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Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai: ‘ये दिलाए फतह, लॉ है इसका धंधा, ये है रब का बंदा’. जब फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ शुरु होती है और मनोज बाजपेयी को पहली बार दिखाया जाता है, तब बैक ग्राउंड में यही गीत सुनाई देता है. यह बंदा खास है, इस बात का अंदाजा इसी गीत से लग जाता है. यह फिल्म दरअसल आसाराम के जीवन से जुड़ी है. और यह फिल्म वकील पीसी सोलंकी के जीवन पर बनी है, जिन्होंने आसाराम को सजा दिलवाई.
अक्सर लोगों के मन में सवाल आता है कि क्या एक ही इंसान पूरे सिस्टम के खिलाफ लड़ सकता है? क्या एक साधारण बंदे के लिए यह मुमकिन है कि वह एक बड़ी सियासी और धार्मिक ताकत वाली हस्ती के खिलाफ भिड़ जाए, बच निकले और आखिर में उसे फतह भी हासिल हो? भारतीय समाज में, जहां किसी धार्मिक बाबा की हैसियत बहुत ऊंची बना दी गई है, उसके विरोध में जंग का ऐलान कर देना किसी सेशंस कोर्ट के छोटे वकील के लिए क्या मुमकिन है भी? मनोज बाजपेयी ने पी सी सोलंकी की भूमिका अदा की है, और यह फिल्म साफ तौर पर सच्ची घटना पर आधारित है.
किसी को देखते ही समझ आ जायेगा कि फिल्म का बाबा वास्तविक दुनिया का कौन सा बाबा है. फिल्म बनाने वालों और अभिनेताओं की हिम्मत की भी दाद देने की जरूरत है, क्योंकि हमारे समाज में बाबा बने किसी तथा कथित धार्मिक व्यक्ति के लिए सब कुछ क्षम्य है और खास कर यदि उसके खिलाफ किसी छोटी बच्ची ने विरोध शुरू किया हो तो समाज इस जंग को और भी मुश्किल बना देता है.
फिल्म पोक्सो कानून की बारीकियों के बारे में भी जानकारियां देती है. यह बार-बार याद दिलाती है कि कैसे इस कानून को 2012 में बच्चों के यौन शोषण की रोक-थाम के लिये ही बनाया गया है. और किस तरह इस कानून का गलत इस्तेमाल किया जाता है. किस तरह मुजरिम के वकील इस कानून में कमियां निकालने की कोशिश करते हैं. और एक कुशल वकील कैसे उनके शातिर इरादों को भांप कर उनका मुकाबला कर सकता है.
यह कहानी शुरु होती है एक नाबालिग लड़की नू और उसके माता पिता के दिल्ली के कमाल नगर पुलिस थाने जाने के साथ. थाने में वे एक बाबा के खिलाफ नाबालिग के साथ यौन शोषण का केस दर्ज करवाते हैं. इसके बाद पुलिस बाबा को गिरफ्तार करती है. बाबा के भक्त भड़क जाते हैं और पहला वकील पैसे खाकर मामला रफा-दफा करने की फिराक में रहता है. ऐसे में लड़की के माता-पिता सहारा लेते हैं वकील पी सी सोलंकी का, जिनका किरदार खुद मनोज बाजपेयी ने निभाया हैं. वह आखिरकार इस केस में बड़े बड़े वकीलों को भी पस्त कर देते हैं.
मनोज बाजपेयी सोलंकी की भूमिका में एक ऐसे धागे का काम करते हैं जो पूरी फिल्म को बांधे रखता है. एक ओर घर पर अपनी बुजुर्ग मां को लगातार अपना ब्लड प्रेशर कम रखने की हिदायत देता रहता है, और दूसरी तरफ अपने गोद लिये बेटे का पूरा ख्याल रखता है. ऐसा लगता है कि वह सिर्फ सच्चाई के लिये काम कर रहा है. बाबा के नुमाइंदे उसके लिये 20 करोड़ की रिश्वत लाते हैं तो वह उन्हें बुरी तरह अपमनित करके भगा देता है. बेटे और मां के साथ सोलंकी के मधुर संबंध उसके व्यक्तित्व के कोमल साइड को उजागर करते हैं.
