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घरेलू राजनीति में उठाए कदम का विश्व पटल पर प्रत्यक्ष और तत्काल प्रभाव पड़ता है. देश की राजनीति को अपने पक्ष में कर लेने का मतलब यह नहीं है कि आपने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छवि में इजाफा लाया है. वैश्विक पटल से होकर गुजरते मामलों पर चर्चाएं और प्रतिक्रियाओं को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते. इसलिए, देश में लोकतंत्र कि हालिया स्थिति पर अमेरिका, जर्मनी और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की जताई चिंता एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है.
लेकिन भारतीय राजनीति की प्रवृत्ति, दृष्टिकोण और प्रभाव को देखते हुए, उसके नजरिए और मांग के परिणामों को बेहद नाजुकता से परखा जाता है और सीमा से लगे देशों को इसकी प्रतिक्रिया दी जाती है. लेकिन अगर इसे हावी होने वाला या दबंग के रूप में देखा जाता है तो यह उस चीज को जन्म देता है, जिसे नेपाल के सड़कों पर 'बिग ब्रदर' सिंड्रोम के नाम से जाना जाता है. इसे एक समान्य घटना के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि यह एक तेज और मुखर 'भारत विरोधी' माहौल के प्रतिकूल जा सकता है या 'भारत विरोधी' विचार को जन्म दे सकता है.
नेपाल के नए संविधान के निर्माण में भारत की भूमिका और 2015 में कथित 'नाकाबंदी' से सीमावर्ती इलाकों यानी बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों में असर देखने को मिल सकता है लेकिन इसने काठमांडू में नई दिल्ली की छवि के बुरी तरह से धूमिल किया है. नोटबंदी के दौरान सेंट्रल बैंक ऑफ नेपाल में भारतीय करेंसी को नहीं बदलना और अग्निवीर स्कीम, यह दोनों एक्शन ने दोनों देशों के रिश्तों के बीच खटास को और बढ़ा दिया.
काल्पनिक घाव इस हद तक गहरा गए हैं कि यह वैचारिक विचारों के कारण चीन का समर्थन करने वाले केवल कम्युनिस्ट/माओवादी दलों को साथ देने के परे चला गया हैं, क्योंकि पारंपरिक रूप से नेपाली कांग्रेस जैसी भारत समर्थक पार्टियां भी 'बिग ब्रदर' के खिलाफ सख्त रुख अपनाने के लिए मजबूर हो गईं.
इसी तरह के हैशटैग जैसे #BoycottIndia और #IndiaOut अब पूरे बांग्लादेश में ट्रेंड कर रहे हैं. विपक्षी दलों का मुख्य आरोप है कि नई दिल्ली उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है. बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी पार्टी 'बांग्लादेश नेशनल पार्टी' नई दिल्ली पर अलोकतांत्रिक शेख हसीना का समर्थन करने का आरोप लगाया और साथ ही अब भारतीय साड़ी भी दुश्मनी के रूपक का चेहरा बन गई है.
हालांकि, यह सच है कि शेख हसीना की आवामी लीग को आम तौर पर भारत समर्थक और खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनल पार्टी (बीएनपी) को भारत के विरोधी के तौर पर देखा जाता है - लेकिन किसी भी देश में भारत के प्रति बढ़ रही तीखी विरोध की भावना से दिल्ली में बैठे विदेश नीतिकारों को चिंतित होना चाहिए. पड़ोसी देश चीन, पाकिस्तान, नेपाल, मालदीव से लेकर बांग्लादेश से परेशान करने वाले खबरों से लेकर भूटान और म्यांमार में अस्पष्ट दोहरी बात तक, पड़ोस की स्थिति अच्छी नहीं दिख रही है.
पड़ोस में पहले से ही चल रहे तनाव के बीच भारत फिर से कोई विवाद पैदा करने का जोखिम नहीं उठा सकता है- फिर भी उसने पाल्क समुद्र-संधि के उथले पानी यानी एक छोटे से (285 एकड़), निर्जन, और रणनीतिक रूप से महत्वहीन कच्चाथीवू द्वीप विवाद में उतरकर यही किया.
ऐसा लगता है कि नेपाल में पिछले अनुभव के बावजूद, चुनाव के मौसम में स्थानीय दलों के खिलाफ राजनीतिक/पक्षपातपूर्ण लाभ हासिल करने की जबरदस्त चाहत को नजरअंदाज करना बहुत मुश्किल है.
