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दुनिया के नक्शे पर यूरोप और एशिया महाद्वीप के बीच एक लिंक की तरह मौजूद तुर्की अब बदल रहा है. जिस तुर्की पर पड़ोसी मुस्लिम देशों की सांप्रदायिक हिंसा का असर नहीं हुआ था, वो अब अपने राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोगान की महत्वाकांक्षाओं का शिकार बन रहा है. आधुनिक, लिबरल और सेक्युलर छवि रखने वाला देश अब मुस्लिम समुदाय का नेता बनने की कोशिश कर रहा है. हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाना, एर्दोगान के कश्मीर पर बयान जैसे कुछ कदम तुर्की के बदलने की गवाही दे रहे हैं.
तुर्की एक बार फिर खबरों में है क्योंकि बॉलीवुड एक्टर आमिर खान ने एर्दोगान की पत्नी और देश की प्रथम महिला एमीन एर्दोगान से हाल ही में मुलाकात की है. तुर्की का भारत के खिलाफ जो हाल में रवैया रहा है, उसकी वजह से ये मुलाकात चर्चा की वजह बनी हुई है.
लेकिन एर्दोगान की वजह से तुर्की में क्या बदल गया है और वो यहां तक कैसे पहुंच गया, ये जानने से पहले हमें समझना चाहिए कि तुर्की कहां और क्या था.
मुस्तफा कमाल अतातुर्क को आधुनिक तुर्की का फाउंडर कहा जाता है. मुस्तफा कमाल का जन्म ओटोमन साम्राज्य के समय 1881 में हुआ था. 1935 में जब देश में सरनेम शुरू हुए, तो उन्हें अतातुर्क यानी कि 'तुर्कों के पिता' सरनेम दिया गया. वो अब के ग्रीस के एक शहर में पैदा हुए थे. जब पहला विश्व युद्ध खत्म हुआ तो जीतने वाले देशों ने तुर्की पर शांति समझौता थोपा था. इसके खिलाफ मुस्तफा कमाल ने 1919 में एक आंदोलन शुरू किया था.
मुस्तफा कमाल ने देश के सभी धार्मिक अदालतों और स्कूलों को बंद किया, पब्लिक सेक्टर की महिला कर्मचारियों के लिए स्कार्फ ओढ़ने की अनिवार्यता खत्म की, शराब से पाबंदी हटाई, इस्लामिक कैलेंडर की जगह ग्रेगोरियन कैलेंडर लाए, शुक्रवार की जगह रविवार को छुट्टी का दिन बनाया, महिलाओं को कई अधिकार दिए, अजान अरबी की जगह तुर्की भाषा में होने लगे.
साल 2002 से राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति शुरू करने वाले रेसेप तैय्यप एर्दोगान ने इन कुछ सालों में बहुत कुछ देख लिया है. एर्दोगान ने इस्तांबुल के मेयर से शुरूआत की थी और वो देश के प्रधानमंत्री भी रहे हैं. 2016 में तख्तापलट की असफल कोशिश हुई थी, लेकिन एर्दोगान और ताकतवर ही हुए. 2017 में एक विवादित जनमत संग्रह के बाद उन्हें और ज्यादा ताकत मिल गई, जिससे तुर्की प्रभावी रूप से एक पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी से प्रेसिडेंशियल रिपब्लिक में तब्दील हो गया.
वैसे एर्तुरुल टीवी सीरीज और एर्दोगान का कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन 2014 में शुरू हुआ ये शो एर्दोगान की राष्ट्रवादी नीतियों की एक झलक दिखाता है. साल 2002 में एर्दोगान की जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी पहली बार सत्ता में आई थी और उसके बाद से देश के सबसे बड़े एक्सपोर्ट में टीवी सीरीज शामिल हो गई हैं. न्यू यॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि करीब 150 तुर्की टीवी सीरीज मिडिल ईस्ट, पूर्वी यूरोप, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण एशिया के 100 से ज्यादा देशों में बेची जा चुकी हैं.
जहां एर्तुरुल अप्रत्यक्ष रूप से एर्दोगान के प्रोपेगेंडा को बढ़ावा दे रहा है, वहीं उन्होंने हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाकर देश के इस्लामी कट्टरपंथियों का पुराना सपना पूरा किया है. इस्तांबुल में स्थित छठी शताब्दी की इस इमारत को 24 जुलाई को 86 सालों में पहली बार नमाज के लिए खोला गया था. इस दौरान एर्दोगान भी वहां मौजूद रहे. सालों कैथेड्रल और म्यूजियम रहे हागिया सोफिया को मस्जिद में तब्दील करना मुस्लिम समुदाय में एक बड़ा संदेश देने जैसा था.
सऊदी अरब में इस्लाम धर्म के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल मौजूद हैं. उसे मुस्लिमों का सरपरस्त समझा जाता रहा है. लेकिन यमन के सिविल वॉर में सऊदी अरब की दखलंदाजी ने मुस्लिम समुदाय में उसकी साख गिरा दी है. ऐसे में हागिया सोफिया को दोबारा मस्जिद बनाकर एर्दोगान शायद सुन्नी मुसलमानों की लीडरशिप हासिल करने का ख्वाब रखते हैं.
अमेरिका और सऊदी अरब का रिश्ता बहुत हैरान करने वाला रहा है. लेकिन खशोगी के मर्डर के बाद डोनाल्ड ट्रंप पर सऊदी के खिलाफ एक्शन लेने का दबाव बढ़ गया था. एर्दोगान ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये कह दिया था कि उन्होंने अमेरिका को ऑडियो सबूत दे दिया है. इस बयान ने ट्रंप को दिक्कत में ला दिया था क्योंकि इसके मायने थे कि अमेरिका के पास खशोगी के मर्डर का सबूत है, जिसमें सऊदी ने अपने ऑपरेटिव्स के होने की बात कबूली है.
एर्दोगान को इसमें कितनी सफलता हाथ लगी ये तो नहीं पता है, लेकिन CNN की एक रिपोर्ट बताती है कि उनके और डोनाल्ड ट्रंप के बीच संबंध दोस्ताना हो गए थे. खुफिया बातचीतों पर CNN की इस रिपोर्ट में बताया गया कि एर्दोगान ने कई बार सीधे डोनाल्ड ट्रंप से फोन पर बातचीत की है. ये फोन कॉल ट्रंप के गोल्फ क्लब तक हुआ करती थीं और ट्रंप अपने अधिकारियों से दूर जाकर बात किया करते थे. अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसियां भी एर्दोगान की इस पहुंच से हैरान रह गई थीं.
लेकिन अकेले सिर्फ एर्दोगान ही सऊदी अरब का विकल्प नहीं बनना चाहते. एशिया की सुपरपावर चीन और पाकिस्तान भी चाहते हैं कि मिडिल ईस्ट में तुर्की का प्रभाव बढ़े. चीन के ऐसा चाहने के पीछे साफ वजह सऊदी और अमेरिका के अच्छे रिश्ते हैं. लेकिन पाकिस्तान का तुर्की को समर्थन हाल ही में सऊदी से बिगड़े रिश्तों की देन है. वहीं, तुर्की ने एक बार फिर मुस्लिम देशों का नेता बनने की कोशिश में पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर समर्थन दिया है. हाल ही में अपने भारत-विरोधी बयानों से एर्दोगान चीन की भी नजरों में आ गए हैं क्योंकि चीन और भारत के बीच लद्दाख में कई महीनों से सीमा विवाद चल रहा है.
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