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राधा आज फिर स्कूल नहीं जा पाई, उसका भाई, पिता के साथ काम करवाने चला गया और मां के बीमार हो जाने के कारण उसे बंगलों में काम करने जाना है. अक्सर यही होता है. वो और उसका भाई स्कूल में दाखिला होने के बावजूद बहुत कम ही स्कूल जा पाते हैं, या तो उन्हें माता-पिता के साथ काम करवाने जाना पड़ता है या घर रहकर छोटे भाई-बहनों को संभालते हुए घर के काम करने पड़ते हैं. इसी वजह से वे पढाई में पिछड़ते जा रहे हैं.
जब वे यह बात मां से कहते हैं तो वह उन्हें बस्ती के उन बच्चों का उदाहरण देकर उलाहना देने लग जाती हैं, जिनका स्कूल में दाखिला ही नहीं हुआ है और वे नियमित रूप से काम पर भी जाते हैं. मां का कहना है कम से कम तुम्हारा दाखिला तो करवाया है और हम तुम्हें रोज काम पर नहीं भेजते हैं.
राधा और उसके भाई जैसे कई बच्चे, अपने परिवारों में मदद के नाम पर जो काम करते हैं, वो बाल-श्रम (Child Labour) है. कई लोगों को यह भ्रम है की पारिवारिक व्यवसाय या परिवार में काम करना बाल-श्रम नहीं है.
वहीं यूनिसेफ का कहना है कि एक बच्चा बाल-श्रमिक है यदि उसकी आयु 5 से 11 वर्ष के बीच है और जो एक सप्ताह में 1 घंटे कोई वित्तीय गतिविधि करता है या पूरे सप्ताह में कम से कम 28 घंटे घरेलू काम करता है अथवा उसकी आयु 12 से 14 वर्ष है और जो एक सप्ताह में कम से कम 14 घंटे कोई वित्तीय गतिविधि करता है अथवा 42 घंटे की वित्तीय गतिविधि और घरेलु काम दोनों करता है.(UNICEF –MICS).
बाल-श्रम सिर्फ भारत या अन्य विकासशील देशों की समस्या भर नहीं है, बाल-श्रम की उपस्थित का पुराना इतिहास है. औद्योगिकीकरण के पूर्व यूरोप और संयुक्त राज्य संघ के कई देशों में बच्चे घरेलू-व्यवसायों में विशेष रूप से खेती और उत्पादन के कामो में मदद किया करते थे. बच्चों की शिक्षा पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था.
सत्रहवीं और अठारवीं शताब्दी में बच्चे कॉटन मिलों और कांच की मिलों में बहुतायत में काम किया करते थे. बाल-श्रम का ये सिलसिला कारखानों तक नहीं रुका बच्चों को खदानों, घरेलू-सहायकों और अखबार बांटने के काम भी दिए गए. 18 वीं शताब्दी तक बाल-श्रम का काफी विस्तार हो गया था.
बाल-श्रम के विस्तार के साथ ही बच्चों के खेलने, बढ़ने और पढने के अवसर कम होते गए. बच्चों को बहुत कम उम्र से ही काम पर भेजा जाने लगा जहां औद्योगिकीकरण से पूर्व, आम तौर पर 12-13 साल के बच्चे काम पर जाते थे वहीं औद्योगिकीकरण के बाद 5 से 7 साल तक की उम्र के बच्चे काम पर जाने लगे थे.
बहुत कम उम्र में स्कूल के बजाय काम पर जाने का सिलसिला अभी तक जारी है. भारत में भी शहर हो या गांव, 5 से 7 वर्ष की उम्र से ही बच्चे काम पर जाते हैं जबकि इस उम्र में उन्हें स्कूल जाना चाहिए, फर्क सिर्फ इतना है कि शहर में बच्चों को कारखानों, दुकानों, होटलों और बाजारों में काम करते देखा जाता है जबकि गांव में अधिकांश बच्चे खेती या उससे जुड़े अन्य कामो में वेतन या आंशिक वेतन पर काम करते हैं.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन(ILO) के बाल-श्रम को रोकने के लिए बने महत्वपूर्ण प्रावधानों, UNCRC के आर्टिकल 32.1 और दुनिया के कई देशो के राष्ट्रीय बाल-श्रम कानूनो के बावजूद आज पूरी दुनिया में 151 लाख बच्चे बाल श्रमिक हैं.
भारत उन चुने हुए देशों में से एक है जहां बाल-श्रम के मामले ज्यादा हैं. सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 10.1 लाख बच्चे बाल-श्रमिक है. भारत में 5 से 14 वर्ष की उम्र के 5.6 लाख लड़के और 4.5 लाख लडकियां बाल-श्रमिक हैं. शहरी क्षेत्र में लगभग 2 लाख बाल-श्रमिक हैं तो ग्रामीण क्षेत्र में यह आंकडा 8.1 लाख तक है.
भारत के वो 5 राज्य जहाँ बाल-श्रम नियोक्ता सबसे ज्यादा हैं मध्यप्रदेश उनमे से एक है. मध्य प्रदेश में लगभग 7 लाख बाल-श्रमिक हैं. आईएलओ की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में 151 मिलियन बाल मजदूर हैं. सभी विकासशील देशों में बाल-मजदूरी फल-फूल रही है. हम समझ सकते हैं कि यह संख्या लगातार बढ़ रही है.
बाल-मजदूरी के कारणों की पड़ताल करेंगे तो पायेंगे इसमें कई पक्ष ज़िम्मेदार हैं. बाल-श्रम का कारण गरीबी है या बाल-मजदूरी गरीबी का एक प्रभाव है, यह सवाल भी विचारणीय है. अगर अभिभावकों की दृष्टि से देखें तो पायेंगें कि बाल-मजदूरी के मूल में गरीबी है, जो उन्हें बच्चों को मजदूर बनाने के लिए विवश करती है.
