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नीतीश कुमार का बीजेपी से अलगाव- बिहार में कौन से नए समीकरण बन सकते हैं

बिहार बीजेपी में उभरते चेहरों से नीतीश को पैदा हुआ था नया खतरा

केयूर पाठक
ब्लॉग
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नीतीश कुमार का बीजेपी से अलगाव- बिहार में कौन से नए समीकरण बन सकते हैं

फोटोःक्विंट

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माना जाता है कि बिहारियों के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. तमाम अनुमान और समीकरण यहां फ्लॉप कर जाते हैं. यह धारणा कितना सही है यह तो नहीं मालूम लेकिन पिछले दिनों में बिहार(Bihar) की राजनीति में जो कुछ हुआ वह बिहार ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति में एक भूचाल की तरह है. इसने केंद्र के विजय-रथ को एक झटके से रोक दिया, और साथ ही रेंगते हुए विपक्ष को फिर से खड़ा कर दिया. यह वर्तमान भारतीय राजनीति में एक बड़ा मोड़ है जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ना है.

मोदी और अमित शाह की जोड़ी भौंचक देखती रह गई और बिहार उनके हाथ से छीन लिया गया. ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं का भय भी बिहार के विपक्ष को भयभीत नहीं कर पाया. राजनीतिक समीक्षक कह सकते हैं कि नीतीश का यह फैसला राजनीतिक मर्यादाओं और जनादेश की अवेहलना करने वाला है, लेकिन समकालीन राजनीति में अब इन बातों के लिए शायद ही कोई जगह रह गई है.

जैसे भी हो सत्ता शीर्ष तक पहुंचना ही राजनेताओं की अंतिम आकांक्षा होती है तो ऐसे में नीतीश ने प्रचलित परम्परा का निर्वहन मात्र किया है. ऐसा करने वाले न तो ये पहले राजनेता हैं और न आखिरी.

अब सवाल उठता है कि आखिर मुख्यमंत्री से मुख्यमंत्री बनने की कवायद और इतनी जद्दोजहद उन्होंने क्यों की जबकि मुख्यमंत्री तो वे पहले भी थे ही. कई कारण बताए जा रहें है, और उन कारणों को अनदेखा किये बिना कुछ और भी अहम वजह हैं जिसके कारण नीतीश ने बीजेपी को एक तरह से बाहर कर दिया.

बीजेपी के भीतर उभरता हुआ मुखर नेतृत्व

हाल के दिनों में बीजेपी के भीतर कई ऐसे नेता हुए जो अब धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाने और बिहार की राजनीति को सीधे अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास कर रहे थे. केंद्र में लगातार मजबूत होती स्थिति से बीजेपी के नेताओं का यह प्रयास कोई असंगत बात भी नहीं मानी जा सकती. कुछ वर्ष पहले तक बीजेपी के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जिसे बिहार में सम्मानजनक लोकप्रियता मिलती रही हो. इन वर्षों में सुशील मोदी एकमात्र नेता रहे जिनके जनाधार के बारे में कुछ बताने की जरुरत नहीं. लेकिन हाल के वर्षों में कुछ ऐसे चेहरे आयें जो सुशील मोदी से अपने प्रभाव और लोकप्रियता में कुछ आगे निकले, जिसमें गिरिराज सिंह एक बड़े नाम माने जा सकते हैं.

अपनी सख्त हिन्दुत्ववादी राजनीति के बलबूते इन्होंने अपना एक अच्छा जनाधार बनाया. इसी तरह रविशंकर प्रसाद, अश्विनी चौबे, नित्यानंद राय जैसे अनगिनत लोग हैं जो संभवतः यह सोचने लगे थे कि अब बीजेपी को सीधे बिहार की राजनीति में हस्तक्षेप करनी चाहिए और उन्हें अब किसी क्षेत्रीय दल के बिना भी जीत मिल सकती है. हाल के वर्षों में बिहार में हिन्दुत्व की विचारधारा के विस्तार से उनका यह मानना गलत भी नहीं था, लेकिन बिहार एक निर्धन राज्य है यहां मजहबी चीजों की हवा तो चलती है, लेकिन फिर बह कर निकल भी जाती है. चुनाव के समय रोटी-कपड़ा-मकान का मुद्दा सामने आ ही जाता है.

