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अमेरिका आने के बाद महसूस किया कि हम भारतीय लोगों ने अमेरिकियों के बारे में कितनी गलतफहमियां पाल रखी हैं. शायद टीवी और फिल्मों का इसमें बड़ा योगदान है. जब मैं अमेरिका आया तब यहां राष्ट्रपति चुनाव (US presidential election) होने में एक साल बाकी था. ऐसे में जाने अनजाने में हर बात राष्ट्रपति चुनाव की तरफ मुड़ जाती थी. अमेरिकी लोग यहां राजनीतिक और सामाजिक रूप से कितने जागरूक हैं यह तभी जाना. साथ ही वो अपने अधिकार ही नहीं, बल्कि अपने कर्तव्यों के प्रति भी काफी सजग हैं.
जब-जब बोलने की जरूरत होती है, बोलते हैं, वो भी बिना किसी डर या संकोच के, भले ही उन्हें अपने मेयर या राष्ट्रपति से ही क्यों ना बोलना हो! हर विषय पर लगभग हर किसी के यहां अपने खुद के मत होते हैं, अपने मत वो बिना किसी झिझक के व्यक्त करते हैं, और अपने मत पर अड़े रहते हैं. अक्सर उनके मत या व्यक्तिगत सोच उनकी पहचान की तरह होती है और अपने छोटे मोटे फायदे के लिए वो अपने मतों से पीछे नहीं हटते. इसका एक बड़ा कारण, बचपन से ही ऐसे माहौल को बढ़ावा देना और हर किसी के व्यक्तिगत मतों का सम्मान करना है. अभी भी आम अमेरिकियों में ये विचार भरे हुए हैं, भले ही टीवी और सोशल मीडिया पर उन्हें कैसा भी दिखाया जाए.
जैसा कि सभी जानते हैं, यहां दो प्रमुख पार्टियां हैं-रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक. दोनों पार्टियों की अपनी-अपनी विचारधाराएं और सिद्धांत हैं, और लोगों की व्यक्तिगत विचारधारा जिस पार्टी से मिलती है वो उस पार्टी में सम्मिलित होते हैं; अगर कोई भी दल पसंद ना हो तो ‘इंडिपेंडेंट’ रहते हैं.
मैंने उसे बताया कि बहुदलीय व्यवस्था होने के कारण लोगों के पास विकल्प होते हैं और जिस पार्टी से जीत की संभावना दिखे, लोग उसमें चुनाव के पहले चले जाते हैं. यकीन मानिए यह सुनकर वह इंसान हैरान हो गया. उसका अगला सवाल मुझे झकझोर गया. उसने पूछा, 'क्या सिर्फ चुनाव लड़ने और जीतने के लिए ही राजनीतिक दल में शामिल होते हैं? ये कैसा लॉजिक है?' मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था. मैं बस इतना कह पाया कि कुछ मौका परास्त नेता ही ऐसा करते हैं. दरअसल मुझे अपने देश के नेताओं के बारे में और कुछ कहना ठीक नहीं लगा.
नेताओं का पार्टी बदलना तो हम भारतीय लोगों के लिए बहुत आम बात है. हम तो यह मानकर चलते हैं कि जिस पार्टी के जीतने की संभावना ज्यादा हो, ज्यादातर नेता उसी पार्टी में चले जाएंगे. नेता जब पार्टी बदलते हैं तो हर न्यूज चैनल पर इस खबर को गॉसिप की तरह चलाया जाता है. लोग जैसे पदोन्नति के लिए एक संस्था या कंपनी से दूसरी संस्था में जाते हैं, वैसे ही नेतागण पार्टी बदलते हैं और अगर कोई व्यक्ति चुनाव में निर्दलीय खड़ा हो तो हम मान लेते हैं कि किसी भी पार्टी ने उसे टिकट नहीं दिया होगा इसलिए तो वह व्यक्ति निर्दलीय चुनाव लड़ रहा है. हालांकि यह समस्या का अति-सरलीकरण जैसा है. नौकरी बदलना और पार्टी बदलना बहुत अलग आयाम पर हैं.
