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दक्षिण में भारत का मर्म समझ आता है, साहित्य,सिनेमा,स्थापत्य, सबकुछ आकर्षक-मौलिक

South Indian cinema: दक्षिण से बिहार तक भारतीय संस्कृति को समझना क्यों जरूरी है.

केयूर पाठक
ब्लॉग
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<div class="paragraphs"><p>सिनेमा, साहित्य और दक्षिण की मेरी स्मृति</p></div>
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सिनेमा, साहित्य और दक्षिण की मेरी स्मृति

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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शहर की स्मृति शहर का इतिहास होती है. भले वह इतिहास व्यक्तिगत अनुभव पर निर्भर हो, लेकिन वह अनुभव उतना भी व्यक्तिगत नहीं होता कि उसे अन्य के अनुभवों से पूरी तरह अलग किया जा सके. इसलिए मेरी स्मृति में सामूहिकता के भी अंश हैं. दक्षिण से मेरा नाता शायद पिछले जनम का है. मैंने वहां कुछ वर्ष गुजारे लेकिन मन पर उसकी छाप जनम भर की है. वहां के सूखे-कंटीले जंगल, ढहते-भहते पहाड़, सबकुछ ऐसा लगता है मेरे भीतर ही रह गया. उन जंगलों से मैं अबतक नहीं निकल पाया. उन पहाड़ों से मैं अबतक उतर नहीं पाया.

कई जगहें वीरान थी, जहां मैं जाया करता था. लेकिन उस विरानेपन में भी मेरे भीतर एक शोर सा पैदा हो जाता था. पुरानी से पुरानी सुनसान जगहों पर गया. ऐसा लगता था जैसे इतिहास मेरे साथ चल रहा है. कई बार मैं मचल जाता. मुझे सैकड़ों साल पहले की पदचाप सुनाई पड़ने लगती. ऐसा लगता बीते हुए कल की कहानियां मेरे कानो में फुसफुसा रही हैं. और उन कहानियों में मेरा वर्तमान ठहर जाता. मैं उसे सुनने समझने की कोशिश करने लगता. बेशक यह मन के अन्दर की भावनाओं की धारा थी. लेकिन एक “रिसर्चर” के लिए भावनाओं से अलग होकर जीवन की घटनाओं को देखना वैज्ञानिक नहीं होता. पहले भावनाओं में डूबकर चीजों को महसूस करो, और फिर भावनामुक्त होकर उसका विश्लेषण करो, क्योंकि भाव-शून्य विज्ञान, विज्ञान नहीं हो सकता.

दक्षिण के बारे में हम कम जानते हैं. या यूं कहे बहुत कम जानते हैं. इतिहास से लेकर वर्तमान तक में भारत के दक्षिणी हिस्से की समझ भारत के उत्तरी हिस्से के लोगों को कम रही है. और इस बात की शिकायत इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री भी अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ़ साऊथ इंडिया' में करते हैं. जब इतिहास का केंद्र दिल्ली बना रहेगा तो दक्षिण की समझ कैसे विकसित होगी! लम्बे समय तक दक्षिण राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्शों से भी बाहर रहा. उनका जिक्र भी होता तो बस काले लोग, तपती गर्मी, समन्दर, और नारियल का पानी ही दक्षिण का पर्याय बना. जबकि दक्षिण में मुझे भारत का मर्म समझ में आया. साहित्य, कला-स्थापत्य, सिनेमा, भाषा, सबकुछ आकर्षक और मौलिक- जिसमें भारत की ऐतिहासिकता के दर्शन होते थे.

मेरे लिए सिनेमा और साहित्य किसी भी समाज को पढ़ने का सबसे सुगम माध्यम रहा है. जिन समाजों में सिनेमा नहीं है वहां के गीत-संगीत, काव्य, कहानियां कहावतें आदि के द्वारा हमने उन्हें समझने का प्रयास किया. दक्षिण को भी मैंने यात्रा में अनुभव किया और विराम-काल में इसके साहित्य और सिनेमा को पलटा देखा. बिहारी होने के नाते उनके सिनेमा से यह भी जाना कि वहां बिहार के लोगों की क्या धारणा है! अनगिनत फिल्मों में मैंने देखा कि गुंडे जब नायक से लड़कर थक जाते हैं तो, वे बिहार से बड़े गुंडे मंगातें हैं. यानि बिहार की जो छवि है वह आज भी मध्यकालीन टाइप की ही है- लड़ाकू, बर्बर और असभ्य.

यह एक मात्र ऐसा राज्य है जिसकी संज्ञा किसी को अपमानित करने के लिए दी जाती है- “बिहारी”. लेकिन इन सब बातों से अलग जो थोड़ी अच्छी बात दिखी की वे यह भी मानते हैं कि बिहारी बेहद मेहनती, बेबाक और जबरदस्त रूप से निर्भीक होते हैं. यह कितना सच है इसका मूल्याङ्कन नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसी धारणाओं का मैं कोई अपवाद नहीं हूं. बिहारियों को बिहारी होने का दंश आमतौर पर उत्तर-पश्चिम भारत में ही अधिक झेलने को मिलता है. दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, असम और यहाँ तक कि उत्तर-प्रदेश में भी बिहारी एक गाली है. उत्तर-प्रदेश के एक मित्र ने अपने घर का एक किस्सा सुनाया कि उसकी पत्नी को उसकी माँ ने एक दिन बिहारी बोल दिया तो वह कई दिनों तक नाराज रही. यह वाकई कमाल की बात है! आप गौर करें बिहारियों के साथ जो भी हिंसा हुए हैं ये उत्तर, पश्चिम भारत में ही अधिक हुए हैं और संस्थागत रूप से हुए हैं. वहीं दक्षिण में इसके मामले न के बराबर हैं.

