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हम दलितों के संघर्ष, उनके हक की लड़ाई के बारे में बचपन से सुनते आ रहे हैं. प्राचीन भारत में कर्ण से लेकर भारत को रचने वाले डॉ. बी.आर. अंबेडकर तक, दलितों के सामाजिक कायाकल्प की जंग कोई नई बात नहीं है. दलितों की दयनीय स्थिति को समझने के लिए किसी सैद्धांतिक बहसबाजी की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि देश की रोजमर्रा की घटनाओं से यह एकदम साफ नजर आता है.
बेशक, आज के भारत में दलितों की आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक स्थिति में काफी बदलाव आया है, लेकिन उनकी सामाजिक स्थिति के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती. भारत में दलित विचारधारा और साहित्य उतना ही पुराना है जितना कि दलित समुदाय का संघर्ष.
लेकिन जब हम दलितों की बात करते हैं तो अक्सर दलित मुसलमानों को नजरअंदाज कर देते हैं.
भारत में दलित विचारधारा और साहित्य उतना ही पुराना है जितना कि दलित समुदाय का संघर्ष.
मध्यकालीन भारत में उच्च जाति के हिंदुओं और दलित हिंदुओं, दोनों ने बड़ी संख्या में इस्लाम कबूल किया लेकिन वे दूसरे धर्म में भी अपनी जातियों को अपने साथ ले गए.
मुसलमानों की निचली जातियों को दलितों के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है. दूसरी तरफ संविधान के तहत वे अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) में आते हैं इसलिए उन्हें वे लाभ नहीं मिलते जो दलित हिंदुओं को मिलते हैं.
सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) कहती है कि भारत में मुसलमान, खास तौर से ओबीसी मुसलमान अपेक्षाकृत ज्यादा वंचित हैं.
पसमांदा मुसलमानों को लेकर छिड़ी बहस ने इन दलितों के समावेश के लिए एक नया नजरिया पेश किया है. लेकिन उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए अधिक नीतिगत पहल और कार्यक्रमों को लागू करने की जरूरत है, न कि महज सियासी और मौकापरस्त बहस की.
मध्यकालीन भारत के उच्च जाति के हिंदुओं ने भी दलित हिंदुओं की तरह इस्लाम धर्म को अपनाया था. जबकि ऊंची जातियों के हिंदुओं जैसे ब्राह्मणों, राजपूतों और त्यागियों ने इस्लाम कबूल किया तो भी उन्हें अपनी जातिगत श्रेष्ठता हासिल हो गई, लेकिन निचली जातियों के मुसलमानों जैसे धुनिया, धोबी, मनिहार, नट, भिश्ती, फकीर, दर्जी, हलालखोर, लालबेगी, भटियारा, गोरकन, बक्खो, पमरिया, मिर्शीकर और अन्य निचली जाति के हिंदुओं ने सामाजिक समानता का दावा तो किया लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया.
आजादी के बाद दलितों की आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक स्थिति को सुधारने, उनका भविष्य संवारने के लिए कई अच्छी नीतियां लागू की गईं. भारतीय संविधान उन्हें सरकारी संस्थानों में शिक्षा और रोजगार के लिए कोटा और चुनावों में राजनैतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है.
लेकिन दलित मुसलमानों को इनका फायदा नहीं मिलता क्योंकि मुसलमानों की निचली जातियों को दलितों के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है. दूसरी तरफ संविधान के तहत वे अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) में आते हैं इसलिए उन्हें वे लाभ नहीं मिलते जो दलित हिंदुओं को मिलते हैं. भले ही सरकार मुस्लिम ओबीसी को आरक्षण देती है, लेकिन वे हाशिए पर पड़े हुए हैं और इतने भर से उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार की उम्मीद नहीं है.
