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औरतें ज्यादा गुस्सा हो रहीं, ये अच्छा है, ईरान-शाहीनबाग से #MeToo तक गवाह हैं

महिलाओं से गुस्सा न करने की उम्मीद की जाती है, कभी उन्हें इसके लिए सजा भी दी जाती थी.

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इकोसॉक ने हाल ही में ईरान को अपनी एक संस्था सीएसडब्ल्यू से निकालने के लिए प्रस्ताव पारित किया. इसकी वजह ईरान में हिजाब विरोधी आंदोलन और महिलाओं का दमन है, लेकिन जिन देशों ने इस प्रस्ताव पर वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया, उनमें से एक भारत भी है. बेशक, भारत को ईरान पर गुस्सा नहीं आता. यह बात और है कि भारत की औरतों को बहुत गुस्सा आता है. गैलप के एक सर्वे में कहा गया है कि पिछले 10 सालों में 150 देशों की औरतों में आदमियों के मुकाबले गुस्सा बढ़ा है, और भारत में तो और भी. यहां 41 प्रतिशत से ज्यादा औरतों ने कहा है कि पिछले एक साल के दौरान वे ज्यादा गुस्सैल हुई हैं. जबकि ऐसा करने वाले आदमियों का हिस्सा करीब 28 प्रतिशत ही है.

यह गुस्सा आखिर है किस-किस पर?

यूं तकनीकी रूप से गुस्सा दुख का तीसरा चरण होता है, लेकिन जब आप एक ऐसी दुनिया में रहें, जहां शोषण, हिंसा, तबाही, गैर-बराबरी हो... तो यह आपकी पहली प्रतिक्रिया बन जाता है. औरतों के लिए भी यही बात सच साबित होती है. ऐसी कौन सी बात है, जिस पर गुस्सा न आए. शिक्षा, रोजगार न मिलना. रोजगार मिलने पर आदमियों की तुलना में, एक बराबर काम पर, बराबर तनख्वाह न मिलना. घर काम की दोहरी जिम्मेदारी होना. शादी के बाद ससुरालियों की उम्मीदों पर खरा उतरना. फिर घरेलू हिंसा, यौन शोषण का डर. शिकायत करने पर नसीहत. महामारी ने इस खौफ को और बढ़ाया है और औरतों पर ज्यादा दबाव बनाया है. बहुत सी औरतें श्रम बाजार से इसीलिए बाहर हो गईं, क्योंकि उन्हें बच्चों-परिवार की देखभाल करनी थी. ग्लोबल स्टडीज ने बताया है कि औसतन, महिलाओं ने महामारी के दौरान पुरुषों के मुकाबले बच्चों की देखभाल तीन गुना ज्यादा की है.

ये सब वजहें काफी हैं कि कोई परेशान हो जाए और गुस्सा करने लगे. साल भर पहले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने कहा था (तब वह प्रधानमंत्री नहीं थे)- "हमें मांओं का ऋणी होना चाहिए, क्योंकि वे संकटमय दौर में बच्चों की देखभाल और काम, दोनों कर रही हैं." तो इस भ्रम को फैलाने के लिए कइयों ने उनकी आलोचना की थी कि औरतें सेवा करने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं और बदले में कोई पुरस्कार नहीं, बस प्यार चाहती हैं.
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किसके गुस्से को नियंत्रित करना जरूरी है, और क्यों?

इसी भ्रम को पुख्ता करने के लिए औरतों को अक्सर यह हिदायत भी दी जाती है कि गुस्सा करना सही नहीं. हमारी परंपराओं में गुस्सा ऐसा भाव है जिस पर काबू करना जरूरी माना गया है. धर्मशास्त्र मानव के छह विकारों की बात करते हैं. इनमें गुस्सा भी एक है. फिर भी पुरुष के लिए गुस्सा जायज है, क्योंकि वह पौरुष का प्रतीक है. लड़कों को बचपन से सिखाया जाता है कि सॉफ्ट इमोशंस, रोना, डर, दुख और सहानुभूति कमजोरी की निशानी हैं. दूसरी तरफ, औरतों को सिखाया जाता है कि अपनी भावनाओं को काबू में रखे. न जोर से हंसें, न हैरान हों, न गुस्सा करें. गुस्सैल औरतों को अशोभनीय, अभद्र माना जाता है. खासकर, अगर वे नामचीन हों तो उनके लिए नाराजगी का चरम होता है. दुनिया भर में.

