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Turkey की सत्ता पर फिर एर्दोगान: LGBTQ+, शरणार्थी और ग्लोबल मुद्दों पर क्या असर?

Recep Tayyip Erdogan राष्ट्रपति चुनाव में फतह के साथ लगातार 11वीं बार तुर्की के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं.

मोहम्मद साकिब मज़ीद
दुनिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>Turkey की सत्ता पर फिर एर्दोगान:LGBTQ+, शरणार्थी और ग्लोबल मुद्दों पर क्या असर? </p></div>
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Turkey की सत्ता पर फिर एर्दोगान:LGBTQ+, शरणार्थी और ग्लोबल मुद्दों पर क्या असर?

(फोटो- ट्विटर/@RTErdogan)

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मुस्लिम बाहुल्य देश तुर्की (Turkey) के राष्ट्रपति रजब तय्यब एर्दोगान (Recep Tayyip Erdogan) ने ऐतिहासिक रूप से एक बार फिर से चुनाव में फतह हासिल की है. इस जीत से वो लगातार 11वीं बार तुर्की के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं, ये कार्यकाल अगले 2028 तक चलेगा. एर्दोगान दुनिया के सबसे ज्यादा दिनों तक सत्ता में बने रहने वाले नेताओं की लिस्ट में शामिल हो गए हैं. चुनाव जीतने के बाद उन्होंने राजधानी अंकारा में अपने भव्य महल के बाहर जश्न मना रहे समर्थकों को संबोधित किया और राष्ट्रीय एकता की अपील करते हुए कहा कि ये साढ़े आठ करोड़ की आबादी वाले पूरे मुल्क की फतह है.

जीत के बाद जनता को संबोधित करते हुए रजब तय्यब एर्दोगान

(फोटो- ट्विटर/@RTErdogan)

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक एर्दोगान ने अपने प्रतिद्वंद्वी केमल किलिकडारोग्लू (Kemal Kilicdaroglu) के वोट 47.84 प्रतिशत की तुलना में 52.16 प्रतिशत वोट हासिल किए है.

पिछले दिनों तुर्की में विनाशकारी भूकंप आने के बाद आर्थिक रूप से देश की स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी, जो अब पटरी पर आती नजर आ रही है. इसके अलावा देश में और कई अहम मुद्दे हैं, जिन पर पूरी दुनिया की नजर बनी हुई है. आइए समझने की कोशिश करते हैं कि एर्दोगान के फिर से सत्ता में वापस आने पर देश के तमाम मुद्दों और ग्लोबल राजनीति पर क्या असर होगा. इसके अलावा भारत के लिए क्या मायने होंगे.

Erdogan के इस कार्यकाल में कैसे सरकार की उम्मीद?

एर्दोगान ने अपने शासन के दौरान संवैधानिक बदलावों के जरिए खुद को और ज्यादा ताकतवर बनाया. उन पर ये भी आरोप लगते हैं कि उन्होंने न्यायपालिका और मीडिया सहित देश के लोकतांत्रिक संस्थानों को खत्म कर दिया है और कई विरोधियों को जेल में डाल दिया है.

BBC की एक रिपोर्ट के मुताबिक कई लोगों का मानना है कि आने वाले वक्त में देश की जनता में धर्म ज्यादा हावी होगा और स्वतंत्रता की कमी होगी. इसके अलावा आलोचकों का ये भी मानना है कि राष्ट्रपति एर्दोगान के पास देश की बिखरी हुई अर्थव्यवस्था के लिए भी कोई ठोस समाधान नहीं है.

अधिकांश विश्लेषकों का कहना है कि एर्दोगन के अगले पांच साल का मतलब अधिक मुखर और आधिकारिक शासन होगा. एर्दोगन 2003 से सत्ता में हैं, पहले प्रधानमंत्री के रूप में और फिर 2014 से वह तुर्की के राष्ट्रपति हैं.

एर्दोगान पर सरकार विरोधी प्रदर्शनों को दबाने के भी आरोप लगते रहे हैं.

Human Rights Watch ने अपनी 2022 की रिपोर्ट में कहा कि एर्दोगान की पार्टी AKP ने दशकों से तुर्की के मानवाधिकार रिकॉर्ड को पीछे छोड़ दिया है. स्वीडन के V-Dem इंस्टीट्यूट ने देश को दुनिया के टॉप 10 Autrocratising (निरंकुश-केंद्रित सत्ता) देशों में से एक के रूप में बताया है. इसके अलावा साल 2018 में अमेरिका के Freedom House ने देश की स्थिति को “Partly Free” से "Not Free" करार दिया था.

