Home Photos कश्मीर की कुष्ठ रोग कॉलोनी: जिंदगी से मौत तक बेघर रोगियों का घर बनी। Photos
कश्मीर की कुष्ठ रोग कॉलोनी: जिंदगी से मौत तक बेघर रोगियों का घर बनी। Photos
Kashmir's Leprosy Colony: जब दुनिया ने साथ छोड़ दिया, तब कुष्ठ रोगियों को यहां सम्मानजनक तरीके से रहने का माहौल मिला.
ऐमन फयाज़
तस्वीरें
Published:
i
कश्मीर की कुष्ठ रोग कॉलोनी: जिंदगी से मौत तक बेघर रोगियों का घर बनी। Photos
(फोटो: क्विंट हिंदी)
✕
advertisement
Kashmir's Leprosy Colony: कुष्ठ रोग का इलाज तो मुमकिन है लेकिन दुनिया भर में कुष्ठ रोगियों को जिस अपमान और तकलीफ का सामना करना पड़ता है उसका शायद कोई इलाज नहीं है. इन लोगों को इनकी जिजीविषा ही जिंदगी देती है. ब्रिटिश सरकार ने उन कुष्ठ रोगियों के जिन्हें उनके अपने लोगों ने अकेले छोड़ दिया होता है, कश्मीर (Kashmir) के बाहरी इलाके में कॉलोनी बनाई . ऐसी ही एक कॉलोनी श्रीनगर में भी है. इसी कॉलोनी से जुड़ी तमाम कहानियां और जानकारी ऐमन फयाज तस्वीरों के जरिए हमारे सामने लेकर आये हैं.
श्रीनगर के बाहरी इलाके में स्थित, कश्मीर की कुष्ठ कॉलोनी 60 एकड़ में फैली हुई है. इस कॉलोनी के 64 कमरों में 200 लोग रहते हैं. कॉलोनी के अंदर एक अस्पताल भी बनाया गया था ताकि मरीजों को इलाज के लिए कहीं बाहर ना जाना पड़े. इसके साथ ही वह भेदभाव और अपमानजनक टिप्पणियों से बचे रहें. हालांकि, कुष्ठ रोग के केस ज्यादा नहीं हैं, बहुत से निवासी समय- समय पर जांच के लिए अस्पताल जाते रहते हैं. पुराने अस्पताल ने भी एक बड़ी भूमिका निभाई है.
(Photo: ऐमन फयाज)
नूर दीन कोहली केवल आठ वर्ष की उम्र में ही तंगधार करनाह कुष्ठ कॉलोनी पहुंचे. बीमारी से उनके हाथ और पैर बुरी तरह प्रभावित हो गए थे, फिर भी उन्होंने अपने दो बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए जीवन भर अथक परिश्रम किया. आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली उनकी बेटी सुमैया उनके जीवन की रोशनी है. नूर उसके बारे में बेहद प्यार से बात करते हुए कहते हैं, "सुमैया मेरी राजकुमारी है. सिर्फ उसके मुस्कुराने से ही मेरा दिल खुश हो जाता है. वह मेरे लिए एक बेटी से ज्यादा एक मां रही है. उसकी मां के जाने के बाद मैंने अपने दोनों बच्चों को अपने टूटे हुए हाथों से जो थोड़ी बहुत कमाई करता हूं उससे अकेले ही पाला है." हालांकि, यह मुश्किल है फिर भी, जिस दुनिया में हम रहते हैं, मैं अपनी बेटी को खुश देखने के लिए संघर्ष करूंगा.
(Photo: ऐमन फयाज)
कश्मीर में नागिन झील के किनारे बहार-आर सेनेटोरियम है. अपने परिवारों द्वारा छोड़े गए 370 लोगों को शुरू-शुरू में इस बहार-आर सेनेटोरियम में शरण मिली. यह एक ऐसा आश्रय था, जहां वे समाज में मिलने वाली अस्वीकृति और भेदभाव से दूर सुकून से रह सकते थे. इस रोग की वजह से अलग और कलंक झेलने से मुक्त होकर सुकून से रहने के लिए अब यहां केवल 61 लोग ही बचे हैं.
(Photo: ऐमन फयाज)
कुष्ठ रोग कॉलोनी के उपाध्यक्ष जहांगीर खान के अनुसार, इस कॉलोनी की जड़ें ब्रिटिश शासन काल से जुड़ी हुई हैं. भारत में लगभग 750 ऐसी कॉलोनियां हैं, एक काॅलोनी कश्मीर के ही श्रीनगर के लालबजार इलाके में है. यह काॅलोनी 60 एकड़ में फैली हुई है. यह जमीन इस कालोनी के लिए ब्रिटिश सरकार ने दी थी, जब उनका यहां शासन था.
