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भारतीय ओलंपियन पहलवानों (Wrestlers) को जिस तरह दबोचा, घसीटा और पुलिस वैन में भरा गया, उसे देख सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर ने द क्विंट से कहा कि, “पहलवानों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया गया, वह जघन्य है.”
उस रात (रविवार, 28 मई) बाद में पुलिस ने उनके खिलाफ IPC की कई धाराओं के साथ-साथ सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की धाराओं के तहत FIR भी दर्ज की.
पहलवानों के खिलाफ FIR, IPC की धाराएं
147 (दंगा करना)
149 (गैरकानूनी भीड़)
186 (सरकारी कर्मचारी को ड्यूटी में रुकावट डालना)
188 (सरकारी अधिकारी के आदेश की अवहेलना)
332 (सरकारी कर्मचारी को ड्यूटी करने से रोकने के लिए जानबूझकर चोट पहुंचाना)
353 (सरकारी कर्मचारी को अपनी ड्यूटी करने से रोकने के लिए हमला)
और प्रिवेंशन ऑफ डैमेज टू पब्लिक प्रॉपर्टी एक्ट की धारा 3
साक्षी मलिक, बजरंग पुनिया और विनेश फोगाट सहित कई भारतीय पहलवान भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के प्रमुख और बीजेपी सांसद बृज भूषण सिंह (BJP MP Brij Bhushan Singh) के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर उनका विरोध कर रहे हैं.
पुलिस ने शुरू में सांसद के खिलाफ FIR भी दर्ज नहीं की थी, उसने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वे पहले शिकायतों की जांच करना चाहते थे; बाद में अदालत द्वारा पहलवानों की याचिका पर सुनवाई के दौरान दो FIR दर्ज की गईं.
दो में से एक FIR, POCSO कानून के तहत है, जिसमें नाबालिग के यौन उत्पीड़न का आरोप है.
बृज भूषण सिंह पर लगाए गए आरोपों की गंभीरता के साथ ही उनकी सत्ता से नजदीकी को देखते हुए, पहलवानों के साथ-साथ सिविल सोसायटी के सदस्य उनकी गिरफ्तारी की मांग कर रहे है. उन्हें राष्ट्रीय राजधानी में विरोध प्रदर्शन करते हुए लगभग एक महीने गुजर चुके हैं.
पहलवानों के खिलाफ अपनी FIR में पुलिस ने दावा किया है कि उसने प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश की क्योंकि उसी समय नए संसद भवन का उद्घाटन किया जा रहा था.
इंडियन एक्सप्रेस ने पुलिस के हवाले से लिखा है कि नई इमारत “राष्ट्र के लिए गर्व और गौरव की बात है” और इसलिए “इसकी सुरक्षा से समझौता नहीं किया जा सकता है.”
दिल्ली पुलिस का दावा है कि इलाके में धारा 144 लागू कर दी गई थी और उन्होंने प्रदर्शनकारियों को जंतर-मंतर पर रुके रहने को कहा था.
लेकिन उन तस्वीरों और वीडियो पर क्या कहेंगे जिनमें दिख रहा है कि पुलिसकर्मियों (जिसमें रैपिड एक्शन फोर्स के जवान भी शामिल हैं) की विशाल भीड़ चारों तरफ से सहमी हुई विनेश फोगाट को खींच रही है; या बेबस साक्षी मलिक को घसीट रही है?
एक नागरिक के विरोध करने के अधिकार के बारे में हमारी अदालतें क्या कहती हैं?
सुप्रीम कोर्ट (अनीता ठाकुर बनाम जम्मू कश्मीर राज्य): भारत के राजनीतिक जीवन में आंदोलन या शांतिपूर्ण प्रदर्शन के माध्यम से शिकायतों को सामने रखने ने की परंपरा रही है. देश की आजादी की लड़ाई में संगठित, अहिंसक आंदोलन एक प्रमुख हथियार था, और विरोध करने के अधिकार को संविधान में मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता मिली है.
