Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Photos Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019रंगाई से लेकर कोडिंग तक, तस्वीरों के जरिए जानें कैसे तैयार होती है कश्मीर की मशहूर कानी शॉल

रंगाई से लेकर कोडिंग तक, तस्वीरों के जरिए जानें कैसे तैयार होती है कश्मीर की मशहूर कानी शॉल

Kashmir Kani Shawls : कानी शॉल की बुनाई नजाकत के साथ की जाने वाली शिल्पकला है.

ऐमन फयाज़ & उमर डार
तस्वीरें
Published:
<div class="paragraphs"><p>रंगाई से लेकर कोडिंग तक,तस्वीरों के जरिए जानें कैसे तैयार होती है कश्मीर की मशहूर कानी शॉल </p></div>
i

रंगाई से लेकर कोडिंग तक,तस्वीरों के जरिए जानें कैसे तैयार होती है कश्मीर की मशहूर कानी शॉल

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

advertisement

कश्मीर (Kashmir) अपनी खूबसूरत हस्तकलाओं के लिए जाना जाता है और इन्हीं में से एक है कश्मीरी कानी शॉल (Kani Shawls). बेहद सलीके और सावधानी से बुनी जाने वाली ये शॉल करीब 300 साल से कश्मीर की विरासत का हिस्सा है. तस्वीरों के जरिए देखें कैसे तैयार होती है कॉनी शॉल.

इन शॉल को बनाने के लिए जो सबसे ज्यादा जरूरी है, वह पश्मीना है.पश्मीना एक खास तरह का ऊन है जो नायाब है क्योंकि यह घाटी के जलवायु और भूगोल में पाई जाने वाली एक खास तरह की बकरी से मिलता है. 

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

कनिहामा शहर के एक कमरे में जिसमें भीनी रोशनी ही दाखिल हो पा रही है, अब्दुल रशीद कुशलता से चरखे पर पश्मीना रेशम को घुमाते हैं और उन्हें बारीक धागों में तब्दील कर देते हैं.कानी शॉल बनाने की यह शुरुआती प्रकिया  धैर्य और सटीकता की मांग करती है. रेशम को काम लायक धागा बनाने में कई दिन बीत जाते हैं.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

हथकरघे से धागों को बुनने के बाद, उन्हें श्रीनगर लाया जाता है. यहां पश्मीना शॉल और धागों  को अलग-अलग रंगों के गर्म पानी में डुबोया जाता है. यह प्रकिया शॉल को डाई करने की है. 

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

17 वर्षीय सलमान भट्ट बताते हैं,"प्लेन पश्मीना धागा या शॉल सफेद रंग का होता है लेकिन यहां (फैक्ट्री में) हम उन्हें आकर्षक बनाने के लिए उन पर रंग चढ़ाते हैं. मेरे परिवार की वित्तीय स्थिति की वजह से मुझे ये काम करना पड़ गया और रंगों के बीच मुझे सुकून मिलता है." सलमान पश्मीना और रंगों के बीच जटिल लगातार प्रक्रिया से गुजरते हैं. वह इसके प्रति अपने गहरे लगाव को जाहिर करते हैं. "रंग मेरे अस्तित्व को परिभाषित करता है. मुझे नहीं लगता कि मुझे कहीं और ऐसी संतुष्टि और स्थिरता मिल सकती थी."

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

एक शांत पूल रंगों के एक अति सुंदर मिश्रण को दर्शाता है, श्रीनगर के रंगरेज कारखाना में अपनी सतह पर एक मंत्रमुग्ध करने वाली बैंगनी टिंट को ढालता है. रंगाई प्रक्रिया से गुजरने के बाद धागों को करघे में कसा जाता है. इस प्रकिया के बाद शुरुआत होती है कानी शॉल बनाने की महीनों की लंबी यात्रा. 