इसलिए अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन अपने पूरे करियर में गुस्सा दबाने के दबाव में रहीं, और वर्तमान उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस को, सीएनएन अपने मन के भाव जाहिर करने पर 'हिस्टेरिकल' यानी सनकी कह देता है. जर्मनी की पूर्व चांसलर एंजेला मार्केल अपने 30 साल के करियर में इनविजिबल, अननोटिसिबेल बनी रहीं. और भारत में ममता बैनर्जी से एक मशहूर अंग्रेजी अखबार सवाल कर देता है कि वह इतनी बेसब्र और लाउड क्यों हैं.

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गुस्सा करने पर सजा

यह जानना दिलचस्प है कि एक समय ऐसा भी था, जब औरतों को गुस्सा जाहिर करने की सजा भी मिलती थी. शब्दशः स्कॉटलैंड, ब्रिटेन और अमेरिका में भी 16वीं शताब्दी में सार्वजनिक तौर पर गुस्सा जताने वाली औरतों के मुंह और जुबान पर लोहे के मास्क लगा दिए जाते थे — जिसे स्कोल्ड्स ब्रिडल्स कहा जाता था. इस डिवाइस के दो फायदे थे. एक तो, सार्वजनिक शर्मिंदगी, और दूसरा, जुबान को दबाकर यह सुनिश्चित किया जाता था कि बदजुबान औरतों, बदजुबानी न कर सकें. इस ब्रिडल को बनाने वाले आज का सच समझ गए थे. गुस्सा, अगर औरतों को आता है, तो विघटनकारी हो सकता है. गैर बराबरी से भरी दुनिया में बेलगाम, धृष्ट, अधीर औरतों का गुस्सा दुनिया की बुनियाद को हिलाकर रख सकता है. चूंकि यथास्थिति की नींव बहुत नाजुक है. इसलिए सवाल यह भी है कि किसके गुस्से को नियंत्रित करना जरूरी है, और क्यों?

जब एक पुरुष किसी लड़की का यौन शोषण करता है ताकि ‘उसे सबक सिखाया जा सके,’ तो नैतिकता के पहरेदार उसके गुस्से को जायज कहते हैं. गुस्सा तब हथियार बन जाता है, जब माता-पिता बच्चों, खासकर लड़कियों को ‘अनुशासन’ में रखने के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं.

दरअसल, जब नाराजगी और रोष को किसी एक जेंडर के लिए रिजर्व कर दिया जाता है, तो दूसरे जेंडर्स को कभी कोई एजेंसी नहीं मिलती. जब विनम्रता और चुप्पी को बेशकीमती माना जाता है, तो औरतें आदर्श की मूर्ति, प्रतीक और मिसाल बना दी जाती हैं, जो सभी से जुड़ी है, लेकिन खुद अपने लिए नहीं है.

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लेकिन गुस्सा जरूरी है

पर गुस्सा जरूरी है. उसे जाहिर करना जरूरी है. उसे जाहिर न करने से कई तरह की शारीरिक और मानसिक बीमारियां हो सकती हैं. जैसे एन्जाइटी, डिप्रेशन, हाइपरटेंशन, थकान और दर्द. यह भी है कि गुस्से के बिना कोई सामाजिक बदलाव नहीं होता. अहिंसा के हिमायती भी यह मानने को तैयार होंगे कि अगर गांधी को दक्षिण अफ्रीका में रेलगाड़ी से नहीं उतारा जाता, तो विश्व इतिहास में सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन की शुरुआत नहीं होती. 1981 में मशहूर अमेरिकी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता ऑड्रे लॉर्ड ने एक फेमिनिस्ट कॉन्फ्रेंस में कहा था, "नस्लवाद के लिए मेरी प्रतिक्रिया गुस्सा है. मैं गुस्से के साथ जिंदगी बिताई है, यह सीखा है कि कैसे उसका इस्तेमाल अच्छे के लिए किया जाए."

