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देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों पर दनादन लाठियां और आंसू गैस के गोले, सरकारी दमन का यह तरीका मात्र लोगों के जिस्म पर पड़ी चोटें नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा पर प्रहार के समान है. असल में सत्ता का यह चरित्र निरंतर बढ़ता ही जा रहा है. यह लड़ाई मुखर रूप में तो कृषि कानूनों से ही जुड़ा प्रतीत होती है, लेकिन इसके भीतर अनगिनत असंतोष की लहरें हैं जो बेलगाम सत्ता को लोकतांत्रिक मर्यादाओं पर चलाने का प्रयास कर रही है. यह लड़ाई जगी हुई जनता का लोकतांत्रिक उद्घोष है; अगर कहीं छिटपुट हिंसक या असंसदीय गतिविधियां हुई हैं तो उनका जोरदार विरोध भी इसी आन्दोलन के भीतर से हुआ है.
वर्तमान सत्ता की विशाल दमनकारी शक्ति को अनदेखा करते हुए जिस तरह से देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों और सभी वर्गों से लगातार लोग आए हैं उससे एक बात तो साफ हो जाती है कि देश में एक जनव्यापी रोष है. लोकतंत्र में लोक-नीतियां जनकेन्द्रित होनी चाहिए, क्योंकि शक्ति और वैधता का श्रोत जन ही, लेकिन ये कैसी नीतियां है जिनके बारे में सरकार दावा करती है कि वो जनहितकारी हैं, लेकिन इन नीतियों के विरुद्ध एक विशाल समुदाय है. अगर ये उनके हित में ही था तो फिर यह महान अस्वीकृति और संघर्ष क्यों! इतना सशक्त विरोध महज राजनीतिक नहीं हो सकता!
मीडिया और बौद्धिक जगत की सांकेतिक पक्षधरता: इस पूरे प्रक्रम में अगर मीडिया की भूमिका को देखें तो यह हमेशा की तरह सत्ता को सांकेतिक सहमति प्रदान करनेवाली रही है. एक तरफ तो यह निष्पक्ष होने का ढोंग करती है, और दूसरी तरफ अपनी भाषाई चातुर्य और शब्दों की बुनावट से सत्ता के समक्ष समर्पण कर चुकी है. अपनी भाषाओँ के माध्यम से इन्होने लगातार इस आन्दोलन को अलोकतांत्रिक और असामाजिक दिखाने का भरसक प्रयत्न किया है, लेकिन इसके बावजूद आन्दोलन में लोगों की बढ़ती संख्या ने एक तरह से सत्ता के साथ-साथ लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मेनस्ट्रीम मीडिया की रिपोर्टिंग को भी अस्वीकार कर दिया.
आश्चर्य की बात है कि ऐसे अनगिनत शब्दों की बाजीगरी करने के बाद भी यह आन्दोलन जोड़ ही पकड़ता गया. यह लोकचेतना की अदम्य शक्ति को कमजोर नहीं कर सका. इसी तरह से अकादमिक बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका सरकारी खुसामद में लगातार बिना-सिर पैर की बात लिखता-कहता रहा. अगर वे आंकड़ों और अध्ययन के आधार पर होते तो उन्हें स्वीकारने में कोई आपत्ति भी नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपनी बातों के समर्थन में फेसबुकिया श्रोतों का भरपूर सहायता लिया और उनके लेखन पर उनके शागिर्दों ने भी जमकर “लाइक” और “कमेन्ट” किया. संभव है उन्हें इसका पुरस्कार भी मिल जाए.
चाटुकारिता का दौर खत्म नहीं हुआ है. इसके उलट जिन्होंने इस आन्दोलन पर तार्किक और आंकड़ा जनित विमर्श किया उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया, या फिर उन्हें देशद्रोही तक कहा गया और इस सन्दर्भ में समाजविज्ञानी योगेन्द्र यादव का मामला तो बेहद ही अहम है.
राजनीतिक दल और जनपक्षधरता इस आन्दोलन पर यह आरोप भी लग रहा है कि इसमें राजनीतिक दलों के अपने निहितार्थ हैं और इस बात से मना भी नहीं किया जा सकता जैसा कि कई राजनीतिक झंडों और प्रतीकों और नेताओं की सक्रियता को इसमें लगातार देखा गया है. लेकिन सवाल है कि इसमें बुरा क्या है? क्या राजनीतिक दलों की यह जिम्मेवारी नहीं कि जब जनता संघर्ष कर रही हो तो वह उस संघर्ष का हिस्सा बनें! क्या राजनीतिक दलों की जन संघर्षों में भागेदारी असंवैधानिक है? लोकतंत्र में विपक्षी दलों की जिम्मेवारी सत्तासीन दलों से भी अधिक हो जाती है, और ऐसी स्थिति में उनका दायित्व तो और भी अधिक बढ़ जाता है.
दमन के मोर्चे: जैसा कि किसान आन्दोलन से जुड़े लोगों का कहना है और देखा भी जा सकता है कि इस आन्दोलन को दमन करने के लिए सत्ता प्रतिष्ठान ने तीन मोर्चे खोल रखें हैं: पहला सशत्र बल, दूसरा मेनस्ट्रीम मीडिया और तीसरा “पार्टी के कार्यकर्ता”.
ये हमेशा से होता रहा है कि किसी आन्दोलन को कुचलने के लिए सत्ता द्वारा एक समान्तर आन्दोलन को गढ़ा जाता है जिसे समाज विज्ञान में ‘काउंटर-मूवमेंट’ कहा जाता है और एक तरह से सत्ता इसके द्वारा अपनी ख़ोई हुई वैधता को प्राप्त करना चाहती है; यह आम लोगों में सरकारी जनविरोधी नीतियों के प्रति एक समर्थन का भाव पैदा करने वाली एक संरक्षण प्राप्त लोगों का समूह होता है.
एक अंतर्राष्ट्रीय टीवी चैनल से बात करते हुए एक आन्दोलनरत किसान ने कहा कि सरकार को अहंकार से निकलने की जरुरत है; विपक्षहीनता की स्थिति ने सरकार को अहंकारी बना दिया है. हम खुली वार्ता की बात कर रहें हैं, लेकिन ऐसा कुछ होता प्रतीत नहीं हो रहा. जनता अब इसे एक वैचारिक आन्दोलन के स्तर तक ले जाने की बात तक कर रही है. अगर इस बात की व्यक्तिगत स्तर पर भी पड़ताल करें तो कमोबेश सभी चाहे सत्ता के समर्थक ही क्यों न हों, स्वीकार कर रहें हैं कि सरकार की भाषा और चाल-ढाल में जनता के प्रति एक उपेक्षा का भाव है. यह भाव लोकतांत्रिक तो कत्तई ही नहीं है.
(चितरंजन सुबुधि तमिलनाडु सेंट्रल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, केयूर पाठक लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.इस लेख में दिए गए विचार उनके अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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