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पीछे मुड़कर देखती हूं तो याद नहीं आता उम्र की किस दहलीज पर रमजान रमदान में तब्दील हो गया और कब खुदा हाफिज ने अल्ला हाफिज की शक्ल ले ली या फिर, इसी लहजे में, कब लोग एक दूसरे को ‘रमदान करीम’ से स्वागत करने लगे. मुझे लगता है ये सब सऊदी प्रभाव बढ़ने से शुरू हुआ, जब 80 के दशक में वहां नौकरी कर रहे दक्षिणी एशियाई लोग वापस अपने घर पेट्रो-डॉलर भेजने लगे.
तीस साल बाद, सोशल मीडिया के असर और मजहबी फिजूलखर्ची के माहौल ने रमजान/रमदान के चलन को खूब हवा दे दी है - चाहे वो व्हॉट्सऐप के मैसेज हों, पूरी दुनिया के किराने स्टोर में दिखने वाली रूह आफजा और खजूर जैसे इफ्तार की सामग्रियों की कतार हो, इश्तिहारों के कैंपेन हों या ईद से पहले दिए जाने वाले स्पेशल सेल और ऑफर हों.
लॉकडाउन में रमजान के दौरान, जब हमारे पास आत्मनिरीक्षण करने का भरपूर वक्त है, मुझे बचपन के रोजा की वो सादगी और मजहबी से अलग उस मजहब की याद आती है.
रमजान की शुरुआत में तब परिवार के सभी लोग टीवी सेट के सामने जमा होकर 8 बजे के न्यूज बुलेटिन का इंतजार करते थे.
और बैगर किसी दूसरी परेशानी के वो खास महीना शुरू हो जाता था: अलार्म लगा दिए जाते थे, लोग सुबह उठ जाते थे (या तंग आ चुके माता-पिता से उठाए जाते थे), सादा सहरी खाते थे, फिर सो जाते थे और अपने-अपने दफ्तर, स्कूल और कॉलेज के लिए रवाना हो जाते थे. शाम में पूरा परिवार लंबे-चौड़े इफ्तार के लिए जमा होता, जिसके बाद हम जमकर डिनर करते, जिसमें परिवार का एक या दो पसंदीदा व्यंजन हर हाल में पकाया जाता था.
हालांकि परिवार के सभी लोग रोजा रखने के साथ-साथ रोजमर्रा के काम भी करते थे, साथ में इबादत के लिए भी वक्त निकाल लेते थे, लेकिन कभी एक की वजह से दूसरे की कुर्बानी नहीं देनी पड़ती थी.
पीछे मुड़कर देखती हूं तो मेरे बचपन और जवानी के रमजान की निपट सादगी मुझे हैरान कर देती है, कैसे हमारे रोजाना की आदतों में अंतर तो आता था, लेकिन कभी जड़ से उसे बदलने की जरूरत नहीं होती थी. खाना तैयार कर बड़े-बड़े ट्रे में पास की मस्जिद और कम-से-कम एक बार पड़ोसियों के पास भेजा जाता था..कभी-कभार दोस्तों और पड़ोसियों को इफ्तार के लिए दावत दी जाती थी, क्योंकि अनजान लोगों और परिवार के सदस्यों के साथ बांटकर खाना ही रमजान का मकसद है.
मेरी मां की एक खासियत थी, वो गरीबी के मुहाने पर खड़े लोगों को पहचान लेती थीं. हमारे पुराने सब्जीवाले की विधवा, काम छोड़ चुका ड्राइवर, बीमार आया, वो लोग जो हर तरह की परेशानी का सामना कर लेते, लेकिन कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते. इन सबके बीच, पूरी सादगी से साल-दर-साल रमजान मनाया जाता था, बिना किसी शोर-शराबे के, कभी जरूरत से ज्यादा जोश-खरोश दिखाने की कोशिश नहीं होती थी या मजहब को लेकर भारी-भरकम हाव-भाव नहीं बनाए जाते थे, जो कि आज खूब होता है.
शायद इसलिए शायर और हास्य-रस के लेखक भी रोजा से जुड़ी सख्त बातें भी बड़े आसान लहजे में लिख जाते थे, जो कि आज की सियासी और मजहबी माहौल में लोगों को नागवार गुजर सकती है.
रियाज खैराबादी की गजल, जो गायिका मल्लिका पुखराज की आवाज में अमर हो गई, ‘जागे तमाम रात, जागे तमाम रात,’ में एक शेर है जो कि आज लिखी भी नहीं जा सकती.
जाहिद जो अपने रोजे से थोड़ा सवाब दे, मय-कश उसे शराब पिलाएं तमाम रात
एक कहावत है कि मुसलमानों ने कभी पांच वक्त के नमाज को कम करने की मांग की थी, उसका जिक्र करते हुए, सिर्फ उपवास को अनिवार्य करने पर अहमद हुसैन माइल लिखते हैं:
मांगी नजात हिज्र से तो मौत आ गई, रोजे गले पड़े जो छुड़ाने गया नमाज
रोजा खोलते वक्त खजूर खाने के रिवाज पर, मुसहफी गुलाम हमदानी, कुछ मजाकिए लहजे में यह लिखते हैं:
ऐ ‘मुसहफी’ सद-शुक्र हुआ वस्ल मयस्सर, इफ्तार किया रोजे में उस लब के रोतब से
और रमजान के महीने में मौलवी के पास भीड़ जुटाने वाले मजहबी लोगों के संदर्भ में वजीर अली सबा लखनवी लिखते हैं:
हम रिंद-ए-परेशान हैं माह-ए-रमजान है, चमकी हुई इन रोजों में वाइज की दुकान है
कोरोना वायरस की आफत में रमजान की सादगी वापस लौट आई है
सख्त मजहबी लोगों की वजह से उर्दू शायर रोजा-नमाज को अलंकार या रूपक की तरह पेश करते थे. जैसे कि मीर तकी मीर के इस शेर से जाहिर है:
मानिंद-ए-सुब्ह उकदे ना दिल के कभू खुले जी अपना क्यूं कि उचटे ना रोजे नमाज से
और देवबंद के नामी विद्वान और शिक्षक शिबली नोमानी लिखते हैं:
तीस दिन के लिए तर्क-ए-मय-ओ-साकी कर लूं वाइज-ए-सदा को रोजों में तो राजी कर लूं.
18वीं शताब्दी के शायर, नजीर अकबराबादी, ने ज्यादातर मुस्लिम घरों में ईद के दिन जो माहौल होता है उसे कुछ इस तरह पेश किया:
रोजों की सख्तियों में ना होते अगर असीर तो ऐसी ईद की ना खुशी होती दिल पजीर
रोजे, इबादत, पाक किताब को पढ़ना, आत्मचिंतन करना और अंदर की ताकत को और मजबूत करना. रमजान का हमेशा से यही मतलब था, ना कि मजहब का दिखावा करना और जमकर दावत उड़ाना. शायद कोरोना की इस आफत ने दुनिया भर की 1.8 अरब मुस्लिम आबादी को ये याद दिलाया है कि रोजे का असल मतलब सादगी है.
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