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मौलिकता अधिक संवेदनशील होती है. यह अपनी कु-परम्पराओं पर पुनर्विचार करती है और फिर सुधार करती है. इसमें अपने अतीत को स्वीकारने का साहस होता है और वर्तमान को गढ़ने की ललक. दक्षिण का सिनेमा और समाज दोनों मौलिक है. दुनिया में बन रहे सिनेमा को हम तीन भागों में बाँट कर देख सकते हैं- पहला, जिन सिनेमाओं में सांस्कृतिक जड़ों की तरफ एक झुकाव होता है. और उसमें उन्हीं सामाजिक मूल्यों और परम्पराओं का चित्रण अधिक होता है. जैसे, भारत में देखें तो तामिल, तेलुगु, भोजपुरी, मलयाली सिनेमा आदि. पसंद-नापसंद अपनी-अपनी हो सकती है. लेकिन तेलुगु, मलयाली आदि सिनेमा को आप “मशाला” फ़िल्में कह सकते हैं. भोजपुरी सिनेमा को “अश्लील” कह सकते हैं, वैसे ही जैसे मंटो के साहित्य को “अश्लील” बोला गया. लेकिन अपनी रचनात्मकता में यह अधिक मौलिक है और अपने परिणाम में अधिक प्रभावी है. यह अपने-अपने समाज के जीवन को खूबसूरती और अधिक सच्चाई से दिखाता है. इसने कभी भी किसी प्रकार का आदर्श स्थापित करने का प्रयास कम ही किया. जैसा होता है वैसा दिखाया. इसने उस समाज को बदलने से अधिक उसकी स्थिरता और उसके स्वभाव का चित्रण करने का प्रयास किया.

दूसरी श्रेणी में हम उन सिनेमा को रख सकते हैं जिसपर आधुनिकता और पश्चिमी-वैज्ञानिकता का प्रभाव अधिक होता है. इसमें हॉलीवुड के सिनेमा को रखा जा सकता है. ऐसे सिनेमा समाज से प्रभावित तो होते ही है साथ ही यह समाज को नए प्रकार से देखने की भी दृष्टि देती है. इसमें समाज और दुनिया को बदलने पर अधिक जोर दिया जाता है. इसके लिए वैज्ञानिक फंतासीयों का भी सहारा लिया जाता है. यह उन मूल्यों और दृष्टिकोणों को अधिक महत्व देता है जो समाज में लाये जाने की जरुरत है न कि उनको जो पहले से ही समाज में मौजूद हैं. यह प्रगतिशीलता और प्रयोग का सिनेमा होता है.

एक तीसरा प्रकार भी है, इसमें परम्परा और आधुनिकता दोनों की सवारी की जाती है. कारण यह अपनी मौलिकता खो देती है. इसे आधुनिक और वैज्ञानिक मूल्य भी आकर्षित करते हैं और परम्परा के मोह से भी यह निकल नहीं पाता. जिस कारण इसमें रचनात्मक पंगुता की स्थिति साफ़-साफ़ दिखती है. इसका शानदार उदाहरण हिंदी सिनेमा हैं.

दक्षिण का सिनेमा इस मामले में अधिक मौलिक दिखा. इसने अपनी-परंपरागत सोच और रुढियों से समझौता कम ही किया. जहाँ किया भी वहाँ उसने संतुलन को नहीं बिगाड़ा. इन सिनेमाओं में पारंपरिक मूल्यों से प्रेरित दिक्कतें के मामलों से इंकार नहीं किया जा सकता जैसे की जाति,जेंडर वगैरा. लेकिन फिर भी इन समस्याओं के विरुद्ध उठने वाली सबसे मुखर आवाजें भी इन्हीं फिल्मों से आई हैं. निश्चय ही मौलिकता अधिक प्रगतिशील होती है. आप जैसे हैं वैसा स्वीकारते हैं मतलब आप बदलाव को स्वीकारने की स्थिति में हैं.

वहाँ के साहित्य की समझ मेरी कमजोर रही. जो भी पढ़ा अनुवाद ही पढ़ा. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि उस समाज को समझ नहीं पाया. मैंने उस समाज को कम हिंसक पाया. बात-बात पर तलवार निकलने वाली बात कम देखी. मैंने वहाँ लहू उबलने वाली कहावतें कम ही सुनी. वीर रस की कवितायेँ आमतौर पर कम मिली. आखिर क्या वजहें रही होंगी! सोचता हूँ तो लगता है शायद उत्तर की तुलना में इसने अधिक लड़ाईयां नहीं झेली.

उत्तर में तो क्षेत्रों के नाम से ही युद्ध और संघर्ष की महक आती है, जैसे की हस्तिनापुर, कुरुक्षेत्र, बक्सर, चौसा, पानीपत, हल्दीघाटी और ना जाने कितने. उत्तर का इतिहास आज भी इसके वर्तमान पर हावी है. आज भी तलवारों की झंकार, और तीरों की सनसनाहट यहाँ की हवाओं में गूंज रही है. तो दूसरी तरफ दक्षिण है जिसका इतिहास वर्तमान से संचालित है. आज की बात कल की बात पर भारी हैं. मैं आज भी वहाँ के साहित्य और सिनेमा को पढ़ता सुनता हूँ. यह जानते हुए कि वहाँ मेरा कभी जाना भी होगा तो अतिथि की तरह.

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