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हेलंग, अंकिता कांड...उत्तराखंड में 2022 महिला आंदोलनों के नाम रहा

2022 ही नहीं उत्तराखंड के लगभग हर आंदोलन में महिलाओं की बड़ी भूमिका रही है

हिमांशु जोशी
ब्लॉग
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<div class="paragraphs"><p>उत्तराखंड  आंदोलनों में महिला और मोबाइल की भूमिका.</p></div>
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उत्तराखंड आंदोलनों में महिला और मोबाइल की भूमिका.

(फोटोः हिंदी क्विंट)

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इस सितंबर की बात है जब उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के भिकियासैंण में प्रेम विवाह करने पर ससुराल वालों ने अपहरण के बाद उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के दलित नेता जगदीश चंद्र की हत्या कर दी, इस हत्या के खिलाफ पूरे उत्तराखंड में प्रदर्शन हुए. अब ये साल जाते-जाते जोशीमठ में अपने घरों को बचाने के लिए जुटी आंदोलित भीड़ का दिखाई देना उत्तराखंड के लिए नया नहींं है.

उत्तराखंड राज्य का आंदोलनों से गहरा नाता रहा है. दशकों के आंदोलन के बाद उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद 9 नवम्बर, 2000 को इस राज्य का गठन हुआ था. उत्तराखंड के इतिहास में ऐसे बहुत से आंदोलन हैं, जिन्हें आज भी याद किया जाता है. आजादी के बाद साल 1949 में हुए टिहरी राज्य आंदोलन की वजह से टिहरी में राजशाही समाप्त हुई और ये उत्तर प्रदेश का एक जिला बना. सत्तर के दशक में चमोली जिले के रैणी गांव की गौरा देवी ने चिपको आंदोलन शुरू किया. महिलाओं का पेड़ों से चिपक कर उन्हें कटने से बचाने वाला ये आंदोलन पूरी दुनिया के पर्यावरण प्रेमियों के बीच आज भी एक मिसाल के तौर पर याद किया जाता है. उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी द्वारा साल 1984 में 'शराब नहीं रोजगार दो' आंदोलन में उत्तराखंड की महिलाओं ने जिस तरह भागीदारी की थी, उसे आज भी याद किया जाता है.

साल 1984 में हुए मैती आंदोलन ने समाज में पर्यावरण के प्रति लगाव पैदा किया, इस आंदोलन में लड़की अपनी शादी के समय अपने मायके में पेड़ लगा कर जाती थी.

साल 2022 में उत्तराखंड के आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका

अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने और समाज में व्याप्त कुरीतियों को लेकर साल 2022 में उत्तराखंड के लोग जिस तरह से सड़कों पर उतरे, उससे ये तो साफ हो गया कि उत्तराखंड की जनता संघर्षों से मिले अपने इस प्रदेश में अपनी शर्तों पर जीना चाहती है.

उत्तराखंड के आंदोलनों में महिलाओं की हमेशा बढ़ चढ़कर भागीदारी रही है. साल 2022 में उत्तराखंड के लगभग हर बड़े आंदोलन को करीब से देखने वाले त्रिलोचन भट्ट ने बताया.

साल 2022 का वर्ष उत्तराखंड के लिए एक बार फिर आंदोलनों के नाम रहा, राज्य के आंदोलनों की अगुवाई महिलाओं के हाथ रही. अंकिता हत्याकांड के राज्यव्यापी आंदोलन से पहले इस वर्ष उत्तराखंड में हेलंग आंदोलन सबसे जोरदार तरीके से चला. चमोली जिले के हेलंग का एक वीडियो जुलाई के महीने में सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. इस वीडियो में हेलंग-पीपलकोटी जल विद्युत परियोजना की सुरक्षा में तैनात केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल और स्थानीय पुलिस के जवान महिलाओं की पीठ पर लदा घास का गट्ठर छीनते नजर आए. जिस महिला के साथ ये बदसलूकी की गई उनका नाम मंदोदरी देवी बताया गया जो हेलंग गांव की रहने वाली थी.

पूरे उत्तराखंड में इस वीडियो को लेकर हलचल हुई और इसे उत्तराखंड में महिलाओं की अस्मिता पर हमला माना गया. उत्तराखंड आंदोलन में अग्रणी भूमिका में रही 'उत्तराखंड महिला मंच' ने पूरे हेलंग आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. खासकर देहरादून, नैनीताल और हल्द्वानी में महिला मंच से जुड़ी महिलाओं की सक्रियता ने इस आंदोलन को हवा दी. इसके साथ ही राज्य के तमाम अन्य जन सरोकारों से जुड़े संगठनों ने भी इस आंदोलन में हिस्सेदारी की.

