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जिमनास्टिक में भारतीय लड़की. चमकती-दमकती पोशाक. रोशनी से जगमगाता एरिना. प्रोदुनोवा जैसा रिस्क. ये सारे दृश्य और बातें 24 साल की एक लड़की की छवि आंखों के सामने लाते हैं. उस लड़की का नाम है दीपा करमाकर. 9 अगस्त को दीपा का जन्मदिन है. दीपा ने रियो ओलंपिक्स में बेहद मामूली चूक से मेडल तो गंवाया, लेकिन अपने लिए, अपने कोच के लिए और घरवालों के लिए खूब नाम कमाया. सच ये है कि दीपा हारकर भी जीती. करोड़ों लोगों ने उसका जज्बा देखा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर तक ने उसकी पीठ थपथपाई. तमाम सम्मान मिले. भारत के ओलंपिक इतिहास में ये पहला मौका था, जब किसी महिला जिमनास्ट ने ओलंपिक में नुमाइंदगी की हो.
तब दीपा 22 की थी. आज दीपा 25 साल की हो गई है. बीते तीन सालों में फिटनेस के उतार-चढ़ाव से उन्हें गुजरना पड़ा है. 2018 में उसने जिमनास्टिक वर्ल्ड कप के वॉल्ट इवेंट में गोल्ड मेडल जीतकर एक बार फिर सुर्खियां बटोरीं. जाहिर है अब अगर निगाहें हैं तो 2020 के टोक्यो ओलंपिक पर और सपना है पोडियम फिनिश यानी गले में मेडल. वो सपना जो उसने कई साल से पाल रखा है.
दीपा का पूरा बचपन जिमनास्टिक में ही बीता है. उन्होंने साढ़े पांच साल की उम्र से ही जिमनास्टिक शुरू कर दिया था. तब दीपा ने स्कूल तक जाना शुरू नहीं किया था. दीपा के पापा के अलावा घर में बुआ, फूफा और कुछ और बच्चे खेलकूद में बहुत ‘एक्टिव’ थे. पिता वेटलिफ्टिंग के कोच थे. उन्होंने भी दीपा के बचपन में ही सोच लिया था कि उसको खेलकूद की दुनिया में ले जाएंगे. ऐसा क्या देखा था दीपा के पापा ने बचपन में, इस सवाल के जवाब में दीपा की आंखों में अब भी चमक आ जाती है. वो कहती है-
मुश्किल तब हुई जब पता चला कि दीपा ‘फ्लैट फुट’ है. दीपा तब करीब 8-9 साल की हो चुकी थी. ‘फ्लैट फुट’ के बारे में अमूमन कहा जाता है कि फ्लैट फुट वाले जिमनास्टिक नहीं कर सकते हैं. लेकिन दीपा के कोच नंदी सर ने उसको कुछ ‘एक्सरसाइज’ कराई और उस परेशानी को दूर किया.
एक बार ‘फुल फ्लेजेड’ प्रैक्टिस शुरू हो गई तो हर तरफ से सहयोग भी मिलने लगा. दीपा जब इवनिंग शिफ्ट के स्कूल में थीं, तो उन्हें प्रैक्टिस में जाने के लिए जल्दी छुट्टी मिलती थी. अगर किसी बड़े टूर्नामेंट में जाना है तो उससे पहले भी छुट्टियां मिल जाती थीं. अपने स्कूली दोस्तों को याद करके दीपा कहती हैं-
इसके बाद साल 2002 में दीपा ने पहला मेडल जीता था. अगरतला में ही एक कंपिटीशन हुआ था. इसी जीत के बाद दीपा को पहली बार ट्रैक सूट मिला था. जीत का सिलसिला इसके बाद आगे बढ़ता रहा. हां, एक बार प्रैक्टिस के दौरान दीपा के हाथ की हड्डी जरूर टूटी, लेकिन दीपा के लिए वो मामूली चोट थी. जिससे उबरने के बाद चोट, जीत और हार का सिलसिला साथ साथ ही चलता रहा.
यूं भी दीपा बहुत जिद्दी हैं. एक बार एक विदेशी कोच ने वॉल्ट की एक नई तकनीक को लेकर कह दिया कि लड़कियां नहीं कर पाएंगी. दीपा को ये बात इतनी चुभ गई कि उन्होंने आखिर में उस तकनीक पर जीत हासिल करके ही दम लिया. इसका श्रेय वो अपने कोच को देती हैं.
दीपा के कोच उसके पिता की तरह हैं. पिछले सत्तरह साल से दोनों साथ हैं. दीपा खुद ही कहती हैं:
दीपा के नाम के साथ प्रोदुनोवा का नाम जुड़ा हुआ है. 2016 से पहले प्रोदुनोवा कोई जानता भी नहीं था. फिर ये शब्द इतना लोकप्रिय हो गया कि एक बार एक टैक्सी वाले ने स्टेडियम ‘ड्रॉप’ करते वक्त दीपा से ही पूछ लिया- आप वहीं हैं जो प्रोदुनोवा करती हैं. प्रोदुनोवा इतना खतरनाक होता है कि उसे डेथवॉल्ट भी कहते हैं.
दीपा से आप पूछिए कि डर लगता है प्रोदुनोवा करते वक्त, वो पलट कर आपसे ही पूछ लेती हैं कि डर किस बात का? इतनी प्रैक्टिस क्यों की है प्रोदुनोवा से अगर डरना ही है तो.
रियो में उन्होंने ये करामात की भी थी. लेकिन दूसरे स्टेप में वो फिनिश करने से चूक गईं. जब हार का पता चला तो दीपा को रोना आया. पहले तो कोच ने समझाया बुझाया लेकिन फिर उनकी भी आंखें भर आईं. इतिहास रचने का मौका हाथ से फिसल चुका था. उस रोज का अब अगर दीपा को कुछ याद है तो बस इतना कि उस दिन से पहले कोच सर ने एक भी दिन ‘मैकडॉनल्ड’ खाने नहीं दिया था. उस दिन वो खुद से ही बोले-चलो मैकडॉनल्ड चलते हैं. तुम्हें जो मन करे वो खाओ. इसके बाद दीपा के दिमाग से रियो ओलंपिक निकल गया. अब दिमाग में क्या है? दीपा कहती हैं- टोक्यो ओलंपिक.
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