कुछ समर्थक भी शामिल थे.
इस दौरान उन्होंने लिट्टे के साथ शांति वार्ता भी शुरू की थी और लिट्टे नेता वेलुपिल्लई प्रभाकरन के साथ सबसे महत्वपूर्ण युद्धविराम पर हस्ताक्षर किए. इसके लिए उनकी काफी प्रशंसा भी हुई थी. हालांकि राष्ट्रपति के साथ खींचतान होने की वजह से 2004 में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था.
महिंदा राजपक्षे को हराने के बाद 2015 में जब मैत्रीपाला सिरिसेना श्रीलंका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने विक्रमसिंघे को प्रधान मंत्री नियुक्त किया. सिरिसेना और विक्रमसिंघे की पार्टियों के बीच हुए एक एमओयू के आधार पर प्रधान मंत्री की नियुक्ति हुई थी.
हालांकि, बढ़ते कर्ज और अर्थव्यवस्था में मंदी के दौरान अक्टूबर 2018 में सिरिसेना द्वारा उन्हें (विक्रमसिंघे को) पीएम पद से हटा दिया गया था और उनकी जगह पीएम की गद्दी पर महिंदा को बैठाया गया.
विक्रमसिंघे द्वारा इस फैसले को देश के सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में चुनौती दी गई थी. इसकी वजह से संवैधानिक गतिरोध पैदा हो गया और अंतत: 2018 के अंत तक प्रधान मंत्री के तौर पर फिर से उन्हें लौटते हुए देखा गया.
एक कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवादी समूह द्वारा यह हमला किया गया था, श्रीलंका में सिविल युद्ध समाप्त होने के बाद से इस हमले को सबसे भयानक और भीषण घटना माना गया. इसकी वजह से श्रीलंका में प्रभावी तौर पर एक ठहराव आया था.
सरकार की ओर से "खुफिया विफलता" (इंटेलिजेंस फेल्योर) और सिरीसेना-विक्रमसिंघे के बीच "मिस कम्युनिकेशन" को हमले के लिए दोषी ठहराया गया था. हमले के बाद 2019 उन्होंने (विक्रमसिंघे ने) पीएम के पद से इस्तीफा दे दिया था.
इस बार उन्हें अर्थव्यवस्था को ठीक करना है और प्रदर्शनकारियों को शांत करना है.
यह किसी से भी छिपा नहीं है कि श्रीलंका के लोग भोजन के लिए तरस रहे हैं और उन्हें ईंधन खरीदने के लिए घंटों तक लंबी लाइन में खड़ा रहना पड़ रहा है. वहां स्थिति (खास तौर पर ईंधन की) इतनी खराब है कि जून के अंत में सरकार को गैर-जरूरी उपयोगों के लिए बिक्री को रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा.
यूएन फूड प्रोग्राम (संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम) का कहना है कि श्रीलंका में 10 में से 9 परिवार भोजन छोड़ने को मजबूर हैं या अपने भोजन में कमी कर रहे हैं. जबकि 30 लाख लोगों को आपातकालीन मानवीय सहायता दी जा रही है.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार वहां खाद्य कीमतों में लगभग 60% की वृद्धि हुई है, वहीं पर्यटन सेक्टर वित्तीय संकट शुरू होने के पहले से ही बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रहा है. इसके अलावा देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की कमी बनी हुई है.
इन सबसे बढ़कर, श्रीलंकाई उनसे (विक्रमसिंघे से) या राजपक्षे से खुश नहीं हैं. सत्ता में उनकी वापसी होने से विरोध प्रदर्शन की चिंगारी का भड़कना तय है. विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति चुने जाने के तुरंत बाद एक युवा कार्यकर्ता ने क्विंट से कहा कि :-
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