Home Photos लखनऊ की मशहूर चिकनकारी: ब्लॉक प्रिंटिंग से सिलाई तक, तस्वीरों में देखिए पूरी प्रक्रिया
लखनऊ की मशहूर चिकनकारी: ब्लॉक प्रिंटिंग से सिलाई तक, तस्वीरों में देखिए पूरी प्रक्रिया
Lucknow Chikankari: चिकनकारी कढ़ाई एक ऐसी कारीगरी है जो महीन सूती कपड़े पर सफेद सूती धागे के नाजुक इस्तेमाल से तैयार होती है.
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लखनऊ की मशहूर चिकनकारी, फोटो के जरिए जानिए कैसे होती है तैयार
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
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लखनऊ (Lucknow) का वर्ल्ड फेमस चिकन का कपड़ा एक सदियों पुरानी प्रक्रिया के तहत तैयार होता है. लखनवी चिकनकारी (Chikankari) के कारीगर न केवल अपनी आजीविका के लिए इससे जुड़े है बल्कि इस कला से उनको खास लगाव भी है. तस्वीरों के जरिए देखिए ब्लॉक प्रिंटिंग से लेकर सिलाई तक की पूरी प्रक्रिया.
लखनऊ का एक कमरा जिसमें हल्की रोशनी ही दाखिल हो पा रही है. कारीगर द्वारा कोरे सफेद कपड़े पर ब्लॉक प्रिंटिंग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. यह चिकनकारी की कला और इसके कारीगरी को दर्शाता है.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
छपाई को करीब से देखने पर पता चलता है कि लकड़ी का ब्लॉक नीले रंग में डुबा हुआ है. यह नीला रंग नील और गोंद के मिश्रण से तैयार होता है.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
बुनाई के लिए तैयार प्रिंटेड कपड़े फिर कारीगर द्वारा कारखानों में पहुंचाए जाते हैं.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
एक लकड़ी के फ्रेम में कपड़े को कसकर लगा दिया जाता है. फिर प्रिंट किए डिजाइन के पैटर्न के उपर कारीगर सुई-धागा से कढ़ाई करते हैं.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
चिकनकारी कढ़ाई में करीब 32 प्रकार के टांके होते हैं. कारीगर डिजाइन के आधार पर सिलाई का तरीका चुनते हैं. यहां बखिया- डबल बैक या छाया सिलाई की जा रही है.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
लखनऊ के एक पुराने कारखाने में गोटा पट्टी के जरिए चिकनकारी कढ़ाई की एक झलक.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
लखनऊ के दौलतगंज की रहने वाली 60 साल की सकीना हर धागे के साथ कहानियां बुन रही हैं. सदियों के परंपरा और प्रेम की कहानी को संजोए ये धागे चिकनकारी कढ़ाई में जान डाल देते हैं. वो हाथ जो बरसों से इतिहास के अमानत को बचाए हुए हैं उन हाथों को करीब से कैद किया गया है. सकीना दो दशक से इस इंडस्ट्री का हिस्सा हैं.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
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बुनाई का काम पूरा होने के बाद कपड़े पर से ब्लॉक-प्रिंटेड नीले रंग की डाई हटाने के लिए धोबीघाट भेजा जाता है.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
लखनऊ के धोबीघाट पर 38 वर्षीय धोबी मोहम्मद इमरान लगभग 15 साल से यह काम कर रहे हैं. उन्होने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए यह काम जारी रखा क्योंकि यही एकमात्र तरीका था जिससे वह अपनी आजीविका कमा सकते थे. इमरान ने कहा, "आज, लोग धोबियों और मशीन से बने कपड़ों के बजाय वॉशिंग मशीन पसंद करते हैं जिसकी वजह से हमारी आय पहले के मुकाबले कम हो गयी है.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
बाद में कपड़े पर रंग चढ़ाया जाता है. तस्वीर में कपड़े को डाई-वॉटर से बाहर निकाला जा रहा है. 30 वर्षीय नुसरत खान अपने परिवार की इस कारीगरी से जुड़ाव के बारे में बात करते हुए बताते हैं कि "यह सिर्फ एक पेशा नहीं है; एक विरासत है. रंग चढ़ाने की हर डुबकी में मैं अपने परिवार से मिली इस अमानत को महसूस करता हूं. डाई कितने बेहतर तरीके से हो रही है इस बात पर ही मेरे परिवार का भरण-पोषण निर्भर करता है. कपड़ो को डाई करने की ये कला पीढ़ियों से चली आ रही है. यह काम हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य को परिभाषित करता है."
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
डाई किए कपड़े को टाइट करने के लिए उसे स्टार्च किया जाता है और फिर इस्त्री.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
घाट पर धूप में सूखने के लिए कपड़े को बांस के खंभों पर लटका दिया जाता है.
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
पुराने लखनऊ में धोबीघाट का बर्ड आई व्यू (Bird Eye View).
फोटो: मिर्जा शाइना बेग और साकिबा खान
ये बेशकिमती पीस इंसानी हाथों और कलात्मक दृष्टि के मेल का नतीजा है. कपड़े को तैयार करने की ये सदियों पुरानी प्रक्रिया चिकनकारी के मूल को बरकरार रखती है. और इस बात से यह साबित होता है की इस काम से आजीविका के लिए जुड़े लोग भावनात्मक रूप से भी कला से जुड़े हैं.