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जिस समय केंद्र सरकार को पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से यह तय करना चाहिए कि देश के लोगों को लॉकडाउन में किस हद तक राहत दी जा सकती है, उसे धार्मिक आजादी और धार्मिक अल्पसंख्यकों, खास तौर से मुसलमानों पर होने वाले हमलों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी पड़ रही है.
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम ने एक बार फिर हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया है. मध्य-पूर्व में भारत की आलोचना हो रही है. इसके बाद 28 अप्रैल को दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के मौजूदा अध्यक्ष और मशहूर इस्लामिक स्कॉलर जफरुल इस्लाम खान के फेसबुक पोस्ट का मामला उठ खड़ा हुआ.
इस पोस्ट ने राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ाईं और 29 अप्रैल को उनसे कहा गया कि वह अपनी गलती सुधारते हुए दूसरी पोस्ट लिखें और अपने पहले के बयान पर स्पष्टीकरण दें.
इस घटनाक्रम से खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के देशों के साथ भारत के रिश्तों पर आंच आ सकती है. जीसीसी के देशों में सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), कतर, बाहरीन और ओमान शामिल हैं.
यह पहली बार है कि कई अरब देशों के नागरिक समाज और संभ्रांत वर्ग ने भारत में तबलीगी जमात वाले प्रकरण को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की है. जिस प्रकार मुसलमानों को कोविड-19 के फैलने के लिए दोषी ठहाराया गया, उन्हें बदनाम किया गया, इससे कई देशों में भारत के प्रति गुस्सा है. मुसलमानों के लिए द्वेष से भरे संदेश सोशल मीडिया पर छाए हैं और लोगों ने तबलीगी जमात के बहाने मुसलमान व्यापारियों और दुकानदारों का आर्थिक बहिष्कार करने का फरमान जारी किया है.
भले ही अरब देशों की सरकारों ने कोई आधिकारिक बयान जारी न किया हो लेकिन संकेत फिर भी स्पष्ट हैं. यूएई की राजकुमारी शेख हेंद फैजल अल कासिमी ने तमाम तरह से अपनी चिंताएं जाहिर की हैं. वह इस्लामोफोबिया और मुसलमानों और इस्लाम पर होने वाले हमलों पर ट्वीट कर चुकी हैं. साथ ही कई चैनलों को इंटरव्यू भी दे चुकी हैं. गल्फ न्यूज पर उनका एक आर्टिकल छपा है जिसका शीर्षक है- “आई प्रे फॉर एन इंडिया विदआउट हेट एंड इस्लामोफोबिया.”
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर इस सबसे वाकिफ हैं. वह अरब देशों के विदेश मंत्रियों से बातचीत कर रहे हैं और जीसीसी देशों के भी संपर्क में हैं. लेकिन इसी बीच एक कुवैती स्कॉलर ने अरबी में लिखा वह नोट लीक कर दिया जिसमें कुवैत के काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स ने भारतीय मुसलमानों को निशाना बनाए जाने पर चिंता जाहिर की थी. यह नोट 2 मार्च का था. यह भारत के लिए शर्मिन्दगी का सबब बन गया.
इस नोट में विश्व समुदाय और इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) से कहा गया था कि वे भारत पर इन हमलों को रोकने का दबाव बनाएं. इससे पहले ओआईसी ने भी एक बयान जारी कर भारत में मुसलमानों से होने वाली हालिया हिंसा की आलोचना की थी जिसके कारण मासूम लोगों की जानें गईं हैं. मस्जिदों और मुसलमानों की संपत्ति के साथ आगजनी की गई है. तोड़ फोड़ की गई है.
कुवैती कैबिनेट नोट के लीक होने के बाद दोनों देशों ने संतुलित प्रतिक्रिया दी. कुवैती राजदूत जेसम इब्राहीम अल नाजम ने आधिकारिक बयान में विदेशी नीतियों के साझा सिद्धांत, दूसरे देश के मामले में हस्तक्षेप न करने और देश की संप्रभुता के सम्मान पर जोर दिया. भारत ने भी कहा कि कुवैत ने भारत के आंतरिक मामलों में दखल न देने का संकल्प दोहराया है.