Euronews की रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव रिजल्ट आने के बाद University Carlos III of Madrid में यूरोपियन जिओपॉलिटिक्स के प्रोफेसर Ilke Toygür ने कहा कि अभी एर्दोगान और आगे बढ़ेंगे. जब लोकतंत्र की बात आती है और जब विदेश नीति की बात आती है तो मैं और अधिक भयावह व्यवहार की अपेक्षा करता हूं.

Erdogan की फतह से ग्लोबल राजनीति पर क्या असर होगा?

उम्मीद की जा रही है कि रजब तय्यब एर्दोगान की जीत के दूरगामी प्रभाव भी होंगे. उनकी जीत के नतीजे केवल तुर्की तक ही सिमित नहीं रहेंगे.

एर्दोगन की जीत के बाद रूस के साथ तुर्की के रिश्ते पर लोगों की नजर होगी. तुर्की का व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व वाले रूस के साथ अच्छे संबंध हैं. जब से रूस ने यूक्रेन पर हमला करना शुरू किया, रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों का विरोध करते हुए एर्दोगान ने एक कूटनीतिक संतुलन बनाने की कोशिश की.

पिछले दिनों CNN के साथ एक इंटरव्यू में एर्दोगन ने रूस के व्लादिमीर पुतिन के साथ अपने "विशेष संबंध" की सराहना की. इस दौरान उन्होंने यह भी कहा था कि

हम पश्चिम के प्रतिबंधों से बंधे नहीं हैं, हम एक मजबूत राष्ट्र हैं और रूस के साथ हमारे अच्छे रिश्ते हैं. रूस और तुर्की को एक-दूसरे की जरूरत है.

क्या स्वीडन का NATO में शामिल होने का रास्ता खुल पाएगा?

एर्दोगान की जीत का असर NATO पर भी होगा क्योंकि वो NATO के विस्तार के रास्ते में खड़े हुए हैं. उन्होंने स्वीडन की NATO मेंबरशिप के रास्ते में रुकावट लगा रखी है. दरअसल, नाटो में कोई सदस्य तभी शामिल हो सकता है, जब सभी सदस्य देशों की सहमति हो. स्वीडन से एर्दोगान की नाराजगी की वजह कुर्दों से संबंधित है. एर्दोगान का दावा है कि स्वीडन कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी से जुड़े कुर्द वर्कर्स को आश्रय देता है.

तुर्की के मुताबिक, कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (PKK) में शामिल तुर्की के करीब डेढ़ सौ लोग स्वीडन में हैं. तुर्की का कहना है कि अगर स्वीडन NATO की अर्जी में उसकी सहमति चाहते हैं, तो पहले वे उन 150 लोगों को तुर्की के हवाले कर दें.

वहीं स्वीडन, तुर्की की मांग पर कहता आया है कि PKK सदस्यों के प्रत्यर्पण पर कोर्ट फैसला लेगी.

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सीरियाई शरणार्थीयों पर लटक रही तलवार, क्या फैसला लेंगे एर्दोगान?

The Guardian की रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा वक्त में तुर्की में लगभग 4 मिलियन सीरियाई शरणार्थी रहते हैं और सर्वेक्षणों से पता चला है कि लगभग 80% तुर्क चाहते हैं कि वो वापस चले जाएं.

राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों (एर्दोगान और केमल किलिकडारोग्लू) उम्मीदवारों ने सीरियाई लोगों को वापस भेजने और राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार के साथ तुर्की के संबंधों को बहाल करने का वादा किया है.

Al Jazeera की रिपोर्ट के मुताबिक एर्दोगान ने लगभग 1 मिलियन शरणार्थियों को वापस भेजने का वादा किया है.

BBC की एक रिपोर्ट के मुताबिक एर्दोगान पर 10 मिलियन शरणार्थियों को देश में आने देने का आरोप लगाने वाले किलिकडारोग्लू ने अपने समर्थकों को चुनाव के दौरान आश्वासन दिया था कि वो 3.5 मिलियन वापस भेज देंगे.

तुर्की चुनाव में आया रिजल्ट सीरियाई शरणार्थियों के लिए अच्छा संकेत नहीं है. कई शरणार्थी विरोधी भाषणों से उनकी स्थिति और ज्यादा कमजोर हो गई है, जो कि किलिकडारोग्लू ने तुर्की राष्ट्रवादियों का समर्थन पाने की उम्मीद में किया है.