(Photo: ऐमन फयाज)
मरीजों की उचित देखभाल करने और उनका नई तकनीकियों से इलाज मुमकिन करने के लिए कई डॉक्टरों को यहां लाया गया. पुरुष और महिला रोगियों के लिए अलग-अलग वार्ड स्थापित किए गए थे, जिसमें गंभीर रूप से विकलांग लोगों को उन लोगों के साथ रखने की व्यवस्था की गई थी, जो ठीक थे, जिससे एक हेल्पफुल माहौल बने जहां वो एक दूसरे की सहायता कर सकें.
(Photo: ऐमन फयाज)
समय के साथ सरकार ने नये क्वार्टर बना दिये, जिसमें अच्छे कमरे, बेडरूम, बाथरूम, आदि थे. इसका मकसद था कि सभी रोगी और उनके परिवार आराम से रह सकें. मूलतः इस कालोनी में मिट्टी के घर थे लेकिन नये क्वार्टर बन जाने से आधुनिक सुविधाएं मिली, जिससे इस समुदाय को सम्मानजनक तरीके से रहने का माहौल मिला. अच्छे घरों के साथ ही सरकार ने इन लोगों के खाने पीने का और दवाओं की निरंतर सप्लाई का खर्च भी उठाया.
(Photo: ऐमन फयाज)
कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय से आने वाले निजामुद्दीन बजाज 90 साल के हैं और बंटवारे से भी पहले इस कॉलोनी में आ गए थे. वह अपने समुदाय के साथ सुकून की जिंदगी गुजार रहे थे मगर अचानक वह बीमार पड़े उन्हें बुखार आया और शरीर पर छोटे छोटे धब्बे पड़ते दिखे. आगे का जो कुछ भी उन्हें याद आता है, वह इतना ही है कि कितनी जल्दी उनके समुदाय ने उनका साथ छोड़ उन्हें अकेला कर दिया. उनका आखिर रास्ता उन्हें इसी कुष्ठ रोग की कॉलोनी में ले आया. उनका रोग धीरे धीरे ठीक हो गया लेकिन समय के साथ बूढ़े होने पर उन्हें कई अन्य बीमारियों का भी सामना करना पड़ा. '' कुष्ठ रोग ने मुझे पूरी जिंदगी धीरे धीरे मौत दी अब, जब वो ठीक हो गया मुझे लगा की मैं थोड़ी देर जिंदगी जी सकता हूं लेकिन डायबिटीज, मोतियाबिंद, हाई ब्लड प्रेशर ने मुझे बुरी तरह जकड़ लिया. अब केवल मौत मेरा इलाज कर सकती है.'' ये कहते हुए उनकी पहले से कमजोर हो चुकी आंखें डबडबा जाती हैं.
(Photo: ऐमन फयाज)
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
मूसा की नाक और उनके पूरे चेहरे पर रोग के कारण असर हुआ, वे इसी कुष्ठ रोग कॉलोनी में रहते हैं. हालांकि, बाद में सालों पहले ही उनका रोग ठीक हो गया लेकिन उन्हें त्वचा संबंधी विटिलिगो नामक रोग हो गया, जिससे उनकी त्वचा का रंग बदल गया और उसपर सफेद धब्बे आ गए.
(Photo: ऐमन फयाज)
कारगिल के रहने वाले ईसा बालती 95 साल के हैं. उनकी युवावस्था के ज्यादातर दिन अपनी पत्नी सफिया के साथ कुष्ठ रोग की कॉलोनी में बीती. उनका सफर तब शुरू हुआ, जब ईसा को उनके अपने गांव से इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि वो भी उसी नदी से पानी पीते थे, जिससे बाकी गांव के लोग पीते थे, इस वजह से वो बेहद डर गए. इस अन्यायपूर्ण बर्ताव के बाद ईसा को इस कॉलोनी में जगह मिली, जहां उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हुआ और वह बिना किसी कलंक के यहां रह सकते थे. ईसा की कहानी में एक बेहद दिलचस्प मोड़ आया आया, जब वो आदमी जिसने ईसा को गांव से बाहर निकाला था, वो खुद भी कुष्ठ रोग का शिकार हो गया और उसे भी कश्मीर के उसी कॉलोनी में लाया गया. जब वह आदमी उस कॉलोनी में पहुंचा, कॉलोनी का कोई सदस्य ईसा के साथ किए उसके दुर्व्यवहार की वजह से उसे अपनाने के लिए तैयार नहीं था. पर ईसा ने अद्भुत क्षमा, करुणा और स्नेह का परिचय देते हुए खुले दिल से उसका स्वागत किया और उसकी देखभाल की.