मधुमक्खी के छत्ते पर ईंट मार कर ऐसे शांत मुद्दे को बाहर निकाला गया, जो बिल्कुल निष्क्रिय था. बावजूद इसके इसे जनता के सामने एक राजनीतिक दलों के कमियों को दिखाने और दूसरे दल को आगे बढ़ाने का सुझाव देने के लिए चतुराई से पेश किया गया. ऐसा करने में, पार्टियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी कच्चाथीवू द्वीप पर हस्ताक्षरित समझौते का सम्मान करने और संप्रभु बंधन के बड़े सिद्धांत को आसानी से भुला दिया. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीलंकाई प्रतिक्रिया और भावनाओं के मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
हालांकि, भारतीय मछुआरों का हित सर्वोपरि होना चाहिए और वास्तव में समझौते के कुछ हिस्से हैं, जिनमें भारतीय मछुआरों के लिए मछली पकड़ने के अधिकार शामिल हैं, जिन्हें उठाने की जरूरत है लेकिन यह मुद्दा इतना सीधा नहीं है. भारतीय मछुआरों द्वारा अवैध रूप से अत्यधिक मछली पकड़ने (ट्रॉलर का उपयोग करने सहित) के आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए हैं, इनके वास्तव हालात पर बात करने की जरूरत है. लेकिन यह काम उतना आसान नहीं है, जितना कि चालाक राजनेताओं बताते हैं.
लेकिन चुनावी मौसम की गर्मी और कोलाहल में पिछली सरकार की "बेवकूफी से दी गई" कच्चाथीवू की तस्वीर का यह मूर्खतापूर्ण जुमला शीर्ष पर है. यह कहीं अधिक जटिल और संभवतः संतोषजनक अतीत की अनदेखी करती है, जिसे जानबूझकर सार्वजनिक चर्चा में मिटा दिया जाता है और इसके बजाय एक बड़े समीकरण के एक टुकड़े को जनता के मत के लिए सामने रख दिया गया है. इसे बात को स्पष्ट रूप से अनदेखा कर दिया जाता है कि '70 का दशक पड़ोस की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए (1971 में बांग्लादेश के बाद) उन्मादी पड़ोस की पहुंच का समय था.
इससे भी अधिक, श्रीलंका के साथ, बाद के समझौतों में से एक अति-रणनीतिक वेज बैंक (Wadge Bank) (10,300 वर्ग कि. मी. मछली पकड़ने और अन्य प्राकृतिक संसाधनों जैसे., तेल, खनिज आदि) पर भारत के संप्रभु अधिकारों की कोलंबो की स्थायी मान्यता थी.
2015 में तत्कालीन विदेश सचिव, जो अब विदेश मंत्री हैं, के नेतृत्व वाले विदेश मंत्रालय (अब कच्चाथीवू मुद्दे को उठाने में भी सबसे आगे) ने औपचारिक रूप से कहा था, “इस (1974 समझौते) में न तो अधिग्रहण शामिल था और न ही भारत से संबंधित क्षेत्र को सौंपना क्योंकि संबंधित क्षेत्र का कभी भी सीमांकन नहीं किया गया था”. लेकिन विदेश मंत्री का इस मुद्दे पर अपने ही बयानों को भूलना, उनके अपने रुख और 2015 में वर्तमान सरकार की स्वीकृत स्थिति का खंडन करती है.
भले ही सत्तारूढ़ सरकार के लिए दक्षिण और विशेष रूप से तमिलनाडु में एक मजबूत शुरुआत करना मुश्किल है लेकिन फिर भी उसे ज्यादा ईमानदार, स्वस्थ और गैर-अपमानजनक तरीके से आगे बढ़ना होगा.
संकट के समय में श्रीलंका को भारत के समर्थन और सहायता की याद दिलाना किसी राष्ट्र की संप्रभु अखंडता और गौरव को नीचा दिखाने की गारंटी नहीं देता है, क्योंकि संप्रभु गरिमा के मामलों को कभी भी अन्य विचारों से कम नहीं किया जा सकता है. घरेलू राजनीति चाहे जैसी भी हो, लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि यहां नेपाल और मालदीव को किसी भी तरह से घसीटने से बचें.
चुनाव के बाद भारत के गले पड़े बड़े मुद्दे इस वक्त के शायद सभी आरोप-प्रत्यारोप को भूला दें लेकिन पड़ोसी देश ऐसा नहीं करेंगे. उन्हें अपने खिलाफ दिए बयान और फैसले याद रहते हैं और उनकी आगे की कार्यवाही भी वैसी ही होती है. और अंत में तेजी से पैर फैलाता चीन भारत द्वारा ऐसा ही कोई गलत कदम उठाए जाने के इंतजार में रहता है, जिसके तुरंत बाद वह इन देशों को अपने पक्ष में कर ले. ठीक ऐसा ही उन्होंने मालदीव नेपाल और म्यांमार में किया था और अब श्रीलंका में भी कर सकते हैं.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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