अब एर्दोगान के फिर से सत्ता में आने के बाद ये देखने वाली बात होगी कि सीरियाई शरणार्थियों के मुद्दे पर उनका क्या फैसला होता है.

कुर्द और PKK मुद्दे पर एर्दोगान कितना मुखर हैं?

पिछले कई सालों से एर्दोगान की सरकार एक स्वतंत्र कुर्द राज्य की मांग करने वाले ग्रुप कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (PKK) के खिलाफ कड़ा रुख अपना रही है. राष्ट्रपति एर्दोगान ने इस पर सुरक्षा मुद्दों और आतंकवाद के खतरे का हवाला दिया है.

चुनाव के दौरान किलिकडारोग्लू (Kemal Kilicdaroglu) ने तुर्की के लोकतंत्र की रक्षा करने का वादा किया है, जिसमें आतंकवाद को पीछे धकेलना भी शामिल है. उन्होंने इसको देश के लिए एक खतरे के रूप में बताया है. इसके बाद भी उन्हें कुर्द समर्थक पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (HDP) का समर्थन भी प्राप्त हुआ.

राष्ट्रपति चुनाव के दोनों उम्मीदवारों को आतंकवाद के खिलाफ मुखर चेहरों के रूप में देखा जाता है. अगर कुर्द मुद्दे की बात करें तो एर्दोगान ने इसको अपने चुनावी अभीयान में केंद्र में रखा लेकिन किलिकडारोग्लू की स्थिति थोड़ी अलग नजर आई.

एर्दोगान की सरकार में महिलाओं और LGBTQ+ ग्रुप पर क्या असर होगा?

राष्ट्रपति चुनाव में आए नतीजे जिन समूहों पर असर डाल सकते हैं, उस लिस्ट में महिलाएं और LGBTQ+ के ग्रुप भी शामिल हैं. एर्दोगान LGBTQ+ अधिकारों के अपने विरोध में हमेशा से मुंहफट रहे हैं. रिपोर्ट के मुताबिक उनका कहना है कि "हम एलजीबीटी के खिलाफ हैं" और "परिवार हमारे लिए पवित्र है, एक मजबूत परिवार का मतलब एक मजबूत देश है."

एर्दोगान के फिर से सरकार में आने के बाद कथित तौर पर उन व्यक्तियों और संस्थानों का सशक्तिकरण होगा जो महिलाओं और LGBTQ+ से संबंधित लोगों को दबाने की कोशिश करते हैं.

वहीं अगर एर्दोगान के प्रतिद्वंदी किलिकडारोग्लू की बात जाए तो वो तुर्की के LGBTQ+ ग्रुप के लिए सपोर्टिव रहे हैं. उन्होंने टेलीविजन पर कहा है कि वह समुदाय को एक ऐसी ताकत के रूप में नहीं देखते हैं, जो परिवार की यूनिट पर बुरा असर डालती है.

Al Jazeera की एक रिपोर्ट के मुताबिक किलिकडारोग्लू के गठबंधन का मकसद महिलाओं और LGBTQ+ समुदाय के लिए सामाजिक समानता लाना और राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर करना है.

भारत के लिए क्या मायने?

एर्दोगान की जीत भारत के लिए भी कई मामलों में मायने रखती है. कश्मीर पर अंकारा की स्थिति के कारण तुर्की के साथ भारत के संबंध खराब हो गए हैं, जो पाकिस्तान के साथ जुड़ा हुआ है और एर्दोगान ने इसे और भी आगे बढ़ाया है.

अगर देखा जाए तो तुर्की, भारत का कोई दोस्त नहीं रहा है. वो भारत के मुसलमानों की स्थिति के बारे में हमेशा मुखर रहे हैं. अगर कश्मीर मसले की बात करें तो, तुर्की हमेशा पाकिस्तान के समर्थन में रहा है.

पिछले दिनों तुर्की में भूकंप से हुई तबाही के दौरान भेजी गई सहायता के बाद भी भारत ये उम्मीद नहीं कर सकता है कि तुर्की के द्वारा की जाने वाली इस तरह की बयानबाजी कम हो जाएगी.

एर्दोगान के फिर से सत्ता पर काबिज होने के बाद आने वाले वक्त में तुर्की का क्या स्टैंड होगा, इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि एर्दोगान को इस बात का बखूबी इल्म है कि उनको किस तरह से काम करना है और खुद को सत्ता में बनाए रखना है.

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