एक समय था जब शादी ब्याह, त्योहार, मनोरंजन जैसे समारोहों में पौराणिक कलाओं का प्रदर्शनी देखने को मिलता था, लेकिन आज के आधुनिक दौर में ये न के बराबर देखने को मिलती हैं. चाहे रासलीला हो, बहरूपिया कला, जात्रा पाला, नौटंकी या तमाशा हो. इतना ही नहीं आज के तकनीकी विकास और मनोरंजन के विभिन्न विकल्प के दौर में कोहबर जैसे पारंपरिक वैवाहिक कला विलुप्त होने की कगार पर है. तो आइये 'वर्ल्ड आर्ट डे' (World Art Day) के इस खास मौके पर जानते हैं उन कलाओं के बारे में जो विलुप्त हो रही हैं.

<div class="paragraphs"><p>(फोटोः फेसबुक)</p></div>

बहरूपिया कलाः बदलते जमाने के साथ साथ बहरूपिया का भी जमाना चला गया. गांव-गांव व कस्बों में महीनों तक अपनी रंग रूप साज-सज्जा को विभिन्न परिधानों से सुसज्जित कर लोगों का मनोरंजन करना ही बहरूपियों की कला हुआ करती थी, लेकिन आज के तकनीकी दौर में भारतीय लोक संस्कृति कला विलुप्त होती जा रही है.बता दें कि भारत में बहुरूप धारण करने की कला बहुत पुरानी है. राजाओं-महराजाओं के समय बहुरूपिया कलाकारों को हुकूमतों का सहारा मिलता था. लेकिन अब ये कलाकार और कला दोनों मुश्किल में है.

(फोटोः फेसबुक)

जात्रा पालाः जात्रा पाला   बंगाल की एक प्राचीन लोक कला है, जो विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम मंडलियों द्वारा गांव-गांव में आयोजित की जाती थी. इस नाटक के जरिए नृत्यु, संगीत और अभिनय की खूबसूरत जुगलबंदी हुआ करती थी. साथ ही ये अधिकतर पौराणिक काल की किसी घटना से प्रेरित होती थी. इतना ही नहीं 20वीं शताब्दी के दौरान इस कला ने पौराणिक ज्ञान और लोगों में देशभक्ति की भावना को जगाने में अहम निभाई थी, लेकिन आज ये कला मुश्किल से देखने मिलेगी.

(फोटोः फेसबुक)

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नौटंकीः उत्तर प्रदेश की मशहूर नौटंकी भी विलुप्त होने की कगार पर है. बता दें कि नौटंकी एक रंगमंच है, जिसमें संगीत, नृत्यु, अभिनय, हास्य, कहानी व संवाद का मिश्रण होता है. माना जाता है कि इस कला की शुरुआत 19वीं शताब्दी के दौरान उत्तर प्रदेश में हुई थी. उस दौरान इस कला के जरिए धार्मिक व पौराणिक कथाओं को पिरो कर दिखाया जाता था, लेकिन बाद में इसमें सामाजिक चीजें दिखाई जाने लगी. हालांकि समय के साथ इसमें काफी बदलाव हुए और अब इसका चलन बहुत ही सीमित तक रह गया है.  

(फोटोः विकिपीडिया)

भवई कलाः दो शब्दों के मेल से बना गुजरात के भवई कला का इतिहास काफी पुराना है. ये भवई कला भाव यानी भावना और वई यानी वाहक से मिलकर बना है. माना जाता है कि गुजरात के भवई का इतिहास करीब 700 साल पुराना है. इस कला का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ जन जागरुकता को बढ़ाना था. इस कला के द्वारा किसी सरल कहानी को हास्य रूप में प्रस्तुत किया जाता था. वहीं, इसकी मूल भाषा गुजराती थी, हालांकि इस पर हिन्दी, उर्दू व माराड़ी का भी रंग देखा गया. जिसमें मुख्य रूप से पुरुष हिस्सा लेते थे और स्त्रियों का रूप धारण करते थे, लेकिन अब ये कला विलुप्त होने के कगार पर है.  

(फोटोः फेसबुक)

कोहबर कलाः बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में प्रचलित कोहबर कला का इतिहास 30000 -10000 ई. सा. पूर्व का हैं. इन राज्यों में ये कला वैवाहिक उत्सव में बनायी जाती थी. इस कला में ज्यामितिय आकार, लता, पुष्प, पौधें, जानवर , पक्षीयों, हल, ओखल-मुशवल जैसे घरेलू बस्तुओं का आकार दिया जाता था. इसके साथ ही हाथ और पैरों के छाप, देवी-देवता और कुल देवता आदि का चित्रांकन होता था, लेकिन समय के साथ ये कला ना के बराबर देखने को मिलती है.

(फोटोः फेसबुक)

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