हालांकि दलित मुसलमानों को दलित हिंदुओं की तरह पूर्वाग्रह और गरीबी झेलनी पड़ती है, वे भी उनकी तरह पूरी तरह से हाशिए पर हैं लेकिन सच्चाई तो यह है कि दलित मुसलमानों को राजनीतिक स्तर पर नुमाइंदिगी नहीं मिली है और इसीलिए वे नीति निर्माण की प्रक्रियाओं से बाहर हैं. सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) कहती है कि भारत में मुसलमान, खास तौर से ओबीसी मुसलमान अपेक्षाकृत ज्यादा वंचित हैं.
हाल ही में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकारों ने पसमांदा मुसलमानों (यानी मुसलमानों में दलित और पिछड़े) पर ध्यान देना शुरू किया है. भारत में मुसलमानों में उनकी आबादी लगभग तीन-चौथाई है. दरअसल पिछली सरकारों की अनदेखी ने बीजेपी को यह मौका मुहैया कराया है, लेकिन यह भी सच है कि बुद्धिजीवी और इलीट मुसलमानों ने सार्वजनिक रूप से दलित और पिछड़े मुसलमानों की तरक्की की कभी वकालत नहीं की.
जहां दलित आंदोलन और पुनर्जागरण सामाजिक क्रांति के केंद्र में रहे, वहीं दलित विचारकों ने भी मुस्लिम दलितों पर बहुत कम ध्यान दिया. हालांकि कुछ विद्वानों ने मुस्लिम जाति व्यवस्था पर ध्यान दिया है लेकिन उनका दायरा अशरफ (एलीट मुसलमानों), अजलफ (निम्न या पिछड़ी जाति के मुसलमान), और अरज़ल (मुसलमानों की अस्पृश्य जातियां) जैसी सामाजिक पहचान तक ही सीमित था. यह निश्चित रूप से दलित मुसलमानों के उत्थान के लिए पर्याप्त नहीं है बल्कि यह गंभीर चिंता का मुद्दा है.
आजादी के कई दशक गुजर जाने के बावजूद दलित मुसलमानों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व न के बराबर है. भारत में उनकी आवाज गुम है और वे दलित आंदोलनों से बाहर हैं. दुखद यह है कि दलित साहित्य और विमर्शों में उनके लिए कोई जगह नहीं और वे दलित विचारकों की सोच के दायरे में भी नहीं आते.
इस्लाम में समानता और भाईचारे की नीति का बखान करते समय उच्च कुलीन मुसलमानों ने इस सच्चाई को नजरंदाज किया है कि भारतीय मुसलमानों में भी वैसी ही जातिगत संरचना मौजूद है जैसी हिंदुओं में है.
जब तक जाति आधारित जनगणना नहीं होगी, तब तक भारत में दलित मुसलमानों पर आंकड़े उपलब्ध नहीं होंगे. हालांकि 1901 की जनगणना से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि दलित मुसलमान, मुसलमान आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं. इसीलिए उन्हें भी सरकारी लाभ मिल सकें, इसके लिए जरूरी है कि अब उन्हें भी दलितों के तौर पर वर्गीकृत किया जाए.
नीतियां बनाने वालों के लिए यह स्वीकार करना जरूरी है कि ये दलित मुसलमान भी दलित ही हैं और उन्हें सरकारी सुविधाओं, रोजगार और शिक्षा के लिए आरक्षण दिया जाए. दलित मुसलमानों की समस्याएं गंभीर हैं और दलित विचारकों, नीति निर्धारकों को उनकी तरफ ध्यान देना चाहिए.
पसमांदा मुसलमानों को लेकर छिड़ी बहस ने इन दलितों के समावेश के लिए एक नया नजरिया पेश किया है. लेकिन उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए अधिक नीतिगत पहल और कार्यक्रमों को लागू करने की जरूरत है, न कि महज सियासी और मौकापरस्त बहस की.
(बालहसन अली मुंबई के द इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेस में सीनियर रिसर्च फेलो हैं. यह एक ओपनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के हैं. द क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं, न ही वह इसके लिए जिम्मेदार है.)
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