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USA और सऊदी अरब: तेल की दोस्ती,तेल पर हो गई रार-क्यों OPEC+ से अमेरिका नाराज?

Saudi Arab Vs USA: कैसे महज 90 साल में तेल के दम पर सऊदी अरब जैसा 'छोटा देश' इतना ताकतवर बना?

सुदीप्त शर्मा
दुनिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Joe Biden और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस</p></div>
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Joe Biden और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस

(फोटो- पीटीआई)

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यूरोप और श्वेत बहुल देशों से इतर अगर अमेरिका का कोई सबसे लंबे वक्त का 'साथी' रहा है, तो वो सऊदी अरब है. दोनों देशों के संबंध पेट्रोलियम और तकनीक से नियंत्रित होते रहे हैं. लेकिन ओपेक प्लस के मुद्दे पर अब दोनों देशों में रार छिड़ चुकी है.

सवाल उठता है कि आधुनिक दौर में इस 'सबसे पुरानी दोस्ती (Saudi Arab And USA Friendship)' के लिए आगे की राह क्या हो सकती है? इसका जवाब खोजने के लिए हमें अतीत के पन्नों और इनके साझा हितों की तरफ नजर घुमानी होगी.

बता दें अमेरिका में यह मांग तेज हो रही है कि सऊदी अरब पर कठोर कार्रवाई की जाए. इस कठोर कार्रवाई के तहत सऊदी अरब को मिलने वाली अमेरिकी सैन्य और तकनीकी मदद पर रोक लगाई जाए. यमन संघर्ष से लेकर ईरान के साथ विवाद में फंसे सऊदी अरब के लिए अमेरिकी सैन्य और तकनीकी मदद बेहद अहम हैं, जो अरब क्षेत्र में सऊदी प्रभुत्व को बनाए रखने की रणनीति का एक अहम स्तंभ है.

दूसरी तरफ कई सीनेटर्स ने यह मांग भी की है कि सऊदी अरब पर अमेरिकी कोर्ट में मुकदमा चलाया जाए, जिसमें खागोशी से लेकर कई वित्तीय मामले शामिल हैं.

सऊदी अरब- घूमंतु कबीलों के देश से पावर हाउस बनने का सफर और अमेरिकी भूमिका

आज जहां सऊदी अरब है, वहां करीब 90 साल पहले चार गुमनाम राज्य हुआ करते थे- हेजाद, नज़्द, अल अहसा (पूर्वी सऊदी अरब) और दक्षिण अरब (असीर). आज के सऊदी अरब को संगठित करने का श्रेय जाता है नज्द के अमीर रहे इब्न सऊद (अब्दुल अजीज अब्दुल रहमान अल सऊद) को, उन्होंने 1932 तक चारों राज्यों को जीतकर आज के सऊदी अरब की स्थापना की. इस तरह अरब दुनिया का दूसरे सबसे बड़ा देश (अल्जीरिया के बाद) और एशिया के पांचवा सबसे बड़ा देश अपने अस्तित्व में आया.

इब्न अगले 20 साल देश के राजा रहे. उन्हीं के दौर में 1938 में पहली बार सऊदी अरब के पूर्वी हिस्से में तेल की खोज हुई, बस यहीं से इस गुमनाम रेतीले, पहाड़ी और बंजर इलाके की किस्मत बदलनी शुरू हो गई.

किसने खोजा सऊदी में तेल?

दरअसल सऊदी में तेल की खोज का श्रेय अमेरिकियों को जाता है. उस दौर में उन्नत तकनीक भी अमेरिकी कंपनियों के पास थी. इसलिए साझा उपक्रम के तौर पर 1944 में अमेरिकी कंपनियों को सऊदी तेल कुओं पर बड़ी छूटें दी गई, जिनका अमेरिकियों ने खुद की ताकत को बढ़ाने में बखूबी इस्तेमाल किया.

भले ही सऊदी अरब के पास दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा तेल का भंडार हो, लेकिन अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे बड़ा पेट्रोलियम उत्पादक देश है. हालांकि इससे सऊदी और अरब तेल पर अमेरिकी निर्भरता कम नहीं हुई. आज भी तेल का सबसे बड़ा निर्यातक सऊदी अरब ही है.

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ओपेक प्लस और ताजा विवाद

ओपेक प्लस में तेल उत्पादक देश शामिल हैं. यह संगठन तेल की आपूर्ति पर सामूहिक निर्णय लेता है. पिछले हफ्ते संगठन ने अपने उत्पादन में 20 लाख बैरल प्रति दिन की कटौती करने का ऐलान किया है. जबकि अमेरिका लगातार इस कदम को रोकने की कोशिश कर रहा था. अमेरिका का मानना है कि ओपेक के दूसरे सदस्य देशों पर रूस के दबाव में सऊदी अरब ने कटौती के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव बनाया.

जबकि सऊदी अरब ने एक वक्तव्य जारी कर कहा, "ओपेक प्लस का फैसला आम सहमति से हुआ है. इसमें बाजार की अस्थिरता को कम करने के लक्ष्य के लिए आपूर्ति एवम् मांग को ध्यान में रखा गया है." बता दें अमेरिका चाहता था कि इस कटौती को शुरू करने की तारीख को कम से कम एक महीने के लिए आगे बढ़ा दिया जाए.

कटौती पर प्रतिक्रिया देते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि इस फैसले का सऊदी-अमेरिका संबंधों पर असर पड़ेगा और इसके बुरे नतीजे होंगे.

अमेरिका का कहना है कि विश्लेषक बताते हैं कि ऐसा करने से पेट्रोलियम उत्पादों के दाम बढ़ेंगे और यह फैसला दबाव में लिया गया है. बता दें यूक्रेन पर हमले के बाद रूस के तेल निर्यात पर भी पश्चिमी देशों ने सीमा प्रतिबंध लगाकर रखा है. ऐसे में रूस भी ओपेक के जरिए तेल की आपूर्ति को कम करना चाहता था.

पेट्रोडॉलर्स- क्या अमेरिका वाकई में सऊदी अरब पर कोर्ट कार्रवाई कर पाएगा? क्या सैन्य मदद को रोकना आसान है?

इतने बड़े सऊदी अरब की जनसंख्या महज 3 करोड़ 84 लाख के आसपास है, मतलब भारत के किसी मध्यम राज्य के जितनी, लेकिन दुनिया की राजनीति पर इतना सऊदी असर है कि इस इतने छोटे देश को एक भारत, ब्राजील और अन्य यूरोपीय देशों की तरह कुछ लोग मिडल पावर मानते हैं. ऐसा पेट्रोडॉलर्स के खेल के चलते है. मतलब दुनिया की तमाम अर्थव्यवस्थाओं में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर लगा सऊदी अरब का पैसा, जो तेल से कमाया गया है.

हाल में अमेरिका का एक उदाहरण देखें. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 सितंबर में अमेरिका में मांग उठी कि 11 सितंबर, 2001 के हमले के लिए सऊदी अरब को जिम्मेदार ठहराया जाए (ध्यान रहे हमलावरों के सऊदी कनेक्शन के साथ-साथ तमाम वित्त के उपजने का सोर्स सऊदी और उसमें जारी वहाबी विचारधारा को बताया जाता रहा है). इसके लिए एक बिल पास करने का भी प्रस्ताव दिया गया.

जवाब में सऊदी अरब ने धमकी देते हुए कहा कि वो अमेरिकी अर्थव्यवस्था में ट्रेजरी बॉन्ड के जरिए लगे पैसे में से "750 बिलियन डॉलर" निकाल लेगा. लेकिन यह आंकड़ा पूरी तरह साफ नहीं है कि सऊदी अरब का कितना पैसा अमेरिकी अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर लगा हुआ है.

एनर्जी फॉर सिक्योरिटी पैक्ट- एक सवाल यह भी उठता है कि सऊदी अरब ने इतना पैसा कैसे लगाया, जो इतनी बड़ी ताकत बन गई है? दरअसल 70 के दशक में सऊदी अरब और अमेरिका के बीच एक करार हुआ था, जिसके तहत अमेरिका, सऊदी अरब से तेल खरीदेगा, बदले में जो पैसा (पेट्रोडॉलर्स पढ़ें) मिलेंगे, वो अमेरिकी अर्थव्यवस्था में कर्ज के तौर पर लगाए जाएंगे. मतलब अमेरिका का पैसा, वापस अमेरिका में.

अब सऊदी अरब को इतनी लंबी कवायद से क्या मिला? दरअसल बदले में अमेरिका को सऊदी अरब सैन्य और तकनीकी मदद उपलब्ध कराना था, जिसकी वजह से ही सऊदी अरब भविष्य में एक क्षेत्रीय ताकत बनने में सक्षम रहा.

तो ऐसा सऊदी पैसा भले ही अमेरिका में सबसे ज्यादा होने की संभावना हो, पर सऊदी की जेब में यूरोप समेत कई एशियाई देशों के हाथ भी हैं, जो आसानी से उसमें रखे पैसे का मोह नहीं छोड़ सकते.

अब आगे क्या हो सकता है?

तो ऊपर की गई चर्चा से इतना तो साफ है कि-

  • चाहे आतंकी हमलों के सऊदी कनेक्शन की बात हो या हाल में खाशोगी प्रकरण से बिगड़े रिश्ते, अगर सऊदी अरब के खिलाफ अमेरिका एकतरफा कार्रवाई करता है, तो इसकी बड़ी आर्थिक कीमत हो सकती है. आखिर ओपेक प्लस के तेल आपूर्ति की कटौती को गलत बताने के पीछे अमेरिका का यही तर्क तो है कि इससे "विश्व अर्थव्यवस्था" धीमी होगी.

  • अमेरिका भले ही सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश हो, लेकिन उसके सोर्स बड़े पैमाने पर मध्य एशियाई और अरब देशों में हैं. ऐसे में सऊदी अरब को अचानक सैन्य मदद बंद करना या ओपेक प्लस पर अत्याधिक दबाव बनाना भी अमेरिका के लिए महंगा सौदा हो सकता है, क्योंकि बदले में उसके तेल उत्पादन पर और गंभीर असर हो सकता है.

    हालांकि यह काफी जटिल प्रक्रिया साबित हो सकती है, बहुत संभावना है कि उससे पहले ही दोनों किसी समझौते पर पहुंच जाएं.

आगे दोनों देशों के किसी समझौते पर ही पहुंचने की संभावना है, जैसा 1973 में योम किप्पूर युद्ध के बाद उपजे ओपेक संकट के बाद हुआ था. फिलहाल तो किसी फैसले पर एक ही राय बनाने से पहले इंतजार करना बेहतर होगा, लेकिन आने वाला समय पेट्रोलियम और इससे चलने वाले इंजन से दौड़ती अर्थव्यवस्थाओं के लिए अहम है.

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