नेता होना बहुत अलग है. एक अच्छा नेता बनने के लिए यह मायने रखता है कि आप समाज, लोग, देश, व्यवस्था के बारे में क्या सोचते हैं, स्वास्थ्य शिक्षा और वाणिज्य के बारे में क्या सोचते हैं, नीति और प्रणाली के बारे में क्या सोचते हैं. युवाओं के वर्तमान और बच्चों के भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं. यह सोच ही एक राजनीतिज्ञ और नेता की पहचान होती है, ना कि यह कि वह किस पार्टी का है और किस पार्टी में जा रहा है.
यानी कि विचारधारा आपकी पहचान दर्शाती है. इंसान अगर अपनी विचारधारा का नहीं तो किसी और का क्या होगा! हां, विचार समय के साथ और परिपक्व हो सकते हैं और इसके साथ आपकी सोच में अंतर आ सकता है. मगर यह सोच सिर्फ चुनावों के समय नहीं बदल सकती और चुनाव में हार-जीत पर निर्भर नहीं रह सकती. इसलिए इंसान को अपनी विचारधारा के प्रति हमेशा सजग रहना चाहिए. अगर आप अपनी विचारधारा कपड़ों के साथ बदलते हैं तो आप पर विश्वास करना कठिन हो जाएगा. शायद यही वजह है मेरे अमेरिकी मित्र के हैरान होने की. उसकी नजर में वहां के दोनों दल दो अलग व्यक्तित्व निर्धारित करते हैं जो कि मेढक की तरह इस तालाब से उस तालाब नहीं जा सकता. यही वजह है कि डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी की मुख्य विचारधारा से मेल खाए बिना कोई इन पार्टियों में शामिल नहीं होता क्योंकि अपनी पहचान स्थापित करना और उसे बनाकर रखना यहां बहुत बड़ी बात होती है.
जब अमीरों के टैक्स को कम करने की बात हो रही हो तो लोग समझ जाते हैं कि एक रिपब्लिकन उम्मीदवार की बात हो रही है, और जब कोई अप्रवासी लोगों के भी स्वागत करने की बात कर रहा हो तो उसे डेमोक्रेट समझ लिया जाता है. यही वजह है कि जब यहां के सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी जजों के नाम प्रेषित किए जाते हैं तो हर दल अपनी विचारधारा से मेल रखते लोगों के ही नाम भेजता है क्योंकि यहां जज की नियुक्ति आजीवनकाल के लिए होती है.
ऐसा नहीं है कि यहां पार्टियां नहीं बदली जातीं. पर अक्सर अपनी पार्टी से किसी सिद्धांत पर मोह-भंग होने के बाद ही कोई पार्टी बदलता है, ना कि आने वाले चुनाव में अपनी जीत की संभावना को देखकर.
यहां जनता सवाल पूछती है. इसके विपरीत अपने देश की बात करें तो चुनाव के समय जाने कितनी ही पार्टियां बनती हैं, टूटती हैं, बिखरती हैं, उनका विलय होता है. धन और पद के लालच में लोग इस दल से उस दल करते फिरते हैं. विचार और विचारधारा से बड़ा जब निजी स्वार्थ और पद हो जाए तो शायद ऐसा ही होता है! लोकतांत्रिक विचार हाशिये पर चले जाते हैं, जनता सवाल नहीं करती और सुध नहीं लेती, स्वार्थी नेता प्रचंप रचकर चुनाव जीत लेते हैं और फिर हम रोते रहते हैं कि “नेता बस चुनाव के समय दिखते हैं, फिर पांच साल गायब हो जाते हैं और ऐसे नेताओं ने देश बर्बाद कर रखा है.”
जनता को थोड़ा कठोर बनना होगा, नेताओं से सवाल करने होंगे और उन पर अनुशासन की लगाम कसनी होगी. लोकतांत्रिक विचार और विचारधारा से बड़ी ना कोई पार्टी हो सकती है, ना कोई नेता, ना मीडिया, और ना ही जनता.
(डॉ. पीयूष कुमार न्यूयॉर्क सिटी में वैज्ञानिक/शोधकर्ता हैं. साहित्य और राजनीति में उनकी गहरी रुचि है. उनका ट्विटर हैंडल @piyushKAVIRAJ है. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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