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‘उत्पत्तियां अक्सर अस्पष्ट होती हैं’- यह पंक्ति है समाजशास्त्री मकीवर की. भारतीय जाति व्यवस्था के बारे में यह एकदम सटीक बैठती है. जातियों के निर्माण और इसकी बुनावट को लेकर इतने अध्ययन हुए हैं कि तय करना कठिन हो जाता है कि किसे अंतिम सिद्धांत माना जाए. सभी सिद्धांत के अपने तर्क और सन्दर्भ हैं. कहीं न कहीं से सबका समाजवैज्ञानिक आधार भी है. और शायद इसलिए समाजविज्ञान में किसी भी सिद्धांत को अंतिम सिद्धांत मानने से परहेज भी किया जाता रहा है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि समाजविज्ञान का आधार वैज्ञानिक है, लेकिन इसकी वैज्ञानिकता की सीमाएं भी हैं. इसकी वैज्ञानिकता में मानवीयता और अनौपचारिकता के भी तत्व होते हैं. लेकिन फिर भी तमाम राजनीतिक विचारधाराओं के लिए अपनी सुविधानुसार सिद्धांतों और सन्दर्भों को मानने की भी एक परंपरा रही है. और जिस कारण जाति जैसे जटिल चीजों को बहुत ही ‘जेनेरलाइज’ करके देखा जाता है.
यह एक खराब तरीका है समाज की संरचना को समझने का. कोई भी एक सिद्धांत या अवधारणा सामाजिक संरचना के बारे में अंतिम निष्कर्ष नहीं दे सकती. इसलिए जरुरी है कि ‘ग्रैंड-थेयरी’ के भीतर के विरोधाभाषों पर भी नजर डाली जाए. सामाजिक जीवन में अनगिनत ऐसी चीजें सामने आती हैं जो जाति पर बने किसी ‘ग्रैंड-थेयरी’ के विपरीत साक्ष्य प्रदान करते हैं, और हमें मजबूर करते हैं कि हम इसे स्थानिकता के सन्दर्भ में भी देखें- लोक देवता गोरैया बाबा की पूजा आराधना ऐसे ही बिन्दुओं की तरफ इशारा करती है.
बिहार के मिथिला क्षेत्र में कई ब्राहमण समुदायों के बीच गोरैया बाबा की आराधना की सदियों पुरानी एक परम्परा है. मैं मानता हूं कि ग्राम्य अध्ययन में मुझे किसी समाजविज्ञानी से अधिक अपनी मां से अधिक प्रेरणा मिली है. मुझे याद है एक बार पूजा के बाद मैंने अपनी मां से पूछा कि मां और किसी पूजा में दक्षिणा तो तुम किसी पुरोहित को देती हो, लेकिन इस पूजा का प्रसाद तुम दुसाध जाति के किसी व्यक्ति को ही क्यों देती हो? यह बता दें कि दुसाध जाति बिहार की एक अनुसूचित जाति है और आज भी एक अछूत जाति ही मानी जाती है.
मां ने बताया कि ये देवता दुसाध जाति के हैं इसलिए. मेरे लिए सच में यह रुचिकर था- एक अछूत मानी जाने वाली जाति का ब्राह्मण समाज में देवतुल्य स्थान होना! साथ ही पूजा-पाठ में दक्षिणा पर जाति विशेष के एकाधिकार के विपरीत किसी अछूत समझी जानेवाली जाति का भी इसमें हिस्सेदार होना पौरोहित्य के एक अलग ही स्वरूप को दिखाती है जिसमें अन्य जातियों के लिए भी एक स्पेस की सम्भावना दिखती है. जब मैं इसे समाजविज्ञान के नजरिये से देखता हूं तो जाति के कई बड़े सिद्धांतों की सीमाओं को देखता हूं- भारत की भौगोलिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बीच इसके होने और बनने की प्रक्रिया भी इन विविधताओं के प्रभावों से मुक्त नहीं रही होगी. वैसे भी जाति, वर्ण, और कास्ट को लेकर एक बड़ा विवादास्पद विमर्श पहले से ही रहा है- एक तरफ जहां जाति का स्थानिक सन्दर्भ है, वहीं वर्ण का धार्मिक, और कास्ट का यूरोपियन.