सिर्फ जीसीसी देशों ने अपना असंतोष जाहिर नहीं किया है. इससे पहले मलेशिया, इंडोनेशिया और तुर्की जैसे देश नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की खुलकर आलोचना कर चुके हैं. हाल ही में इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम पर यूएस कमीशन ने इस मामले को कंट्रीज़ ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न लिस्ट में शामिल किया है. दिसंबर 2019 में ओआईसी के जनरल सेक्रेटेरियट ने कहा था कि वह भारत में मुसलिम अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले घटनाक्रमों पर बारीकी से नजर रखे हुए है. उसने अयोध्या फैसले और नागरिकता संशोधन विधेयक के पारित होने पर चिंता प्रकट की थी. इनमें से कई बयान रिकॉर्ड में हैं, लेकिन भारत ने इसपर कुछ नहीं किया है.
भारत में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद जब कुछ पाकिस्तानी लोग दुबई में एक मंदिर के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे, तब वहां का प्रशासन काफी खफा हो गया था. जीसीसी देशों में लाखों भारतीय काम करते हैं लेकिन उनकी धार्मिक पहचान कोई मायने नहीं रखती. वे सिर्फ ‘हिंदी लोग’ कहलाते हैं.
लेकिन यह स्थिति बदली है. हिंदुत्व ब्रिगेड ने तबलीगी जमात के लोगों और दूसरे भारतीय मुसलमानों के बीच के फर्क को मिटा दिया. जब जमात को देश के हर मुसलमान का प्रतिनिधि मान लिया गया. इस्लाम और उसके दीन के बारे में अज्ञानता ने तबलीगी जमात को जेहादी और आतंकवादी मान लिया.
इस्लामोफोबिक अभियान तब और बड़ा मुद्दा बन गया, जब भाजपा के सांसद तेजस्वी सूर्या का एक पुराना ट्वीट सर्कुलेट हुआ. यह एक मिसॉजिनिस्ट टिप्पणी थी जिसमें अरब औरतों को निशाना बनाया गया था. इससे कई अरब देशों में हलचल मच गई. जीसीसी देशों में रहने वाले भारतीय हिंदुओं ने सोशल मीडिया पर संदेश लिखकर आग में घी डालने का काम किया.
भारत में किसी बड़ी हस्ती ने घृणा फैलाने वालों को खुलकर कोई संदेश नहीं दिया, उन लोगों को जो तबलीगी जमात के प्रकरण का फायदा उठाकर धार्मिक आधार पर देश में ध्रुवीकरण करना चाहते हैं और भाजपा का आधार मजबूत करना चाहते हैं. विपक्षी दल भी हिंदुओं के गुस्से का शिकार नहीं होना चाहते, इसलिए मूक बनकर बैठे हैं.
मोदी को अपने कैडर को बताना होगा कि वे मुसलमानों को बदनाम न करें. इसलिए भी ताकि खाड़ी देशों में उनका सेतुबंधन का अभियान सफल हो. अरब देश उनके पक्ष में खड़े हों.
एक दौर वह था, जब गुजरात में व्यापार की असीम संभावनाओं के बावजूद मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को अमेरिका का वीसा नहीं मिला था. एक यह दौर है जब बड़े से बड़ा देश बांहें फैलाए उनका स्वागत कर रहा है. यह कहना कि “कोविड-19 हमला करने से पहले नस्ल, धर्म, रंग, जाति, पंथ, भाषा या सीमाएं नहीं देखता”, इस्लामोफोबिया को रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसी तरह भागवत के लिए भी बहुत कुछ कहना शेष है. आने वाले दिनों में अगर इन दोनों ने कोई ठोस टिप्पणी नहीं की तो यह साफ हो जाएगा कि या तो वे नफरत को रोकने का इरादा नहीं रखते या इस एकतरफा युद्ध में उनके हाथ बांध दिए गए हैं.
इस पूरे परिदृश्य ने भारतीय मुसलमानों को अवांछनीय स्थिति में पहुंचा दिया है. जफरुल इस्लाम खान के फेसबुक पोस्ट से यह साबित होता है. वह पहले ऑल इंडिया मुसलामन मजलिस-ए-मुशावरत (एआईएमएमएम) के पूर्व अध्यक्ष थे- यह भारतीय मुसलिम संगठनों की एंब्रेला बॉडी है. इसके अलावा वह सुशिक्षित मुसलिम समाज का एक हिस्सा भी हैं.