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पार्टी को जीवित बचाए रखने की रणनीति

महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ जो कुछ हुआ, बिहार में चिराग पासवान के साथ जिस तरह का बर्ताव किया गया उससे एक बड़ा प्रतीकात्मक मैसेज गया कि बीजेपी जिस किसी भी दल का सहयोगी बनती है उसे धीरे-धीरे निगल जाती है. जिस वीडियो में नेताओं की खरीद-फरोख्त की बात हो रही है और अगर वह सच है तब तो नीतीश का सम्बन्ध तोड़ लेना एक बुद्धिमानी से भरा कदम ही माना जा सकता है. कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती का मामला भी एक मिशाल है कि कैसे बीजेपी से सम्बन्ध बनाने के बाद वह आज अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही हैं. अब तो उसे वहां का न तो अलगाववादी खेमा स्वीकारने को तैयार है और न मुख्यधारा से जुड़ा अवाम. शायद नीतीश को यह लगने लगा था कि बीजेपी के साथ अगर और समय तक सम्बन्ध रहे तो उनका राजनीतिक अवसान हो सकता है. वैसे भी अनगिनत सामाजिक-आर्थिक मोर्चों पर लगातार असफलता के बाद उनकी चारों तरफ आलोचना हो रही थी.

केन्द्रीय राजनीति में उपस्थिति

एक आशंका यह भी जताई जा रही है कि चुंकि नीतीश कुमार काफी लम्बे समय तक बिहार की राजनीति कर चुके हैं इसलिए अब अपनी भूमिका को और विस्तार देना चाहते हैं. इस दावे को निराधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि वर्ष 2014 में मोदी का विरोध करने की बड़ी वजह इनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही थी.

आरजेडी के साथ यह समझौता उन्हें प्रधानमंत्री बना पायेगा यह तो कठिन लगता है, लेकिन प्रधानमंत्री के पद की दौड़ में एक मजबूत उम्मीदवार के रूप में इनका नाम लिया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने अभी-अभी मृतप्राय विपक्ष को सांसें दी हैं.

बीजेपी की राजनीति से असहज समझौता

नीतीश के समर्थकों में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की रही है. उन्हें बीजेपी के साथ गठबंधन के बाद भी मुसलमानों का मत कमोबेश मिलता रहा है. बिहार में इनकी आबादी लगभग 17 फीसदी है, लेकिन बीजेपी के साथ गठबंधन के कारण इनके मुस्लिम समर्थकों के बीच एक रोष रहा था. बिहार के मेरे कुछ मुस्लिम मित्र जो JDU से जुड़े हैं, अक्सर कहा करते थे कि नीतीश उनकी प्राथमिकता हैं, बस वे बीजेपी से अलग हो जाए तो फिर कोई दिक्कत ही नहीं. नीतीश इस बात को बखूबी समझते थे इसलिए गठबंधन में होने के बावजूद कई ऐसे मुद्दे थे जिसपर नीतीश ने मुसलमान मतों को ध्यान में रखते हुए बीजेपी का विरोध भी किया था. एक तरह से कहें तो नीतीश और बीजेपी के बीच यह सम्बन्ध कोई मजबूत सम्बन्ध नहीं था. यह बस समय और समीकरण की उपज थी, न कि विचारधारा की. नीतीश की राजनीति एक संतुलित राजनीति मानी जा सकती है. जिसमें न तो RJD की तरह जातीय उन्मादी पहल थी और न बीजेपी की तरह मात्र मजहबी झुकाव.

वैसे तो RJD के साथ भी नीतीश का समझौता कोई आसान समझौता नहीं है. इस रिश्ते में दोनों ही तरफ कश्मकश बनी रहेगी, लेकिन चूंकि यह निर्णय लिया जा चुका है इसलिए उन्हें कई जगह मौन रहकर इस नए रिश्ते को निभाना होगा, क्योंकि लौटने का मार्ग बंद हो चुका है. साथ ही यह नया समीकरण बीजेपी के लिए एक बड़ी चुनौती तो होगी ही, लेकिन नीतीश के नए गठबंधन को भी बड़ी चुनौतियां मिलेंगी. बिहार में कन्हैया और चिराग जैसे भी राष्ट्रीय कद के चेहरे हैं जो इस बदलाव से अपने लिए अवसर निकालने का प्रयास करेंगे. इस नए समीकरण में बीजेपी को कुछ अधिक नहीं मिलनेवाला है.

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Published: 13 Aug 2022,04:51 PM IST

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