नियोक्ता की दृष्टि से देखें तो सस्ते श्रम की उपलब्धता, बंधुआ-मजदूरी और वयस्कों की बेरोज़गारी उन्हें बच्चों को मजदूर बनाकर, उनका शोषण करके अधिक लाभ कमाने का अवसर देती है. लेकिन इस सबके मूल में कहीं ना कहीं सरकार भी है.
ऐसा नहीं है कि भारत सरकार ने बाल-मजदूरी के उन्मूलन के लिए प्रयास नहीं किये हैं. भारत के संविधान में आर्टिकल 21-A, 6 से 14 वर्ष के सभी बालक/बालिकाओं को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के लिए आधारभूत संरचना एवं संसाधन उपलब्ध करवाने के लिए राज्य को निर्देशित करता है. संविधान में मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए आर्टिकल 24 के अंतर्गत 14 वर्ष से कम आयु के बालक/बालिका को किसी कारखाने या खदान या किसी अन्य खतरे वाले काम को करने से प्रतिबंधित करता है.
भारत में एक अनेक कानून बनाये गए हैं जैसे, फेक्टरी एक्ट 1948, माइंस एक्ट 1952, द चाइल्ड लेबर प्रोहिबिशन और रेगुलेशन एक्ट 1986, किशोर न्याय एवं देखरेख अधिनियम 2000, और राष्ट्रीय श्रम परियोजना (NCLP) वह सबसे बड़ा कार्यक्रम है जिसे बाल-श्रम को हटाने के लिए पूरे देश में लागू किया गया. इस कार्यक्रम के अंतर्गत 1988 में 7 बाल-श्रम परियोजनाओं को शुरू किया गया.
इस सबके बावजूद भारत में बाल-श्रम में कोई कमी ना आ पाने के कई कारण हैं. सरकार की योजनाओं से गरीब परिवारों का जुड़ाव नहीं हो पाना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभ सभी जरूरतमंद परिवारों को ना मिल पाना, अनिवार्य मुफ्त शिक्षा का अभाव होना, बाल-श्रम कानूनों का सही क्रियान्वयन ना होना, विभिन्न श्रम- कानूनों में विरोधाभास होना महत्वपूर्ण कारण है. विभिन्न कानूनों में बाल-श्रम को प्रतिबंधित करने के लिए अलग-अलग आयु सीमा दी गयी है.
मनोरंजन के क्षेत्र में काम करने वाले बाल-कलाकारों को बाल-श्रमिक की श्रेणी में नहीं रखा गया है, जबकि सर्कस में काम करने वाले बाल-कलाकारों को बाल-श्रमिक की श्रेणी में रखा गया है. सभी बच्चों को समानता का अधिकार है फिर कुछ बच्चों का काम करना उनके बाल-अधिकारों का उल्लंघन नहीं है ये विरोधाभासी है.
ये भी सोचनीय है की किस उम्र के बच्चे क्या काम कर सकते हैं ये तय किया जाए या सभी बच्चों को शिक्षा और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता पर बात हो.
बाल-श्रम बच्चों के मानवाधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन है. बच्चों को श्रम में धकेलना उनकी स्वतंत्रता के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, स्वास्थ्य के अधिकार, सुरक्षित जीवन के अधिकार का उल्लंघन है. बाल-श्रम पर मौन रहना न्याय के अधिकार का उल्लंघन है और यह उनके बचपन को खंडित करने का कार्य है. बाल-मजदूरी से प्रभावित बच्चों का विकास बाधित हो जाता है, वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं, उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है और वे गरीबी के कुचक्र में से बाहर नहीं निकल पाते हैं.
सस्टेनेबल डेवेलपमेंट गोल्स के अंतर्गत 2030 के लिए यह संकल्प लिया गया है कि सभी बच्चों को उनके लिंग पर ध्यान दिए बिना प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की उपलब्धता हो, गुणवत्तापूर्ण तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा तक पहुंच के अवसरों तक समान पहुंच सुनिश्चित की जाए, सभी संसाधनों तक बिना किसी भेदभाव के सभी की पहुंच में सुधार हो और गुणवत्ता में सुधार के लिए नीतिगत हस्तक्षेप किये जाएं और ऐसी सभी बाधाओं का निराकरण किया जाएं जिसमें लैंगिक असमानताएं, खाद्य असुरक्षा और सशस्त्र संघर्ष शामिल हैं.
भारत को बाल-श्रम मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कई अन्य प्रयासों की आवश्यकता है. हमारी दुनिया को किसी भी तरह के बाल शोषण से मुक्त बनाने के लिए यह काफी आवश्यक है कि बाल-अधिकारों और बाल-श्रम के सामान्यीकरण के प्रति विभिन्न हितधारकों के साथ सतत और गहन जागरूकता कार्यक्रम चलायें जाएं.
आरटीई में संशोधन किया जाए ताकि प्रत्येक बच्चे की बारहवीं कक्षा तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा तक पहुंच बने, पहचान, नामांकन, बचाव, पुनर्वास, मुख्य धारा, मामलों की त्वरित सुनवाई और दोषसिद्धि दर में वृद्धि हो, बाल अधिकारों के संबंध में विभिन्न हितधारकों के बीच अभिसरण हो, बाल-श्रम निरोधक कानून का उचित कार्यान्वयन सुनिश्चित हो, बच्चों के लिए बजट का उचित और समय पर आवंटन हो. एक स्वस्थ, सुरक्षित, स्वतंत्र और शिक्षित बच्चा एक अच्छा इंसान बनेगा जो अपने को, अपनी क्षमताओं को, रुचियों को पहचानने में सक्षम होगा.
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