फोटो: ऐमन फैयाज और उमर डार

कानी शॉल की बुनाई नजाकत के साथ की जाने वाली शिल्पकला है. इसकी बुनाई लकड़ी की छोटी छड़ियों के सहारे की जाती है. इन छोटी छड़ियों को 'कानी' कहा जाता है. कारीगर इन छड़ियों के चारों ओर रंगीन धागे लपेटते हैं जिससे शॉल पर सुंदर पैटर्न बनते हैं. ये छड़ियां जंगल की एक विशेष लकड़ी से बनाई जाती है, जिसे 'पूस तुल' कहा जाता है. कानी शॉल के आकर्षण में ये अहम भूमिका निभाता है.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

इस प्रक्रिया में 'तालिम' नामक एक अनूठी प्रणाली या कोड का इस्तेमाल होता है. इसकी जानकारी केवल स्थानीय बुनकरों को होती है. ये कोड किसी विशेष कानी शॉल के लिए प्रत्येक धागे की गहनता और रंग को तय करते हैं. कानी शॉल बनाने वाली इरम मीर इस प्रक्रिया का जिक्र करते हुए कहती हैं, "हमें बुनाई के लिए लकड़ी की छड़ी उठाने से पहले कानी शॉल की सटीक रेखागणित का अध्ययन करना होगा."

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

पश्मीना धागे को एक हथकरघा में जटिल तरीके से लगाया जाता है ताकि एक बाधारहित बुनाई हो सके. कश्मीर के कनिहामा की रहने वाली 30 साल की शाहीना अपने हथकरघा पर लकड़ी की सुइयों का इस्तेमाल करके कानी शॉल के कुछ सेंटीमीटर को सावधानीपूर्वक तैयार करने के लिए हर दिन 14 घंटे देती हैं.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

कानी शॉल को पूरा करने में लगने वाला समय इसमें शामिल भूलभुलैया पैटर्न और डिजाइनों की जटिलता के आधार पर काफी अलग होता है. एक कानी शॉल को पूरा करने में तीन से 36 महीने तक का समय लग सकता है.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

सोलह साल की बिस्मा ने अपने भाइयों और चचेरे भाइयों से बुनाई सीखी. वे दशकों से इस कला में शामिल हैं. कनिहामा गांव में अध्ययन करना और बुनाई कौशल हासिल करना एक निरंतर चली आ रही प्रथा है. बिस्मा बुनाई को सिर्फ एक शिल्प से भी कहीं ज्यादा मानती हैं. यह एक सांस्कृतिक विरासत है जिसे आगे ले जाने पर उन्हें गर्व है.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

एक बार कानी शॉल तैयार हो जाने के बाद इसे धोने के लिए श्रीनगर ले जाया जाता है. यह प्रक्रिया किसी भी जमा गंदगी या अशुद्धियों को हटाने के लिए आवश्यक है. ये गंदगी महीनों के शॉल बनाने के प्रकिया के दौरान जमा हो जाती है. श्रीनगर के धोबी घाट पर रहने वाले 65 साल के धोबी अली मोहम्मद ने अपनी जिंदगी के 50 साल इस कला को समर्पित कर दिया है.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

उन्हें अपने पिता से अपनी यह कारीगरी विरासत में मिली और तब से वह अपने व्यापार के मास्टर बन गए हैं. बदलते वक्त पर मोहम्मद ने अफसोस जताया और बोले, "विदेशी हमें अपनी कीमती शॉल और कपड़े धोने का काम सौंपते थे, जिससे आमदनी ठीक ठाक हो जाती थी लेकिन आज इस पेशे से कमाई करना मुश्किल हो गया है."

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

धोबी श्रीनगर के शहर-ए-खास में झेलम नदी के किनारे अलग-अलग डिटर्जेंट के साथ शॉलों को काफी शिद्दत से धोते हैं.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

शॉल को बाद में धोबी घाट से पुल के उलटी दिशा में लटका दिया जाता है. यहां शॉल को सूखने के लिए धूप दिखाया जाता है.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

पश्मीना के धागों को सूत में बदलने से लेकर  कानी शॉल धोने तक, इन शॉलों को बनाने में बहुत मेहनत और रचनात्मकता की दरकार होती  है. कानी शॉल बनाने का यह पुराना तरीका न केवल सुंदर कला बनाता है बल्कि लोगों को शिल्प से करीबी से जोड़े रखते हुए जीवन यापन करने में भी मदद करता है.

फोटो: ऐमन फयाज़ और उमर डार

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT