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एर्तुरुल,हागिया सोफिया,भारत-विरोधी बयान: चाहते क्या हैं एर्दोगान?

सेक्युलर तुर्की को इस्लामिक बनाना चाहते हैं एर्दोगान?

नमन मिश्रा
दुनिया
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एर्तुरुल,हागिया सोफिया,भारत-विरोधी बयान: चाहते क्या हैं एर्दोगान?
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एर्तुरुल,हागिया सोफिया,भारत-विरोधी बयान: चाहते क्या हैं एर्दोगान?
(फाइल फोटो: AP)  

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दुनिया के नक्शे पर यूरोप और एशिया महाद्वीप के बीच एक लिंक की तरह मौजूद तुर्की अब बदल रहा है. जिस तुर्की पर पड़ोसी मुस्लिम देशों की सांप्रदायिक हिंसा का असर नहीं हुआ था, वो अब अपने राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगान की महत्वाकांक्षाओं का शिकार बन रहा है. आधुनिक, लिबरल और सेक्युलर छवि रखने वाला देश अब मुस्लिम समुदाय का नेता बनने की कोशिश कर रहा है. हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाना, एर्दोगान के कश्मीर पर बयान जैसे कुछ कदम तुर्की के बदलने की गवाही दे रहे हैं.

तुर्की एक बार फिर खबरों में है क्योंकि बॉलीवुड एक्टर आमिर खान ने एर्दोगान की पत्नी और देश की प्रथम महिला एमीन एर्दोगान से हाल ही में मुलाकात की है. तुर्की का भारत के खिलाफ जो हाल में रवैया रहा है, उसकी वजह से ये मुलाकात चर्चा की वजह बनी हुई है.

लेकिन एर्दोगान की वजह से तुर्की में क्या बदल गया है और वो यहां तक कैसे पहुंच गया, ये जानने से पहले हमें समझना चाहिए कि तुर्की कहां और क्या था.

मुस्तफा कमाल अतातुर्क का तुर्की

मुस्तफा कमाल अतातुर्क को आधुनिक तुर्की का फाउंडर कहा जाता है. मुस्तफा कमाल का जन्म ओटोमन साम्राज्य के समय 1881 में हुआ था. 1935 में जब देश में सरनेम शुरू हुए, तो उन्हें अतातुर्क यानी कि 'तुर्कों के पिता' सरनेम दिया गया. वो अब के ग्रीस के एक शहर में पैदा हुए थे. जब पहला विश्व युद्ध खत्म हुआ तो जीतने वाले देशों ने तुर्की पर शांति समझौता थोपा था. इसके खिलाफ मुस्तफा कमाल ने 1919 में एक आंदोलन शुरू किया था.

मुस्तफा कमाल अतातुर्क का एक पोर्ट्रेट(फोटो: https://www.history.com)
1921 में मुस्तफा कमाल ने अंकारा में एक प्रोविंशियल सरकार बनाई थी. अगले साल ओटोमन साम्राज्य के खत्म होने के बाद वो तुर्की के राष्ट्रपति बन गए. मुस्तफा ने नए तुर्की की स्थापना एक सेक्युलर देश के तौर पर की. उन्होंने इस्लाम को देश के धर्म के तौर पर हटा दिया. अरब पड़ोसियों से दूर वो तुर्की को यूरोप के करीब ले गए.

मुस्तफा कमाल ने देश के सभी धार्मिक अदालतों और स्कूलों को बंद किया, पब्लिक सेक्टर की महिला कर्मचारियों के लिए स्कार्फ ओढ़ने की अनिवार्यता खत्म की, शराब से पाबंदी हटाई, इस्लामिक कैलेंडर की जगह ग्रेगोरियन कैलेंडर लाए, शुक्रवार की जगह रविवार को छुट्टी का दिन बनाया, महिलाओं को कई अधिकार दिए, अजान अरबी की जगह तुर्की भाषा में होने लगे.

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एर्दोगान के आने से कैसे बदला तुर्की?

साल 2002 से राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति शुरू करने वाले रेसेप तैय्यप एर्दोगान ने इन कुछ सालों में बहुत कुछ देख लिया है. एर्दोगान ने इस्तांबुल के मेयर से शुरूआत की थी और वो देश के प्रधानमंत्री भी रहे हैं. 2016 में तख्तापलट की असफल कोशिश हुई थी, लेकिन एर्दोगान और ताकतवर ही हुए. 2017 में एक विवादित जनमत संग्रह के बाद उन्हें और ज्यादा ताकत मिल गई, जिससे तुर्की प्रभावी रूप से एक पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी से प्रेसिडेंशियल रिपब्लिक में तब्दील हो गया.

एक समय यूरोपियन यूनियन में शामिल होने का ख्वाब देखने वाले एर्दोगान आज मुस्लिम देशों के सरपरस्त बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं. चाहे हाल ही में हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाने का फैसला हो या सीरिया में तुर्की की दखलंदाजी, एर्दोगान देश को मुस्लिम दुनिया में सऊदी अरब के एक विकल्प के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं.

सेक्युलर तुर्की को इस्लामिक बनाना चाहते हैं एर्दोगान?

वैसे एर्तुरुल टीवी सीरीज और एर्दोगान का कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन 2014 में शुरू हुआ ये शो एर्दोगान की राष्ट्रवादी नीतियों की एक झलक दिखाता है. साल 2002 में एर्दोगान की जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी पहली बार सत्ता में आई थी और उसके बाद से देश के सबसे बड़े एक्सपोर्ट में टीवी सीरीज शामिल हो गई हैं. न्यू यॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि करीब 150 तुर्की टीवी सीरीज मिडिल ईस्ट, पूर्वी यूरोप, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण एशिया के 100 से ज्यादा देशों में बेची जा चुकी हैं.

लेकिन एर्तुरुल टीवी सीरीज का फोकस घरेलू ऑडियंस पर ज्यादा है. ये ओटोमन साम्राज्य के संस्थापक ओस्मान बे के पिता एर्तुरुल बे की जिंदगी पर आधारित है. इसे सरकारी TRT 1 चैनल पर प्रसारित किया जाता है. शो मुस्लिम राष्ट्रवाद की उस भावना को प्रदर्शित करता है, जिसे एर्दोगान बढ़ावा देते आए हैं. 2017 के जनमत संग्रह के दौरान एर्दोगान ने ‘क्रेसेंट और क्रॉस के बीच संघर्ष’ की बात कही थी. क्रॉस क्रिस्चियन क्रूसेडर्स का प्रतीक हुआ करता था और क्रेसेंट मुस्लिम शासकों के ध्वजों पर दिखाई देता था.

जहां एर्तुरुल अप्रत्यक्ष रूप से एर्दोगान के प्रोपेगेंडा को बढ़ावा दे रहा है, वहीं उन्होंने हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाकर देश के इस्लामी कट्टरपंथियों का पुराना सपना पूरा किया है. इस्तांबुल में स्थित छठी शताब्दी की इस इमारत को 24 जुलाई को 86 सालों में पहली बार नमाज के लिए खोला गया था. इस दौरान एर्दोगान भी वहां मौजूद रहे. सालों कैथेड्रल और म्यूजियम रहे हागिया सोफिया को मस्जिद में तब्दील करना मुस्लिम समुदाय में एक बड़ा संदेश देने जैसा था.

वो मुस्तफा कमाल अतातुर्क ही थी, जिन्होंने हागिया सोफिया को म्यूजियम बना दिया था. 10 जुलाई को तुर्की के एक कोर्ट ने अतातुर्क के इस फैसले को रद्द कर दिया था और उसी दिन एर्दोगान ने पहली नमाज का ऐलान किया था. एर्दोगान के इस कदम को दो तरह से देखा जा सकता है. पहला मुस्लिम देशों के बीच तुर्की को सऊदी अरब के विकल्प के तौर पर पेश करना और दूसरा देश में जारी आर्थिक संकट के बीच अपनी पार्टी के कट्टरपंथी वोट बैंक को खुश करना.

क्या हासिल करना चाहते हैं एर्दोगान?

सऊदी अरब में इस्लाम धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल मौजूद हैं. उसे मुस्लिमों का सरपरस्त समझा जाता रहा है. लेकिन यमन के सिविल वॉर में सऊदी अरब की दखलंदाजी ने मुस्लिम समुदाय में उसकी साख गिरा दी है. ऐसे में हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाकर एर्दोगान शायद सुन्नी मुसलमानों की लीडरशिप हासिल करने का ख्वाब रखते हैं.