गोरैया बाबा मिथिला के इन समुदायों के एक कुल देवता हैं. भारत के अन्य अनगिनत समुदायों के अतिरिक्त इन समुदायों में भी कुल देवता का बहुत ही सम्मानित स्थान होता है. कई मामलों में यह अन्य प्रचलित सभी देवी-देवताओं से अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं. किसी भी शुभ-अशुभ अवसर पर इनकी पूजा-आराधना के बिना कार्य-सिद्धि की आशा नहीं की जाती. वैसे वर्ष में दो बार इनकी एक विशेष पूजा आराधना की जाती है. जिसे घरी-पूजा कहा जाता है. घर के सभी सदस्यों की इसमें उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है. प्रत्येक परिवार में एक छोटा या बड़ा पवित्र घर बना होता है. जिसके भीतर में अन्य देवताओं के अलावा कुल देवी होती हैं, और उस पवित्र घर के द्वार के पास गोरैया बाबा का एक बेहद ही पवित्र स्थान होता है. घर के द्वार के पास इनका होना भी एक विशेष समाजशास्त्रीय सांकेतिक अर्थ रखता है.
शायद ये गृह या ग्राम के एक रक्षक की तरह थे, खासकर घर की महिलाओं पर होनेवाले आक्रमणों के समय इनकी भूमिका एक क्षत्रिय योद्धा की रही होगी. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मेरे एक छात्र ने हमसे कहा कि गोरैया बाबा का द्वार या गेट पर होना उनके दरबान होने का भी तो प्रतीक हो सकता है! उनका इशारा उनके कमजोर सामाजिक स्थिति की तरफ था. निस्संदेह सवाल वाजिब और तर्कपूर्ण था, लेकिन जैसा कि पूर्व के शोध बताते हैं कि दुसाध जाति के क्षत्रिय होने का भी दावा किया जाता है तो ऐसे में रक्षक और दरबान के अंतर को भी ध्यान में रख कर इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. अगर हम उनके दरबान की स्थिति को लेते हैं तो फिर इस जाति के क्षत्रिय होने के ऐतिहासिक दस्तावेजों को भी नकारना होगा. और अगर क्षत्रिय मानते हैं तो फिर द्वार पर उनकी उपस्थिति को एक हासिये की सामाजिक स्थिति नहीं मानी जा सकती.
दंतकथाओं के अनुसार, गोरैया बाबा के पूजे जाने की परंपरा मध्यकाल में जब भारतीय उप महाद्वीप तमाम राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था, तब विकसित हुई थी. ‘दुसाध’ (दू:+साध्य) शब्द का मतलब ही होता है दुष्कर कार्यों को करने वाला- जो एक क्षत्रिय गुण धर्म माना जाता था. लेकिन हालिया शोधों के आधार पर ऐसा लगता है कालान्तर में इनकी राजनीतिक सत्ता इनके हाथों से निकल गई होगी और जिस कारण शायद इनकी सामाजिक स्थिति भी निचले स्तर पर चली गई. ब्रिटिश काल में बिहार में चौकीदारी का कार्य मुख्यत: इसी जाति को दिया जाता था जो हाल के दशकों तक चलती आई थी. इसके पीछे भी इसके क्षत्रिय गुणों का ही हवाला दिया जाता है.
गोरैया बाबा की ही तरह बिहार में ऐसे अनगिनत लोक-देवी और देवता हैं जो अक्सर निचली मानी जाने वाली जातियों से सम्बन्ध रखते हैं जैसे- बंदी माई, सोखा बाबा, कारिख, सलहेस, दीना भदरी, बरहम बाबा, विषहर बाबा, काली आदि. इन लोक देवियों और देवताओं की स्वीकार्यता किसी भी जातीय बंधन से ऊपर है. सबसे बड़ी बात है कि आज भी ये देवी और देवता न तो क्षेत्रीय और न राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव क्षेत्र में आए हैं. शायद इसलिए भारतीय गांवों की चेतना में यह इतने गहरे मौजूद है. इनपर कोई ठोस अध्ययन अभी नहीं हुए हैं लेकिन जितने हैं उनके आधार पर जातिगत समाज और राजनीति के विरोधाभाषों को समझा जा सकता है.
(केयूर पाठक समाजशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्विद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)
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