पहलवान दिल्ली के जंतर-मंतर पर 23 अप्रैल से विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और भले ही राजनीतिक नेता और तमाम समुदायों के सदस्य पूरे महीने प्रदर्शन में शामिल हुए हों, लेकिन पहलवानों या उनके समर्थकों की तरफ से हिंसा या शारीरिक चोट पहुंचाने की कोई खबर नहीं आई. रविवार को भी पहलवान निहत्थे थे.
नहीं. यहां तक कि CrPC की धारा 144 के तहत भी वैध विरोध को खत्म करने के लिए आदेश का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, कानूनी विशेषज्ञों ने द क्विंट को बताया.
मधु लिमये बनाम सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट मुंगेर और अन्य (1970) में के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि “बुनियादी मानवाधिकारों को हासिल करने के लिए विरोध कर रहे कानून का पालन करने वाले नागरिकों को इस धारा के तहत आदेशों का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.”
“इस मामले में, वांछित/चिंतित संतुष्टि दर्ज करने वाले अधिकारी की धारणा उचित, कम से कम दखलअंदाजी भरी और सच्ची होनी चाहिए. पाबंदी लगाना तर्कपूर्ण होना चाहिए और न्यूनतम होना चाहिए... यह अधिकार संपन्न अधिकारी पर डाली जाने वाली सबसे बड़ी जिम्मेदारी है… कानून व्यवस्था और शांति के लिए खतरा वास्तविक होना चाहिए न कि अबूझ, काल्पनिक या सिर्फ संभावित संभावना पर आधारित.
रविवार को जो घटना हुई वह, न्यूनतम आक्रामक तो नहीं लगती है.
जस्टिस लोकुर के अनुसार, घटनाओं का पूरा क्रम— जनवरी से शुरू हुआ जब बृज भूषण सिंह के खिलाफ पहली बार आरोप सामने आए— यह आभास देता है कि पहलवानों को बहलाया गया है.
“सबसे पहले, एक समिति का गठन किया गया ताकि विरोध को शांत कर दिया जाए. यह एक पुरानी चाल है और पहलवान इसके झांसे में आ गए, जाहिर है कि ऐसे मामलों में वह माहिर नहीं हैं. समिति ने अप्रैल में एक रिपोर्ट दी लेकिन एक महीने से ज्यादा समय बीत चुका है और रिपोर्ट को सामने नहीं लाया गया, मानो यह कोई राष्ट्रीय सीक्रेट हो.
पहलवानों के साथ लगातार हो रहे बर्ताव की निंदा करते हुए जस्टिस लोकुर कहते हैं,
“किसी ने भी उनकी बात ठीक से सुनने की जहमत नहीं उठाई. इसके उलट, उन्हें जंतर-मंतर से हटा दिया गया है, उनका सामान जब्त कर लिया गया और जिन टेंटों में वे रह रहे थे, उन्हें तोड़ दिया गया है. उन्हें परेशान करने के लिए धरनास्थल पर वापस जाने से रोक दिया गया है. उन्हें और दूसरे प्रदर्शनकारियों को साफ संदेश दिया गया है कि पुलिस किसी भी तरह के प्रदर्शन का मौका नहीं देगी, लेकिन अगर लोग प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो उन्हें बदसलूकी झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश कहते हैं, “क्या उन्हें और दूसरे सभी लोगों को बताया जा रहा है कि आप दिल्ली में तभी तक विरोध कर सकते हैं, तब तक जब तक पुलिस आपको छूट देती है?”
इस तरह, इस मोड़ पर, एक आखिरी सवाल खड़ा होता है: क्या लोकतंत्र अपने नए मंदिर के साए तले जिंदा रहेगा? (द क्विंट में, हम सिर्फ अपने दर्शकों के प्रति जवाबदेह हैं. सदस्य बनकर हमारी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभाएं. क्योंकि सच का कोई विकल्प नहीं है.)
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