केस स्वीकार करते समय जब सर्वाइवर का पिता उससे फीस के लिये पूछ्ता है तो वह सिर्फ ‘बिटिया की मुस्कान’ मांगता है. फिल्म बताती है कि दुनिया को बदलने के लिये किसी सूरमा की दरकार नहीं. सुबह अपने पुराने स्कूटर को किक मार कर चलाने वाला, अपनी नई शर्ट का टैग लगा कर कोर्ट तक पहुंच जाने वाला बंदा भी एक असाधारण योद्धा बन कर जीवन के किसी क्षेत्र में महारथी बन सकता है.
धर्म का असली मतलब क्या है फिल्म इस बारे में भी एक सशक्त बयान देती है. एक तरफ तो एक तथाकथित धार्मिक बाबा है जो लोगों को शांति और सदाचार का ज्ञान देता है. लेकिन हकीकत में एक बलात्कारी है, जो अपने आश्राम में आने वाली नाबालिग बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है. और दूसरी तरफ एक साधारण सा वकील है जो अपने काम में पूरी मेहनत के साथ लगा है, आदर्शवादी है और पैसे एवं सत्ता के बल पर नाचने वाली दुनिया को ठेंगा दिखाते हुये अपना जीवन चला रहा होता है. धर्म वाणी में और पहनावे में नहीं बल्कि आचरण में है, यह संदेश मनोज बाजपेयी अपने किरदार के माध्यम से लोगों को देते हैं.
सर्वाइवर बच्ची के रूप में नू ने बढ़िया अभिनय किया है. एक घटिया सोच रखने वाले समाज में वह स्त्रियों को साहसी होने का संदेश देती है. उसके माता पिता उसके साथ लगातार उसके संघर्ष में साथ देते हैं. यह बात भी दर्शकों को एक सार्थक संदेश दे जाती है. नू की भूमिका अद्रिजा सिन्हा ने निभाई है.
अभिनय पर बारीक नजर डालें तो मनोज फिर से एक असाधारण एक्टर के रूप में दिखते हैं. फिल्म के आखिरी सीन में जब मामले में बहस चल रही होती है, फैसले का वक्त करीब होता है, उस समय मनोज के चेहरे का भाव देखते ही बनता है. अपने भावनात्मक उफान को वह अपने चेहरे के दाहिनी ओर की एक मांसपेशी की हरकत के जरिये व्यक्त करते हैं. इसके तुरंत बाद कैमरा जाता है, उनकी उंगलियों की तरफ और उनकी उंगलियों की हरकत ऐसा बहुत कुछ कह जाती है जो ठीक पहले उन्होने अपने लंबे डायलॉग के जरिये कहा था. उस समय हॉलीवुड अभिनेता डेन्ज़ेल वाशिंगटन की याद आती है जो अपने होठों और आंखों का खूब इस्तेमाल करते हैं. मनोज बाजपेयी फिल्म में जोधपुर में काम करने वाले वकील बने हैं और उनकी हिंदी में राजस्थानी लहजे का स्पर्श उनके बेहतरीन अभिनय का ही एक और उदाहरण है.
अपूर्व सिंह कार्की का डायरेक्शन सटीक है. शायद उनका अब तक का सबसे बेहतरीन काम है, यह कहा जा सकता है. और बताता है कि वो एक कमाल के डायरेक्टर हैं. बहुत सिंपल तरीक से भी जबरदस्त कहानी कही जा सकती है. ऐसी कहानी भी कही जा सकती है जिसके बारे में सब जानते हैं.
तारीफ इस फिल्म के प्रोड्यूसर विनोद भानुशाली की भी करनी चाहिए जो ऐसी कहानी को इस तरह से सामने लाने की हिम्मत कर पाए. अगर ऐसी कहानियों में पैसा लगाने की हिम्मत प्रोड्यूसर करेगा नहीं तो ये कहानियां बनेंगी नहीं, तो लोग सजग कैसे होंगे. इस फिल्म को जरूर देखा जाना चाहिए. धार्मिक बाबाओं को बेनकाब करने वाली इस तरह की अधिक फिल्मे बननी चाहिये. आज के समय के लिये यह बहुत जरूरी फिल्म है. इसका सशक्त सामाजिक संदेश हैं और यह बड़ी मजबूती के साथ यह हमारे समाज की एक घटिया सच्चाई के साथ जूझती दिखती है.
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