(Photo: ऐमन फयाज)
आगे चल कर ईशा को इसी काॅलोनी में रहने वाली एक मरीज सफिया से प्यार हो गया, दोनो ने जल्द ही शादी कर ली. इस रोग से ग्रस्त होने से उनका अनुभव एक जैसा था, जिससे उनके बीच वक्त बीतने के साथ एक बेहद गहरा रिश्ता बना. जब ईशा की प्रार्थना करते हुए तस्वीर ली जा रही थी उन्होनें अपनी पत्नी को मजाकिया अंदाज में चिढ़ाते हुए बुलाया और कहा, "सफिया, चलो, एक तस्वीर लेते हैं. अब हम स्टार बन गए हैं,". मेहमानों के सामने इस तरह से चिढ़ाने के लिए सफिया ने उन्हें प्यार से झिड़क दिया. ईसा का ये कहना कि ''हम नरक से गुजरे हैं'', यह उनकी पूरी जीवन-यात्रा को दिखाता है. '' बीमारी ने हम पर उतना असर नहीं किया जितना लोगों की रूढ़िवादी सोच ने किया. लोग हमसे बात भी नहीं करते थे, हमें देख कर थूकते थे और रास्ता बदल लेते थे.''
(Photo: ऐमन फयाज)
इस बीमारी ने कई रोगियों की आंखों को प्रभावित किया, जिससे वो पूरी जिंदगी के लिए अपनी आंखें खो बैठे. एक ऐसी ही मरीज सफूरा बेगम भी है, बीमारी की वजह से इनके चेहरे बिगड़ गया. वो हार्ट सर्जरी करवा चुकी हैं और लगातार बीमार रहती हैं. वो बताती हैं कि ''कभी-कभी मैं मौत के लिए दुआ मांगती हूं.'' ''मेरा चेहरा पूरी तरह से बदल चुका है. मैं बमुश्किल देख पाती हूं की मैं किससे बात कर रही हूं. धूप में बाहर निकलना बेहद मुश्किल है, रौशनी की वजह से मेरी त्वचा में इरीटेशन होता है, सबकुछ जैसे बहुत मुश्किल लगता है.''
(Photo: ऐमन फयाज)
जिन परिवारों में कुष्ठ रोग के मरीज ठीक हो गए या जिन्होंने भी अपने प्रियजनों को खो दिया, उन्होंने इसी कॉलोनी में नयी जिंदगी बसा ली. मगर इस बीमारी का कलंक पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहा, वो इससे कभी मुक्त नहीं हो सके. जबकि उन्हें कभी भी खुद इस बीमारी का शिकार नहीं होना पड़ा. दूसरी पीढ़ी के लोग को अक्सर रूढ़िवादिता का और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ा कि. वो कुष्ठ रोगियों के बच्चे हैं. चाहे स्कूल हो या उनके काम की जगह उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता, और अपमानजनक नामों से भी बुलाया जाता रहा है जबकि वो स्वयं पूरी तरह से स्वस्थ थे. तीसरी पीढ़ी के लोगों भी स्वयं को इस कभी ना खत्म होने वाले कलंक में जकड़ा हुआ पाते हैं.
(Photo: ऐमन फयाज)
ज्यादातर लोग जब इस कॉलोनी में पहुंचे तब वो कम उम्र के थे, इसलिए उन्हें हमेशा लगा कि ये कॉलोनी उनका घर है, ज्यादातर को तो अपनी पुरानी जगहें याद तक नहीं हैं. गुलाम मुहम्मद को बीमारी से ठीक हुए एक अरसा गुजर गया. यही कॉलोनी उनको उनका घर लगती है क्योंकि दुनिया में और कोई नहीं, जिसके पास वो जा सकें. उनके मां-बाप भाई-बहन सब गुजर चुके हैं. गुलाम मोहम्मद ने एक शांत सी आवाज में कहा कि.'' मैं भगवान की कृपा से खुश और संतुष्ट हूं. उन्होंने मेरे लिए ये जीवन चुना है और इस बात को मैंने बहुत पहले ही स्वीकार कर लिया था. हो सकता है मैंने जो तकलीफ सही है उसका फल मुझे दूसरी दुनिया में मिले.''
(Photo: ऐमन फयाज)
इस कॉलोनी का अपना कब्रिस्तान है, जिसमें यहां रहने वाले लोगों कि मृत शरीर को दफनाया जाता है. यह कब्रिस्तान बेहद जरूरी इस लिए बन गया क्योंकि कुष्ठ रोग के कारण इन लोगों को किसी भी अन्य कब्रिस्तान में नहीं दफनाया जा सकता है.