एर्दोगान ने सऊदी का वर्चस्व कम करने की एक कोशिश जमाल खशोगी की मौत के समय भी की थी. वाशिंगटन पोस्ट में कॉलमनिस्ट और सऊदी नागरिक खशोगी का इस्तांबुल के सऊदी कॉन्सुलेट में मर्डर हुआ था. इस मर्डर में सीधे सऊदी के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान का नाम आया था. खशोगी की मौत के तुरंत बाद एर्दोगान ने कोई बयान नहीं दिया था. फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपने पत्ते खोलने शुरू किए. पहले उन्होंने कहा कि तुर्की के पास ऑडियो सबूत मौजूद है, फिर कॉन्सुलेट का वीडियो होने की बात तक सामने आई. इस पूरे विवाद की वजह से मोहम्मद बिन सलामन और अमेरिका के बीच तनातनी बढ़ गई थी.  
जमाल खशोगी(फाइल फोटो: AP) 

अमेरिका और सऊदी अरब का रिश्ता बहुत हैरान करने वाला रहा है. लेकिन खशोगी के मर्डर के बाद डोनाल्ड ट्रंप पर सऊदी के खिलाफ एक्शन लेने का दबाव बढ़ गया था. एर्दोगान ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये कह दिया था कि उन्होंने अमेरिका को ऑडियो सबूत दे दिया है. इस बयान ने ट्रंप को दिक्कत में ला दिया था क्योंकि इसके मायने थे कि अमेरिका के पास खशोगी के मर्डर का सबूत है, जिसमें सऊदी ने अपने ऑपरेटिव्स के होने की बात कबूली है.

ऐसा माना जाता है कि एर्दोगान का असली गेम मोहम्मद बिन सलमान के खिलाफ है. सऊदी अरब के अगले लीडर होने के नाते वो मिडिल ईस्ट की क्षेत्रीय राजनीति में गहरा उतर चुके हैं. मिडिल ईस्ट में तुर्की के सबसे अच्छे दोस्त कतर का ब्लॉकेड कराने के पीछे भी मोहम्मद बिन सलमान ही थे. एर्दोगान का मकसद किंग सलमान और क्राउन प्रिंस के बीच दरार डालने का था और इसके लिए उन्होंने अमेरिका का इस्तेमाल करने की कोशिश की. 
मोहम्मद बिन सलमान के साथ एर्दोगान(फाइल फोटो: AP) 

एर्दोगान को इसमें कितनी सफलता हाथ लगी ये तो नहीं पता है, लेकिन CNN की एक रिपोर्ट बताती है कि उनके और डोनाल्ड ट्रंप के बीच संबंध दोस्ताना हो गए थे. खुफिया बातचीतों पर CNN की इस रिपोर्ट में बताया गया कि एर्दोगान ने कई बार सीधे डोनाल्ड ट्रंप से फोन पर बातचीत की है. ये फोन कॉल ट्रंप के गोल्फ क्लब तक हुआ करती थीं और ट्रंप अपने अधिकारियों से दूर जाकर बात किया करते थे. अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसियां भी एर्दोगान की इस पहुंच से हैरान रह गई थीं.

लेकिन अकेले सिर्फ एर्दोगान ही सऊदी अरब का विकल्प नहीं बनना चाहते. एशिया की सुपरपावर चीन और पाकिस्तान भी चाहते हैं कि मिडिल ईस्ट में तुर्की का प्रभाव बढ़े. चीन के ऐसा चाहने के पीछे साफ वजह सऊदी और अमेरिका के अच्छे रिश्ते हैं. लेकिन पाकिस्तान का तुर्की को समर्थन हाल ही में सऊदी से बिगड़े रिश्तों की देन है. वहीं, तुर्की ने एक बार फिर मुस्लिम देशों का नेता बनने की कोशिश में पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर समर्थन दिया है. हाल ही में अपने भारत-विरोधी बयानों से एर्दोगान चीन की भी नजरों में आ गए हैं क्योंकि चीन और भारत के बीच लद्दाख में कई महीनों से सीमा विवाद चल रहा है.

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Published: 18 Aug 2020,08:54 PM IST

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