यानी गुस्सा सामान्य है, स्वस्थ होने की निशान है और नाइंसाफी के खिलाफ हमारी सहज प्रक्रिया.
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अमेरिकी लेखक और एक्टिविस्ट सोराया चेमली की किताब है, रेज बिकम्स हर. उसमें उन्होंने कहा है कि औरतें अक्सर अपने गुस्से को भूल जाती हैं. लेकिन औरत होने के नाते, हमारा सबसे बड़ा रिसोर्स गुस्सा ही है. यह विनाश नहीं, व्यक्तिगत और राजनीतिक दमन के खिलाफ हमारा हथियार बनता है. गुस्सा हमारे रास्ते का रोड़ा नहीं, रास्ता ही बनता है. ऐसी खबरें आईं कि ईरान में हाल ही में हिजाब आंदोलन की वजह से मॉरल पुलिस खत्म की गई, हालांकि, इसके सच होने पर शक है.

1913 में अमेरिका की महिला सर्फेज परेड ने औरतों को वोटिंग का हक दिलाया. 1956 में प्रिटोरिया में महिला प्रदर्शनों ने पास लॉ को वापस लेने को मजबूर किया, जिसके तहत ब्लैक लोगो के मूवमेंट पर पाबंदी लगाई गई थी. 24 अक्टूबर 1975 को, आइसलैंड में 25,000 औरतों के एक दिवसीय प्रदर्शन को विमेंस डे ऑफ नाम दिया गया (यानी उस एक दिन देश की 95% औरतें ने घर काम नहीं किया था) जो जेंडर वेज गैप के खिलाफ था. 2016 में पोलैंड में गर्भपात के पक्ष में और अर्जेंटीना में हिंसा के खिलाफ औरतों का प्रदर्शन भी इसी गुस्से का रूप हैं.

भारत में भी चिपको आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, आंध्र प्रदेश का शराब विरोधी आंदोलन, अफस्पा के खिलाफ इरोम शर्मिला और मणिपुरी मदर्स का आंदोलन, कई बदलाव लेकर आए. हाल ही में शाहीन बाग में सीएए के विरोध में बैठी औरतों ने साबित किया कि औरतों का गुस्सा, उनकी एकजुटता को चिन्ह है.

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दुनिया भर में यौन शोषण के खिलाफ #MeToo इसी मेलजोल का नतीजा है. 2017 में इसकी शुरुआत हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वी वाइंस्टीन के खिलाफ आरोपों के साथ हुई थी. इस सिलसिले में जब हॉलीवुड ऐक्ट्रेस उमा थ्रूमैन से मीडिया ने सवाल पूछे थे तो उन्होंने पलटकर कहा था, "मैं इतने गुस्से में हूं कि अभी जवाब नहीं दे सकती." इस पर अखबारों ने लिखा था- 'उमा थ्रूमैन का पावरफुल रिस्पांस.' उमा थ्रूमैन हॉलीवुड में यौन शोषण से नाराज हैं और यह इस वीकेंड की सबसे रिटेबल थिंग है. किसी सेलेब्रिटी का गुस्सा वायरल हुआ था. अमेरिकी पब्लिक ने एक गुस्सैल औरत की वाहवाही की थी. अभी हाल ही में संसद में वित्त मंत्री के बयान के बाद टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा का भाषण भी वायरल हुआ. वह पूछ रही हैं, "अब बताइए, कौन पप्पू है." इस बार भारतीय पब्लिक भी एक गुस्सैल औरत के लिए तालियां बजा रही है.

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