दो बार हेलंग चलो का सफल आयोजन हुआ, कुमाऊं कमिश्नरी का घेराव किया गया और देहरादून में भी गढ़वाल कमिश्नर कार्यालय पर महिलाओं की अगुआई में प्रदर्शन किया गया.
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अंकिता हत्याकांड में भी राज्यभर में चलाए गए आंदोलन में महिलाएं अग्रणी भूमिका में रही. ऋषिकेश में यूकेडी और अन्य संगठनों से जुड़ी तमाम महिलाएं हत्याकांड के बाद से ही लगातार सड़कों पर रही. पुलिस से भिड़ी, गिरफ्तार हुई और फिर लंबा धरना भी चला. इस धरने में महिलाएं रात-दिन धरना स्थल पर जुटी रहीं. अंकिता मामले को लेकर देहरादून में भी हुए धरने-प्रदर्शनों में भी महिलाओं की भूमिका अग्रणी रहीं. खासकर 2 अक्टूबर को राज्यव्यापी बंद के दौरान दून की सड़कों पर उमड़े हुजूम में महिलाओं की संख्या उल्लेखनीय थीं.

इस वर्ष राज्य में एक ऐसा आंदोलन भी हुआ, जिसे पूरी तरह महिलाओं ने चलाया, यह आंदोलन अब भी चल रहा है. चमोली जिले के थराली ब्लॉक के जबरकोट में गांव वालों की सहमति के बिना एक स्टोन क्रशर लगाया जा रहा है. गांव की महिलाओं ने इस स्टोन क्रशर के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दिया. महिलाओं का कहना था कि गांव के पास स्कूल के ठीक नीचे लगाये जा रहे इस स्टोन क्रेशर से गांव की हवा खराब होगी, लोग टीबी और केंसर जैसी बीमारियों की चपेट में आएंगे और गांव वालों की खेती भी बर्बाद होगी.

राजधानी देहरादून में पेड़ काटने के खिलाफ इस वर्ष कई आंदोलन हुए. सहस्रधारा रोड और मोहंड में बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए. इन दोनों स्थानों पर आंदोलन हुए और दोनों जगहों पर महिलाओं, खासकर छात्राओं की उपस्थिति अन्य लोगों से ज्यादा रही. पेड़ बचाने के इन आंदोलनों में बड़ी संख्या में छात्राएं पेड़ों से लिपटती और पुलिस से उलझती नजर आई.

इन आंदोलनों में मोबाइल की भूमिका

अखबारों, रेडियो और टेलीविजन के बाद अब विश्व भर के हर आंदोलनों में मोबाइल का बहुत प्रभाव पड़ा है. हाल ही में तालिबान द्वारा शिक्षा से महरूम कर दी गई अफगानी महिलाओं ने भी मोबाइल के जरिए एकजुट होकर तालिबान के इस निर्णय का विरोध करना शुरु कर दिया है.

वहीं उत्तराखंड के दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्रों में भी मोबाइल की वजह से आंदोलनों को गति मिली है. इस पर बात करते एक्टिविस्ट अतुल सती बताते हैं.

हेलंग आंदोलन में आम जनता मोबाइल की वजह से ही दूर-दूर तक के इलाकों से भी इस आंदोलन से जुड़ी. मोबाइल से ही सीआइएसएफ जवानों द्वारा घास छीनने की वीडियो बनी और इसके वायरल होने से इस घटना ने आंदोलन का रूप ले लिया.

अतुल बताते हैं कि जब मेरा पिथौरागढ़ जाना हुआ, तब वहां के मजदूर भी हेलंग की घटना को जानते थे. यही मुझे कलकत्ता, सेवाग्राम में जाने पर सुनने को मिला. हां, इस आंदोलन में स्थानीय भागीदारी कम थी, क्योंकि इस मामले को सिर्फ दो-तीन परिवारों का निजी मामला बना दिया गया था.

सुरंग की वजह से धंस रहा है जोशीमठ

तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना के लिए बनाई जा रही सुरंग की वजह से जोशीमठ धंस रहा है. साल 2003 से हम लोग इस पर बोल रहे थे, तब अखबारों में आई खबरों की वजह से इस पर थोड़ी हलचल होती थी. लेकिन अब मोबाइल में लोग इस पर बनाए वीडियो खुद देख रहे हैं. मकानों में पड़ी दरारों के दृश्य देखने के बाद वो इस मामले की गंभीरता को समझ रहे हैं. अभी इसके लिए हुए आंदोलन में तीन हजार लोग एकत्रित हुए और ये सिर्फ मोबाइल की वजह से ही संभव हुआ है.

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