वैसे वह अकेले नहीं. मुस्लिम समुदाय के पढ़े लिखे सुशिक्षित तबके के अधिकतर लोगों को यह झेलना ही पड़ता है. उनकी धार्मिक पहचान सबसे पहले मायने रखती है. हिंदुओं के साथ ऐसा नहीं है. हिंदू अपनी धार्मिक पहचान को परे धकेलकर अपने विचार रख सकते हैं. लेकिन मुसलमानों को यह सुविधा नहीं.
जफरुल ने अपनी पहली पोस्ट में कुवैत का शुक्रिया अदा किया था कि उसने भारतीय मुसलमानों का साथ दिया. शायद कुवैती कैबिनेट के नोट के मद्देनजर. लेकिन इसे सोशल मीडिया पर कुछ यूं लिया गया कि भारतीय मुसलमान किसी तीसरे पक्ष को उकसा रहे हैं कि वह भारत के आंतरिक मामलों में दखल दे। जफरुल ने लिखा था- 'ये धर्मान्ध लोग भूल गए कि अरब देशों और विदेशों में बसने वाले मुसलमानों में भारतीय मुसलमानों के लिए बहुत प्यार और दया है. धर्मान्धों, याद रखो कि भारतीय मुसलमानों ने अब तक अरब देशों और बाकी के मुसलिम समुदाय से हेट कैंपेन, लिंचिंग और दंगों की कोई शिकायत नहीं की है. अगर उन्होंने ऐसा कर दिया तो भूचाल आ जाएगा.'
जफरुल की पोस्ट को धर्मान्धता से भरी टिप्पणी माना गया. ज्यों भारतीय मुसलमान भारत से बाहर संरक्षण की तलाश कर रहे हैं, हिंदुत्व ब्रिगेड ने इसे किसी स्कूली छात्र की धमकी के तौर पर लिया- जो आपसी झगड़े में किसी दबंग को दी जाती है. तू नहीं माना तो मैं अपने अब्बा को बुला लूंगा.
किसी भी दूसरे भारतीय मुसलमान की तरह वह कानून, भारतीय संविधान और देश की संस्थाओं पर पूरा विश्वास करते हैं. जाहिर सी बात है, आम आदमी पार्टी ने उनसे यह कहने को भी कहा कि वह पार्टी के सदस्य नहीं, क्योंकि पार्टी बताना चाहती थी कि वह जफरुल की राय से इत्तेफाक नहीं रखती.
गो भारतीय मुसलमान किसी भी तरह के विवाद में फंसना नहीं चाहता, फिर भी उसके पास बहुसंख्यकों के धर्मनिरपेक्ष प्रतिस्पर्धियों के समर्थन के अलावा कोई विकल्प नहीं. इनमें से कई हारी हुई लड़ाई का दंश झेल रहे हैं. इसीलिए भारतीय मुसलमानों को सलीम मिर्जा को याद करने की जरूरत है. एम.एस.सथ्यू की शानदार फिल्म 'गरम हवा' के नायक सलीम मिर्जा विभाजन के बाद अपने परिवार के दूसरे सदस्यों की तरह पाकिस्तान नहीं जाते-आगरा में ही रहते हैं.
इसलिए जीसीसी देशों की प्रतिक्रियाएं भले ही भारतीयों, भारत की सरकार और इन देशों में काम करने वाले हिंदुओं को बेचैन कर रही हों. लेकिन राजतंत्र की विवशताएं तनाव को जल्द दूर करेंगी और भारत में मुसलमानों को अपने हक की लड़ाई के हमनवां और हमसफर भी मिलेंगे.
(नीलांजन मुखोपाध्याय दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘द डिमॉलिशन:इंडिया ऐट क्रॉसरोड्स’ और ‘नरेंद्र मोदी:द मैन, द टाइम्स’ नाम की किताबें लिखी हैं. उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है. ये एक व्यक्तिगत विचार वाला लेख है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इन विचारों की जिम्मेदारी लेता है.)
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Published: 02 May 2020,10:48 PM IST